मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अनआम ६
(दसवीं किस्त)
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सूरह अनआम ६
(दसवीं किस्त)
संत हसन बसरी का क़िस्सा मशहूर है कि वह जुनूनी कैफ़ियत में, अपने एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी लेकर भागे चले जा रहे थे. लोगों ने उन्हें रोका और माजरा दर्याफ़्त किया, वह बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख में पानी डालकर बुझा देने के लिए और उस जन्नत में आग लगा देने के लिए जिनके डर और लालच से लोग नमाज़ें पढ़ते हैं.
तबाईन (मुहम्माद कालीन की अगली नस्ल) का दौर था जिसमे उस हस्ती ने ये एलान किया था. कुरआन की गुमराह कुन दौर था, हसन बसरी के नाम का वारंट निकल गया था, सरकारी अमला उनकी गिरफ़्तारी में सर गर्म था, उनके खैर खावाह उनको छिपाते फिरते.
इस्लामी पैगाम के बाद आम और खास मुसलमान दोज़ख और जन्नत के ताल्लुक से ही नमाज़ पढता है, जिसको हसन जैसे हक शिनाश अज़ सरे नव ख़ारिज करते थे. ऐसे लोगों की ये जिसारत देख कर उनकी गर्दनें मार देने के एहकाम जारी हुए,
मंसूर, तबरेज़, सरमद और कबीर इसकी मिसाल हैं.
इक्कीसवीं सदी में रहने वाले मुसलमानों को सातवीं सदी के क़ुरआनी पैगाम मुलहिज़ा हो - - -
'' ऐ जमाअत जिन्नात और इंसानों की !
क्या तुम्हारे पास तुम ही में से पैगम्बर नहीं आए थे ? जो तुम को मेरे एह्काम बयान किया करते थे और तुम को इस आज के दिन की खबर दिया करते थे ?
वह सब अर्ज़ करेंगे क़ि हम अपने ऊपर इकरार करते है और लोगों को दुनयावी ज़िन्दगी ने भूल में डाल रखा है
और यह लोग मुकिर होंगे क़ि वह लोग काफ़िर हैं
''सूरह अनआम आठवाँ पारा (आयत १३१)
मुहम्मद की कल्पित क़यामत का एक सीन ये आयत है जन्नत में दाखिल होने वाली इंसानी टोली जहन्नम रसीदे जिन्नातों और इंसानों की टोलियों से पूछेगी क़ि ऐ लोगो !
क्या तुम्हारे पास मुहम्मद नाम के पैगम्बर नहीं आए थे जो अल्लाह की राहें बतला रहे थे - - -
मुहम्मद के इन्तेहाई दर्जा मक्र की ये आयतें थीं क़ि जिसको बज़ोर तलवार मजबूरों को मनवाया गया और इन मजबूरों की नस्लें जब इस में पलती रहीं तो आज वह मक्र का पुतला सललललाहे अलैहे वसल्लम बन गया.
''तुम पर हराम किए गए हैं मुरदार, खून और खंजीर का गोश्त और जो गैर अल्लाह के नाम से ज़द कर दिया गया हो, जो गला घुटने से मर जावे, जो किसी ज़र्ब से मर जावे, या गिर कर मर जावे, जिसको कोई दरिंदा खाने लगे, लेकिन जिसको ज़बह कर डालो - - -.
''सूरह अनआम आठवाँ पारा (आयत १४६)
और हलाल किया जाता है माले ग़नीमत जो लूट मार और शबखून के ज़रिए हासिल किया गया हो, जिसमें बे कुसूर लोगों को क़त्ल कर गिया गया हो, औरतों को लौंडियाँ बना कर आपस में बाँट लिया गया हो, बच्चों और बूढों को इनके हल पर छोड़ दिया गे हो.
''सो इस शख्स से ज्यादह ज़ालिम कौन होगा जो हमारी इन आयतों को झूठा बतलाए और इस से रोके.
हम अभी इन लोगों को जो कि इन से रोकते हैं, इनको रोकने के सबब सख्त सजा देंगे.
यह लोग सिर्फ इस अम्र के मुन्तजिर है कि इन के पास फ़रिश्ते आवें या इन के पास इन का रब आवे या आप के रब कि कोई निशानी आवे.
जिस रोज़ आप के रब कि बड़ी निशानी आ पहुंचेगी, किसी ऐसे शख्स का ईमान इस के काम न आएगा, जो पहले स ईमान नहीं रखता या अपने आमाल में उसने कोई नेक अमल न किया हो.
आप फरमा दीजिए कि तुम मुन्तजिर रहो और हम भी मुन्तजिर हैं.''
मुहम्मद के मज़ालिम की दास्तानें हैं जो आगे आप सिलसिलेवार देखते रहेंगे. ऐसे ज़ालिम इन्सान की बात देखिए कि कहता है
''इस से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो इसकी चाल घात और मक्र की बात को न माने. इसकी बात मानने से लोगों को रोके,''
यह मुहम्मद का बनाया हुआ सांचा आज तक ज़ालिम मुसलामानों के काम आ रहा है.
यह तालिबानी क्या हैं ?
चौदह सौ साल पुराना मुहम्मदी साँचा ही तो उनके काम आ रहा है. यह आप को समझाएं बुझाएँगे, डराएँगे और बाद में सबक सिख्लएंगे.
मुसलामानों अल्लाह अगर है तो ऐसा घटिया हो ही नहीं सकता क्या आप ऐसे अल्लाह की इबादत करते हैं? इस पर तो लानत भेजा करिए।
नोट :-- आयतों में लम्बे लम्बे फासले देखे जा सकते हैं जिनको कि मानी, मतलब और तबसरे के शुमार में नहीं लिया गया है क्यों कि यह इस लायक भी नहीं इन का ज़िक्र या इन पर तबसरा किया जाए। इन पर कलम उठाना भी कलम की पामाली है. इस क़दर बकवास है कि आप पढ़ कर बेज़ार हो जाएँ. अफ़सोस सद अफ़सोस कि कौम इस ख़ुराफ़ात को सरों पर उठाए घूमती है.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
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