Sunday 28 December 2014

Soorah Akhlas 112 /30

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
**********
सूरह इखलास - ११२ - पारा - ३० 
( कुल हवाल लाहो अहद) 

जंगे-बदर के बाद जंगे-ओहद में अल्लाह के खुद साख्ता रसूल हार के बाद अपने मुँह ढक कर हारी हुई फ़ौज के सफ़े-आखीर में पनाह लिए हुए खड़े थे और अबू सुफ्यान की आवाज़ ए बुलंद को सुनकर भी टस से मस न हुए. वह आवाज़ जंग का बाहमी समझौता हुवा करता था कि नाम पुकारने के बाद दस्ते के मुखिया को सामने आ जाना चाहिए ताकि उसके मातहतों का खून खराबा मजीद न हो. 
वैसे भी मुहम्मद ने कभी तलवार और तीर कमान को हाथ नहीं लगाया, बस लोगों को चने की झाड़ पर चढाए रहते थे. उनका कलाम होता ,
'' मार ज़ोर लगा के, तुझ पर मेरे माँ बाप कुर्बान"
सूरह इखलास
"आप कह दीजिए वह यानि अल्लाह एक है,
अल्लाह बेनयाज़ है,
इसके औलाद नहीं,
और न वह किसी की औलाद है, और न कोई उसके बराबर है."
नमाज़ियो !
सूरह अखलास दूसरी ग़नीमत सूरह है, पहली ग़नीमत थी सूरह फातेहा. बाक़ी कुरआन सूरतें करीह हैं , तमाम सूरतें मकरूह हैं. 
इन दोनों सूरतों को छोड़ कर बाक़ी कुरआन नज़रे-आतिश कर दिया जाय, तो भी इस्लाम की लाज बच सकती है, वरना तो ज़रुरत है मुकम्मल इन्कलाब की.

इसमें कोई शक नहीं की कुदरत की न कोई औलाद है, न ही वह किसी की औलाद. इसी तरह कुदरत की मज़म्मत करना या उसे पूजना दोनों ही नादानियाँ हैं. 
कुदरत का सामना करना ही उसका पैगाम है. कुदरत पर फ़तह पाना ही इंसानी तजस्सुस और इंसानी ज़िन्दगी का राज़ है. कुदरत को मगलूब करना ही उसकी चाहत है.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment