Friday 21 August 2015

Soorah Nisa 4 Part 11 (144-153)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा  
किस्त 11

"मुनाफिक जब नमाज़ को खड़े होते हैं तो बहुत काहिली के साथ खड़े होते हैं, सिर्फ आदमियों को दिखाने के लिए और अल्लाह का ज़िक्र भी नहीं करते, मुअल्लक़(टंगे हुए) हैं दोनों के दरमियाँ। न इधर के, न उधर के. जिन को अल्लाह गुमराही में डाल दे, ऐसे शख्स के लिए कोई सबील(उपाय) न पाओ गे।"
सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (144)
मुजरिम तो मुहम्मदी अल्लाह हुवा जो नमाजियों को गुमराह किए हुए है और ना हक़ ही बन्दों के सर इल्जाम रखा जा रहा है कि मुनाफ़िक़ और काहिल हैं।

"जो लोग कुफ्र करते हैं अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ वोह चाहते हैं फर्क रखें अल्लाह और उसके रसूल के दरम्यान, और कहते हैं हम बअजों पर तो ईमान लाते हैं और बअजों के मुनकिर हैं और चाहते हैं बैन बैन(अलग-अलग) राह तजवीज़ करें, ऐसे लोग यकीनन काफिर हैं।"
सूरह निसाँअ छटवां पारा- (युहिब्बुल्लाह) आयात (151)
जनाब! 
नमाज़ एक ऐसी बला है जिसमें नियत बांधते ही जेहन मुअल्लक़ हो जाता है, अल्लाह का नाम लेकर दुन्या दारी में. इसकी गवाही एक ईमानदार मुसलमान दे सकता है. खुद मुहम्मद को तमाम कुरानी और हदीसी खुराफात नमाजों में ही सूझती थीं मदीने में अक्सरीयत जनता मुहम्मद को अन्दर से उस वक्त तक पसंद नहीं करती थी मगर चूँकि चारो तरफ इस्लामी हुकूमतें कायम हो चुकी थी और मदीने पर भी, इस लिए मर्कज़ियत (केंद्र)तो उनको हासिल ही थी. फिर भी थे नापसंदीदा ही. 
कैसे बे शर्मी के साथ अल्लाह की तरह खुद को मनवा रहे हैं. आज उनका तरीका ही उनके चमचे आलिमान दीन अपनाए हुए हैं. मुसलमानों! बेदारी लाओ।
नूह, मूसा, ईसा जैसे मशहूर नबियों के सफ में शामिल करने के लिए मुहम्मद एहतेजाज (विरोध) करते हैं कि लोग उनको भी उनकी ही तरह क्यूँ तस्लीम नहीं करते. वोह उनको काफिर कहते हैं और उनका अल्लाह भी. मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी में ही सोलह आना अपनी मनमानी देखना चाहते हैं जो कि उमूमन ढोंगियों के मरने के बाद होता है. इन्हें कतई गवारा नहीं की कोई इनकी राय में दख्ल अंदाज़ करे जो उनकी रसालत पर असर अंदाज़ हो. लोगों को अपनी इन्फ्रादियत (व्यक्तिगतत्व) भी अज़ीज़ होती है, इसलाम में निफ़ाक़ (विरोध) की खास वजह यही है। यह सिलसिला मुहम्मद के ज़माने से शुरू हुवा तो आज तक जरी है। इसी तरह उस वक़्त अल्लाह की हस्ती को तस्लीम करते हुए, मुहम्मद की ज़ात को एक मुक़ररर हद में रहने की बात पर हजरत बिफर जाते हैं और बमुश्किल तमाम बने हुए मुसलमानों को काफिर कहने लगते हैं।

" आप से अहले किताब यह दरख्वास्त करते हैं कि आप उनके पास एक खास नविश्ता (लिखी हुई) किताब आसमान से मंगा दें, सो उन्हों ने मूसा से इस से भी बड़ी दरख्वास्त की थी और कहा था कि हम को अल्लाह ताला को खुल्लम खुल्ला दिखला दो। उनकी गुस्ताखी के सबब उन पर कड़क बिजली आ पड़ी। फिर उन्हों ने गोशाला तजवीज़ किया था, इस के बाद बहुत से दलायल उनके पास पहुँच चुके थे.फिर हम ने उसे दर गुज़र कर दिया था, और मूसा को हम ने बहुत बड़ा रोब दिया था."
सूरह निसाँअ छटवां पारा- आयात (153)
देखिए कि लोगो की जायज़ मांग पर अल्लाह के झूठे रसूल कैसे कैसे रंग बदलते हैं, जवाज़ में कहीं पर कोई मर्दानगी नज़र आती है? कोई ईमान दिखाई पड़ता है, आप को कहीं कोईसदाक़त की झलक नज़र आती है? उनकी इन्हीं अदाओं पर यह इस्लामी हिजड़े गाया करते हैं 
"मुस्तफा जाने आलम पे लाखों सलाम"


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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