Friday 8 May 2015

Soorah Bakr 2 (23-43)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अलबकर -२ पहला पारा 
तीसरी किस्त ( 23-43)
कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा कानून भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. धर्म अड्डों धर्म गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का सन्रक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं. 
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फतवा की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, १०% मुस्लमान उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्काय्दयों की फसल तैयार हो रही है. 
सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं कोई भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ। हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है. 
अब शुरू है उम्मी का दीवान - - -फतह मक्का के बाद अरब क़ौम अपनी इर्तेकाई उरूज को खो कर शिकस्त खुर्दगी पर गामज़न हो चुकी थी। जंगी लदान का इस्लामी हरबा उस पर इस क़दर पुर ज़ोर और इतने तवील अरसे तक रहा कि इसे दम लेने की फुर्सत न मिल सकी। इस्लामी ख़ुद साख्ता उरूज का ज़वाल उस पर इस कद्र ग़ालिब हुवा की इस का ताबनाक माज़ी कुफ़्र का मज़्मूम सिम्बल बन कर रह गया। योरोप के शाने बशाने बल्कि योरोप से दो क़दम आगे चलने वाली अरब क़ौम, योरोप के आगे ab घुटने टेके हुए है। 
अल्लाह कहता है - - - 
"अल्लाह काफिरों को चैलेंज करता है कि कुरान की एक आयत जैसी आयत कोई बना कर दिखलाए (ये मुहम्मदके अन्दर का शाएर बोलता है ) और लोग दर्जनों आयतें गढ़ गढ़ कर उन के सामने रख देते हैं मगर उनका चैलेंज कायम रहता है कि क़यामत तक नहीं बना सकते।" 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत २३) 
मुहम्मद का ये दावा कुरआन में कई बार दोहराया जाता है। उसके बाद कुरआन कहता है - - "तो फिर बचते रहो दोज़ख से जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं, तैयार हुई रक्खी है, काफिरों के लिए" 
(सूरहअलबकर २ पहला पारा , आयत २४ ) 
कभी इंसान और जिन्नात दोज़ख का ईधन हुवा करते हैं और अब बे जान, बे आमाल पत्थरों पर दोज़ख का अज़ाब नाज़िल होगा। अल्लाह को भूखी दोज़ख का पेट नहीं भरना बल्कि मुहम्मद को कुरआन का पेट भरना है अपनी बकवासों से और इस से मंसूब ओलिमा, आएमा, मुबल्लिग धंधे बाजों को अपनी अय्याराना तकरीरों और तहरीरों से. भोले भाले मुस्लिम अवाम को काश हकीक़त का एहसास हो और वक्त आवाज़ सुनाई दे. 
*कुरआन में मुहम्मद ने कुछ मिसालें अपनी इल्मी या बेईल्मी सलाहियत का मुजाहेरा करते हुए गढ़ी हैं और तारीफ में अपनी पीठ भी ठोंकी है। हालां कि सब की सब बे जान और फुस फुसी हैं,चंद एक पेश हैं--- 
" हाँ! वाक़ई अल्लाह ताला तो नहीं शर्माते इस बात से कि बयान करें कोई मिसाल,ख्वाह वह मछ्छर की हो, ख्वाह इस से भी बढ़ी हुई हो. जो ईमान लाए हुए हैं ,ख्वाह कुछ भी हो यकीन कर लेंगे कि बे शक ये मिसालें बहुत मौके की हैं और रह गए जो लोग काफिर हो चुके हैं, कहते रहेंगे कि वह कौन सा मतलब होगा जिस का क़स्द किया होगा अल्लाह ने, इस हकीर मिसाल से गुमराह करते हैं. अल्लाह ताला इस मिसाल से बहुतों को और हिदायत देते हैं." 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा , आयत 2६ ) 
हवा का बुत अल्लाह दोज़ख का पेट पत्थरों से भर रहा है, ख़ुद साख्ता उम्मी मुहम्मद कुरआन का पेट इन मोह्मिल आयातों से भर रहे हैं, मुस्लमान हवाई बुत अपने अल्लाह का पेट इन बकवासी आयातों की इबादत से भर रहा है, आलिमाने दीन और मुतल्लिक़ीन दीन बराए ज़रीआ मआश अपना पेट इस्लाम से भर रहे है, नव जवानों ने जेहादी राह पकड़ी है, कमजोरों को इस्लाम ने खैराती रिज़्क़ बख्शा है। ये है इस्लामी निजाम का अंजाम. मुफक्किर को इस में जिंदा रहने की कोई राह नहीं. 
" अल्लाह फरिश्तों के सामने ये एलान करता है कि हम ज़मीन पर अपना एक नाएब इंसान की शक्ल में बनाएंगे। फ़रिश्ते इस पर एहतेजाज करते हैं कि तू ज़मीन पर फ़सादियों को पैदा करेगा जब कि हम लोग तेरी बंदगी के लिए काफी हैं। मगर अल्लाह नहीं मानता और एक बा इल्म आदम को बना कर, बे इल्म फरिश्तों की जबान बंद कर देता है। अल्लाह के हुक्म से तमाम फ़रिश्ते आदम के सामने सजदे में गिर जाते हैं, सिवाए इब्लीस के। इब्लीस मरदूद, माजूल और मातूब होता है। आदम और हव्वा जन्नत में अल्लाह की कुछ हिदायत के बाद आजाद रहने लगते हैं। हस्बे आदत अल्लाह बनी इस्राईल को काएल करता है की हमारी किताब कुरआन भी तुम्हारी ही किताबों की तरह है। इस के बाद क़यामत और आखरत की बातें करता है." 
(सूरह अलबकर २ पहला पारा ,आयत 30-43) 
आदम और हव्वा की तौरेती कहानी को कुछ रद्दो बदल करके मुहम्मद ने कुरआन में कई बार दोहराया है। मज़े की बात ये है कि हर बार बात कुछ बदल जाती है कहते हैं न कि " दरोग आमोज रा याद दाश्त नदारद." 
"क्या गज़ब है कहते हो और लोगों को नेक काम करने को (नेक काम करने से मुराद रसूल अल्लाह सल्लाह अलैहिःवसल्लम पर ईमान लाना) और अपनी ख़बर नहीं रखते, हालां कि तुम तिलावत करते हो किताब की, तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते।" 

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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