Monday 12 October 2015

Soorah Anam 6 Part 6 (४७-६८)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह अनआम ६- 
(छटवीं किस्त) 

अल्लाह के मुँह से कहलाई गई मुहम्मद की बातें कुरआन जानी जाती हैं और मुहम्मद के कौल और कथन हदीसें कहलाती हैं. 
मुहम्मद की ज़िन्दगी में ही हदीसें इतनी हो गई थीं कि उनको मुसलसल बोलते रहने के लिए हुज़ूर को सैकड़ों सालों की ज़िन्दगी चाहिए थी, गरज उनकी मौत के बाद हदीसों पर पाबन्दी लगा दी गई थी, उनके हवाले से बात करने वालों की खातिर कोड़ों से होती थी. 
दो सौ साल बाद बुखारा में एक मूर्ति पूजक यहूदियत से मुतासिर बुड्ढा 

''शरीफ मुहम्मद इब्ने इब्राहीम मुगीरा जअफ़ी बुखारी'' 
जो कि उर्फे आम में इमाम बुखारी के नाम से इस्लामी दुन्या में जाना जाता है, अग्नि पूजक का पोता हुवा. उसने मुहम्मद की तमाम ख़सलतें, झूट, मक्र, ज़ुल्म, ना इंसाफी, बे ईमानी और अय्याशियाँ खोल खोल कर बयान कीं हैं. 
इमाम बुखारी ने किया है बहुत अज़ीम काम जिसे इस्लाम के ज़ुल्म के खिलाफ ''इंतकाम-ऐ-जारिया'' कहा जा सकता है. अंधे, बहरे और गूंगे मुसलमान उसकी हिकमत-ए-अमली को नहीं समझ पाएँगे, वह तो ख़त्म कुरआन की तर्ज़ पर ख़त्म बुखारी शरीफ के कोर्स बच्चों को करा के इंसानी जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहे हैं, 
इस्लामी कुत्ते, ओलिमा. लिखते हैं कि इमाम बुखारी ने छ लाख हदीसों पर शोध किया और तीन लाख हदीसें कंठस्त कीं, इतना ही नहीं तीन तहज्जुद की रातों में एक कुरआन ख़त्म कर लिया करते थे और इफ्तार से पहले एक कुरआन. हर हदीस लिखने से पहले दो रेकत नमाज़ पढ़ते. 
 सिर्फ साठ साल की उम्र में , तीन लाख सही हदीसों के दावेदार लिखने पर आए तो सिर्फ ७ ००० हदीसें लिखीं. दोहराई गई हदीसों को अगर हटा दें तो सिर्फ २००० बचेंगी .
बुखारी१७० (सही मुस्लिम - - - किताबुल क़सामत)
बुखारी लिखता है मुहम्मद के पास कुछ देहाती आए और पेट की बीमारी की शिकायत की. हुक्म हुआ कि इनको हमारे के ऊंटों के बाड़े में छोड़ दो, वहां यह ऊंटों का दूध और मूत पीकर ठीक हो जाएँगे.(गौर करें कि बुखारी मुहम्मदी हुक्म से पेशाब पीना जायज़ करार देने का इशारा किया है) कुछ दिनों बाद देहाती बाड़े के रखवाले को क़त्ल करके ऊंटों को लेकर फरार हो गए जिनको कि इस्लामी सिपाहियों ने जा घेरा. उनको सज़ा मुहम्मद ने इस तरह दी कि सब से पहले उनके बाजू कटवाए, फिर टागें कटवाई, उसके बाद आँखों में गर्म शीशा पिलवाया बाद में गारे हरा में फिकवा दिया जहाँ प्यास की शिद्दत लिए वह तड़प तड़प कर मर गए.

तो इस क़दर ज़ालिम थे मुहम्मद.

*अब देखिए मुहम्मद कि मक्र कुरआन के सफ़हात में - - -
कहते हैं की गेहूं के साथ घुन भी पिस्ता है मुसीबते और बीमारियाँ नेको बद को देख कर नहीं आतीं. मगर अक्ल का दुश्मन मुहम्मदी अल्लाह ज़रा देखिए तो मुहम्मद से क्या कहता है- - -
''आप कहिए कि यह बतलाओ अगर तुम पर अल्लाह का अज़ाब आन पड़े, ख्वाह बे खबरी में ख्वाह खबरदारी में तो क्या बजुज़ ज़ालिम लोगों के और कोई हलाक किया जाएगा?''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (४७)
एक रत्ती भर अक्ल रखने वाले के लिए कुरआन की यह आयत ही काफ़ी है कि वह मुहम्मद को परले दर्जे का बे वकूफ आँख बंद कर के कह दे और इस्लाम से बाहर निकल आए मगर ये हरामी आलिमान दीन अपने अल्कायदी गुंडों के साथ उनकी गर्दनों पर सवार जो हैं. इस से ज्यादह मज़हकः खेज़ बात और क्या हो सकती है कि जब कोई कुदरती आफत ज़लज़ला या तूफ़ान आए तो इस में काफ़िर ही तबाह हों और मुसलमान बच जाएं.
''आप कहिए कि न मैं यह कहता हूँ कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं और न मैं तमाम गैबों को जनता हूँ और न तुम से यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ. मैं तो सिर्फ मेरे पास जो वही आती है उसकी पैरवी करता हूँ. आप कहिए कि कहीं अँधा और आखों वाला बराबर हो सकता है? सो क्या तुम गौर नहीं करते?''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (५०)
यहाँ मुहम्मद ने खुद को आँखों वाला और दीगरों को अँधा साबित किया है, साथ साथ यह भी बतलाया है कि वह भविष्य की बातों को नहीं जानते. उनकी सैकड़ों ऐसी हदीसें हैं जो इस के बार अक्स हैं और पेशीन गोइयाँ करती है. विरोधा भास कुरआन और मुहम्मद की तकदीर बना हुवा है.
''और जब तू इन लोगों को देखे जो हमारी आयातों में ऐब जोई कर रहे हैं तो इन लोगों से कनारा कश हो जा, यहाँ तक कि वह किसी और बात में लग जाएं और अगर तुझे शैतान भुला दे तो याद आने के बाद ऐसे ज़ालिम लोगों में मत बैठ.''
सूरह अनआम ७वां पारा आयत (६८)
मुहम्मद ने मुसलामानों पर किस ज़ोर की लगाम लगाईं है कि उनकी इस्लाह माहौल के ज़रिए करना भी बहुत मुश्किल है.उनको माहौल बदल नहीं सकता. मुल्ला जैसे कट्टर मुसलमान जब आधुनिकता कीबातों वाली महफ़िल में होते हैं तो वैज्ञानिक सच्चाइयों का ज़िक्र सुन कर बेजार होते हैं और दिल ही दिल में तौबा कर के महफ़िल से उठ जाते हैं.

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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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