Wednesday 6 May 2015

Soorah bakar 2 (1-10)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
*************
"अलम " 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत १ ) 
यह भी क़ुरआन की एक आयत है. 
यानी अल्लाह की कोई बात है। 
ऐसे लफ्ज़ या हर्फ़ों को हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहते हैं, जिन के कोई मानी नहीं होते। ये हमेशा सूरह के शुरुआत में आते है। आलिमाने दीन (दर अस्ल बेदीन लोग) कहते हैं इन का मतलब अल्लाह ही बेहतर जानता है। 
मेरा ख़याल है यह उम्मी मुहम्मद की हर्फ़ शेनासी की हद या मन्त्र की जप मात्र थी, वगरना अल्लाह जल्ले शानाहू की कौन सी मजबूरी थी की वह अपने अहकाम को यूँ मोहमिल (अर्थ-हीन) और गूंगा रखता। 
''ये किताब ऐसी है जिस में कोई शुबहा नहीं, राह बतलाने वाली है, अल्लाह से डरने वालों को।" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 2 ) 
आख़िर अल्लाह को इस कद्र अपनी किताब पर यक़ीन दिलाने की ज़रूरत क्या है? इस लिए कि यह झूटी है क़ुरआन में एक खूबी या चाल यह है कि मुहम्मद मुसलामानों को अल्लाह से डराते बहुत हैं। मुसलमान इतनी डरपोक क़ौम बन गई है कि अपने ही अली और हुसैन के पूरे खानदान को कटता मरता खड़ी देखती रही, अपने ही खलीफा उस्मान गनी को क़त्ल होते देखती रही, उनकी लाश को तीन दिनों तक सड़ती खड़ी देखती रही, किसी की हिम्मत न थी की उसे दफनाता, यहूदियों ने अपने कब्रिस्तान में जगह दी तो मिटटी ठिहाने लगी., मगर मुसलमान इतना बहादुर है कि जन्नत की लालच और हूरों की चाहत में सर में कफ़न बाँध कर जेहाद करता है. 
आगे आप देखिएगा कि मुहम्मद के कुरआन ने मुसलामानों को कितने आसमानी फ़ायदे बतलाए हैं और गौर कीजिएगा कि उसमें कितने ज़मीनी नुकसान पोशीदा हैं. 
"वह लोग ऐसे हैं जो ईमान लाते हैं छिपी हुई चीज़ों पर और क़ायम रखते हैं नमाज़ को यकीन रखते हैं इस किताब पर और उन किताबों पर भी जो इस के पहले उतारी गई हैं और यकीन रखते हैं आखिरत पर। बस यही लोग कामयाब हें" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 4-5) 
हरगिज़ नहीं छिपी हुई चीजें चोर हैं, फरेब हैं, छलावा हैं। अल्लाह छुपा हुवा है, कुफ्र और शिर्क के हर पहलू छुपे हुए हैं. मुहम्मद कुरआन के मार्फ़त आप को गुमराह कर रहे हैं. न कुरआन आसमानी किताब है न दूसरी और कोई किताब जिसको वह कहती है. जब असीमित आसमान ही कोई चीज़ नहीं है तो आसमान की तमाम बातें बकवास हैं. 
आखिरत का खौफ दिल में डाल कर मुहम्मदी खुदा ने इंसानी बिरादरी के साथ बहुत बड़ा जुर्म किया है. आखिरत तो वह है कि इंसान पूरी उम्र ऐसे गुजारे कि आखिरी लम्हे उसके दिल पर कोई बोझ न रहे. मौत के बाद कहीं कुछ नहीं है. 
"बे शक जो लोग काफ़िर हो चुके हैं, बेहतर है उनके हक में, ख्वाह उन्हें आप डराएँ या न डराएँ, वह ईमान न लाएंगे। बंद लगा दिया है अल्लाह ने उनके कानों और दिलों पर और आंखों पर परदा डाल दिया है" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 6-7) 
सारी कायनात पर कुदरत रखने वाला अल्लाह मामूली से काफिरों के सामने बेबस हो रहा है और अपने रसूल को मना कर रहा है कि इनको मत डराओ धमकाओ. यहाँ पर अल्लाह की मंशा ही नाक़ाबिले फ़हेम है कि एक तरफ़ तो वह अपने बन्दों के कानों में बंद लगा रखा है दूसरी तरफ़ इस्लाम को फैलाने की तहरीक? ख़ुद तूने आंखों और दिलों पर परदा डाल दिया है और अपने रसूल को पापड़ बेलने के काम पर लगा रखा है. यह कुछ और नहीं मुहम्मद की इंसानी फितरत है जो अल्लाह बनने की नाकाम कोशिश कर रही है. 
इस मौके पर एक वाकेया गाँव के एक नव मुस्लिम राम घसीटे उर्फ़ अल्लाह बख्श का याद आता है --- 
मस्जिद में नमाज़ से पहले मौलाना पेश आयत को बयान कर रहे थे, अल्लाह बख्श भी बैठा सुन रहा था, पास में बैठे गुलशेर ने पूछा , 
"अल्लाह बख्श कुछ समझे ? 
"अल्लाह बख्श ने ज़ोर से झुंझला कर जवाब दिया , 
"क्या ख़ाक समझे ! 
"जब अल्लाह मियाँ खुदई दिल पर परदा डाले हैं और कानें माँ डाट ठोके हैं. पहले परदा और डाट हटाएँ, मोलबी साहब फिर समझाएं" 
भरे नामाज़ियों में अल्लाह कि किरकिरी देख कर गुलशेर बोला "रहेगा तू काफ़िर का काफ़िर'' 
"तुम्हारे ऐसे अल्लाह की ऐसी की तैसी" कहता हुवा घसीटा राम सर की टोपी उतार कर ज़मीन पर फेंकता हुवा मस्जिद से बाहर निकल गया. 
"और इन में से बाज़ ऐसे हैं जो कहते हैं ईमान लाए मगर वह अन्दर से ईमान नहीं लाए, झूटे हैं, चाल बाज़ी करते हैं अल्लाह से. उनके दिलों में बड़ा मरज़ है जो बढ़ा दिया जाएगा. इन के लिए सज़ा दर्द नाक है, इस लिए कि वह झूट बोला करते हैं." 


(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 8-10) 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment