Thursday 7 May 2015

Soorah Bakr 2 (11-22)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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"और जब उनसे कहा जाता है कि ईमान लाओ उनकी तरह जो ईमान ला चुके हैं तो जवाब में कहते हैं कि क्या हम उनकी तरह बे वकूफ हैं ? याद रखो की यही बे वकूफ हैं जिस का इन को इल्म नहीं।" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 13) 
कुरआन के पसे मंज़र में ही रसूल कि असली तस्वीर छिपी हुई है. मुहम्मद अल्लाह के मुंह से कैसी कच्ची कच्ची बातें किया करते हैं, नतीजतन मक्का के लोग इस का मज़ाक बनाते हैं. इनको लोग तफरीहन खातिर में लाते हैं. ताकि माहौल में मशगला बना रहे. इनकी कयामती आयतें सुन सुन अक्सर लोग मज़े लेते हैं. और ईमान लाते हैं, उन पर और उन के जिब्रील अलैहिस्सलाम पर. महफ़िल उखड़ती है और एक ठहाके के साथ लोगों का ईमान भी उखड जाता है. इस तरह बे वकूफ बन जाने के बाद मुहम्मद कहते हैं यह लोग ख़ुद बेवकूफ हैं, जिसका इन को इल्म नहीं. इस्लाम पर ईमान लाने का मतलब है एक अनदेखे और पुर फरेब आक़बत से ख़ुद को जोड़ लेना. अपनी मौजूदा दुन्या को तबाह कर लेना. बगैर सोंचे समझे, जाने बूझे, परखे जोखे, किसी की बात में आकर अपनी और अपनी नस्लों कि ज़िन्दगी का तमाम प्रोग्राम उसके हवाले कर देना ही बे बेवकूफी है. ख़ुद मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी को कयाम कभी न दे सके, और न अपनी नस्लों का कल्याण कर सके, यहाँ तक कि अपनी उम्मत को कभी चैन की साँस न दिला पाए . 
"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह(अल्लाह) इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो चश्म (कान और आँख) को सलब (गायब) कर सकता है. वह ज़ात ऐसी है जिसने बनाया तुम्हारे लिए ज़मीन को फ़र्श और आसमान को छत और बरसाया आसमान से पानी, फिर उस पानी से पैदा किया फलों की गिजा" 
(सूरह अलबकर -२ पहला पारा अलम आयत 18-22) 
मुहम्मद गली सड़क, खेत खल्यान हर जगह सूरते क़ुरआनी की यह आयतें गाया करते. लोग दीवाने की बातों पर कोई तवज्जो न देते और अपना काम किया करते. आजिज़ आकर मुहम्मद कहते ---
"वह बहरे हैं, गूंगे हैं और अंधे हैं, सो अब ये ईमान लाने पर रुजू नहीं होंगे. मगर वह इन्हें घेरे में लिए हुए है. अगर वह चाहे तो उनके गोशो ---चश्म ----ऐसी बातें मुहम्मद कुरआन में बार बार दोहराते हैं, भूल जाते हैं कि कुरआन अल्लाह का कलाम है अगर वह बोलता तो यूँ कहता "मैं चाहूँ तो ------- 
मुसलमानों! 
यह कुरआन की शुरुआत है ,ऐसी बातों से ही कुरआन लबरेज़ है। कोई भी कारामद नुस्खा इसमें नहीं है, सिवाए बहलाने, फुसलाने और धमकाने के. इस्लाम मुहम्मद की एक साज़िश है अरबों के हक़ में और गैर अरबों के ख़िलाफ़ जिसको अंधी क़ौम मुसलमान कही जाने वाली ये आलमी बिरादरी जब भी समझ जाए सवेरा होगा.


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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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