Monday, 10 August 2015

Soorah Nisa 4 Part 8 (91-95)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा  
किस्त 8
  
क़ुरआन कहता है - - - 
" बाजे ऐसे भी तुम को ज़रूर मिलेगे जो चाहते हैं तुम से भी बे ख़तर होकर रहें और अपने क़ौम से भी बे ख़तर होकर रहें. जब इन को कभी शरारत की तरफ मुतवज्जो किया जाता है तो इस में गिर जात्ते हैं यह लोग अगर तुम से कनारा कश न हों और न तुम से सलामत रवी रखें और न अपने हाथ को रोकें तो ऐसे लोगों को पकडो और क़त्ल कर दो जहाँ पाओ " 
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (91) 
मुहम्मद ये उन लोगों को क़त्ल कर देने का हुक्म दे रहे हैं जो आज सैकुलर जाने जाते हैं और मुसलमानों के लिए पनाहे अमां बने हुए हैं। आज़ादी के पहले यह भी मुसलमानों के लिए काफ़िर ओ मुशरिक जैसे ही थे, मगर इब्नुल वक़्त ओलिमा आज इनकी तारीफ़ में लगे हुए हैं। वैसे भी नज़रियात बदल जाते हैं, मज़हब बदल जाते हैं मगर खून के रिश्ते कभी नहीं बदलते. मुहम्मदी इसलाम इन्सान से गैर फितरी काम कराता है, इसी लिए बिल आखिर रुसवे ज़माना है। 
मैं एक बार फिर आप की तवज्जो को होश में लाना चाहता हूँ कि इस कायनात का निगरान, वोह अज़ीम हस्ती अगर कोई है भी तो क्या उसकी बातें ऐसी टुच्ची किस्म की हो सकती हैं जो क़ुरआन कहता है. किसी बस्ती के ना इंसाफ मुख्या की तरह, या कभी किसी कस्बे के बे ईमान बनिए जैसा. कभी गाँव के लाल बुझक्कड़ की तरह. अल्लाह भी कहीं ज़नानो की तरह बैठ कर पुत्राओ-भत्राओ करता है? कुन फ़यकून की ताक़त रखता है तो पंचायती बातें क्यूँ? आखिर मुसलमानों को समझ क्यों नहीं आती, उस से पहले उसे हिम्मत क्यों नहीं आती? 

" और किसी मोमिन को शान नहीं की किसी मोमिन को क़त्ल करे और किसी मोमिन को गलती से क़त्ल कर दे तो उसके ऊपर एक मुस्लमान गुलाम या लौंडी को आज़ाद करना है और खून बहा है, जो उसके खानदान के हवाले से दीजिए, मगर ये की वोह लोग मुआफ कर दें।" 
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (92) 
"और जो किसी मुस्लमान का क़सदन क़त्ल कर डाले तो इस की सजा जहन्नम है जो हमेशा हमेशा को इस में रहना।" 
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा आयात (93) 
बड़ी ताकीद है कि मोमिन मोमिन को क़त्ल न करे, इस्लामी तारीख जंगों से भारी पड़ी हैं और ज़्यादा तर जंगें आपस में मुसलमनो की इस्लामी मुल्को और हुक्मरानों के दरमियाँ होती हैं। आज ईरान, ईराक, अफगानिस्तान, और पाकिस्तान में खाना जंगी मुसमानों की मुसलमानों के साथ होती है। बेनजीर और मुजीबुर रहमान जैसा सिलसिला रुकने का नहीं, मज़े की बात कि इनको मारने वाले शहीद और जन्नत रसीदा होते हैं, मरने वाले चाहे भले न होते हों। मुस्लमान आपस में एक दूसरे से हमदर्दी रखते हों या नहीं मगर इस जज्बे का नाजायज़ फायदा उठा कर एक दूसरे को चूना ज़रूर लगते हैं । 

" अल्लाह ताला ने इन लोगों का दर्जा बहुत ज़्यादा बनाया है जो अपने मालों और जानों से जेहाद करते हैं, बनिसबत घर में बैठने वालों के, बड़ा उजरे अज़ीम दिया है, यानी बहुत से दर्जे जो अल्लाह ताला की तरफ़ से मिलेंगे।" 
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (95) 

मुहम्मद ने जेहाद का आगाज़ भर सोचा था, अंजाम नहीं, अंजाम तक पहुँचने के लिए उनके पास ईसा और गौतम जैसा जेहन ही नहीं था न ही होने वाले रिश्ते दार नौ शेरवाने आदिल का दिल था. उन्होंने अपनी विरासत में क़ुरआन की ज़हरीली आयतें छोडीं, तेज़ तर तलवार और माले गनीमत के धनी खुलफा, उमरा, सुलतान, और खुदा वंद बादशाह, साथ साथ जेहनी गुलाम जाहिल उम्मत की भीड़। 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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