Thursday 5 March 2015

Allah kahta hai - - -

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
************
बेदारियाँ (जागृति) 8

समाज की बुराइयाँ, हाकिमों की ज्यादतियां और रस्म ओ रिवाज की ख़ामियाँ देख कर कोई साहिबे दिल और साहिबे जिगर उठ खड़ा होता है, वह अपनी जान को हथेली पर रख कर मैदान में उतरता है. वह कभी अपनी ज़िदगी में ही कामयाब हो जाता है, कभी वंचित रह जाता है और मरने के बाद अपने बुलंद मुकाम को छूता है, 
ईसा की तरह. मौत के बाद वह महात्मा, गुरू और पैगम्बर बन जाता है. इसका वही मुख़ालिफ़ समाज इसके मौत के बाद इसको गुणांक में रुतबा देने लगता है, इसकी पूजा होने लगती है, अंततः इसके नाम का कोई धर्म, कोई मज़हब या कोई पन्थ बन जाता है. 
धर्म के शरह और नियम बन जाते हैं, फिर इसके नाम की दुकाने खुलने लगती हैं और शुरू हो जाती है ब्यापारिक लूट. 
अज़ीम इन्सान की अजमत का मुक़द्दस खज़ाना, बिल आखीर उसी घटिया समाज के लुटेरों के हाथ लग जाता है. इस तरह से समाज पर एक और नए धर्म का लदान हो जाता है.
हमारी कमजोरी है कि हम अज़ीम इंसानों की पूजा करने लगते हैं, जब कि ज़रुरत है कि हम अपनी ज़िन्दगी उसके पद चिन्हों पर चल कर गुजारें. हम अपने बच्चों को दीन पढ़ाते हैं, जब कि ज़रुरत है कि उनको आला और जदीद तरीन अखलाक़ी क़द्रें पढ़ाएँ. 
मज़हबी तालीम की अंधी अकीदत, जिहालत का दायरा हैं. इसमें रहने वाले आपस में ग़ालिब ओ मगलूब और ज़ालिम ओ मज़लूम रहते हैं.
दाओ धर्म कहता है 
"जन्नत का ईश्वरीय रास्ता ये है कि अमीरों से ज़्यादा लिया जाए और गरीबों को दिया जाए. इंसानों की राह ये है कि गरीबों से लेकर खुद को अमीर बनाया जाए. कौन अपनी दौलत से ज़मीन पर बसने वालों की खिदमत कर सकता है? वही जिसके पास ईश्वर है. वह इल्म वाला है, जो दौलत इकठ्ठा नहीं करता. जितना ज्यादः लोगों को देता है उससे ज्यादः वह पाता है."
कट्टर हिन्दू संगठन अक्सर कुरआन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहते हैं मगर उनका मुतालबा सीमित रहता है कि क़ुरआन से केवल बह आयतें हटा दी जाएँ जो काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद का आह्वान करती हैं, बाक़ी कुरआन पर उनको कोई आपत्ति नहीं. 
इस मांग में उनका हित इस्लामी जिहादियों की तरह ही निहित है कि इससे मुस्लिम वर्ग का हमेशा अहित ही होगा. 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment