मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा
The Light२४
(तीसरी किस्त)
चलिए देखें कि अल्लाह जीने के आदाब सिखलाता है - - -''जहाँ तक हो सके बे निकाहों का निकाह पढ़ा दिया करो और इसी तरह तुम्हारे गुलाम और लौंडियो में. जो माली तौर पर निकाह की हैसियत नहीं रखते, वह अपनी नफ़स पर काबू रक्खें. गुलामों में जो मकातिब (मालिक की शर्त पर गुलाम मुक़रर्रह वक्क्त पर कोई काम करके दिखा दे तो वह मकातिब हो जाता है) होने के ख्वाहाँ हों उनको तआवुन करो "सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३२)पैगम्बर का साफ़ साफ़ पैग़ाम है कि ग़रीब लौड़ी और ग़ुलाम अपने नफ्स पर जब्र करके अज्वाज़ी ज़िन्दगी से महरूम रहें, ये पैगम्बरी नहीं, इंसानियत सोज़ी है. लौंडी और ग़ुलाम कोई मुजरिम नहीं होते थे यह जेहादी गुंडा गर्दी के शिकार कैदी हुवा करते थे.
यह पुराने ज़माने की अख्लाकी फ़रायज़ आज लागू नहीं होते तो इसे आज क्यूँ तिलावत में दोहराया जाय. वैसे अल्लाह का कलाम ऐसा होना चाहिए जो कभी पुराना ही न पड़े. पेड़ों का खड़खड़ाना, चिडयों का चहचहाना, बादलों का गरजना, हवा की सर सर ही अल्लाह के कलाम हैं. कोई इंसानी भाषा अल्लाह का कलाम नहीं हो सकती.
ऐ गुलामाने-रसूल! मकतिब करने का वह ज़माना लद गया, तुम भी मुहम्मद की गुलामी से नजात पाओ. हवा का बुत क़ायम किया था और नाम दिया था वहदानियत. मुहम्मद ने. मुस्लिम, काफ़िर और मुशरिक का साजिशी जाल बुना, फिर उस जाल का शिकार ऐसा कारगर साबित हुवा कि इंसानी आबादी का बीसवाँ हिस्सा उसमें फँसा, तो निकलना ना मुमकिन हो गया, फडफडा रहा है, इस जाल से मकातिबत की कोई सूरत उसके लिए नहीं बन पा रही है, पूरा का पूरा माफ़िया आलमी पैमाने पर मुसलामानों पर नज़र रखता है, कि वह इस्लामी गुलाम बने रहें ताकि हराम खोरों का राज क़ायम रहे.
मुसलमानों! आपको मकातिब तो होना ही है. पैगामारी वह है जो गुलामी से इंसानों को मुकम्मल आज़ाद करे. पैगम्बर भी कहीं लौंडी और गुलाम रखता है.
"अपनी लौंडियो को ज़िना करने पर मजबूर मत करो, खास कर अगर वह पाक बाज़ है, महेज़ इस लिए कि कुछ मॉल तुम को मिल जाय. इसके बाद जो मजबूर करेगा तो अल्लाह तअला उसे मुआफ करने वाला है और मेहरबान है. हमने तुम्हारे लिए खुले खुले अहकाम भेजे हैं."सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३३)यह अल्लाह के रसूल हैं जो अपने अल्लाह की दी हुई रिआयत का एलान करते है कि मुसलमान अगर भडुवा गीरी भी करे तो वह मुहम्मदी अल्लाह उसे मुआफ करने वाला है. कौम के लिए कितना शर्मनाक ये पैगाम है. नतीजतन इस ज़लील पेशे में भडुआ बने हुए अक्सर मुसलमानों को पेट भरते देखने को मिलेगे. पाकबाज़ औरत को लौंडी बनाना ही नापाकी है. उसके बाद उस से पेशा कराना भी अल्लाह को गवारा है. लअनत है.
एक शरई पेंच देखिए कि एक तरफ इसी सूरह में ज़ानियों को सौ सौ कोड़े रसीद करने का कानून अल्लाह नाज़िल करता है और इसी सूरह में लौंडियों से ज़िना कारी कराने की छूट देता है. गौर तलब ये है कि ज़िना यक तरफ़ा तो होता नहीं, इस लिए मुसलमानों को ज़िना करने की रिआयत भी देता है और सजा भी. ये कुरान का तज़ाद (विरोधाभास् ) है.
मुसलामानों ! क्या तुम्हारा ज़मीर बिलकुल ही मुर्दा हो चुका है और अकलों पर पला पद गया है ? इन आयतों को आग लगादो, इस से पहले कि दूसरे इस काम की शुरुआत करें.
"अल्लाह तअला नूर देने वाला है. आसमानों का और ज़मीन का. इसके नूर की हालाते-अजीबिया ऐसी है जो एक ताक है, इसमें एक चिराग है, ये चिराग एक कंदील में है और वह कंदील ऐसी है जैसे एक चमकता हुआ सितारा हो.चिराग एक निहायत मुफीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह जैतून है जो न पूरब रुख है न पच्छिम रुख है. इसका तेल ऐसा है कि अगर आग भी न छुए, ताहम ऐसा मालूम होता है कि खुद बखुद जल उठेगा. नूर अला नूर है और अल्लाह तअला अपने तक जिसको चाहता है राह दे देता है. अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयां फरमाता है"सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (३५)खुद साख्ता पैगम्बर मुहम्मद की ये अफसाना निगारी का एक नमूना है, पहले भी उनकी तख़लीक़ आप देख चुके हैं, उनकी मिसालों को भी देखा है, सब बेसिर पैर की बातें होती हैं. मुसलमान कहाँ तक एक उम्मी की पैरवी करते रहेंगे. जिसे बात करने की तमीज़ न हो वह अल्लाह की तस्वीर खींच रहा है. लिखते हैं ".चिराग एक निहायत मुफीद दरख़्त से रौशन किया गया है कि वह जैतून है" चराग जैतून के दरख़्त से रौशन कर रहे हैं? ओलिमा मुहम्मद की बैसाखी बन कर लिखते है (गोया जैतून का तेल) कहते हैं "जो न पूरब रुख है न पच्छिम रुख है" तो उत्तर या दक्खन रुख होगा. किसी रुख तो होगा ही, इसका गैर ज़रूरी तज़करह क्या मअनी रखता है? तेल की तारीफ में अल्लाह की तारीफ भूल जाते हैं, तेल नूर अला नूर है. अल्लाह का नूर तो उनसे बयान भी न हो पाया. "अल्लाह तअला लोगों की हिदायत के लिए ये मिसालें बयान फरमाता है" यह है मुहम्मद की मिसाल का चैलेन्ज जिसको मुसलमान दावे के साथ कहते है कि कुरआन की एक लाइन भी बनाना बन्दों के बस का नहीं. अगर उनके अल्लाह की यही लाइनें हैं तो शायद वह ठीक ही कहते होंगे. कौन अहमक ऐसे अल्लाह के मुकाबिले में आएगा.
"और वह लोग बड़ा जोर लगा कर क़समें खाया करते हैं कि वल्लाह अगर आप उनको हुक्म दें तो वह अभी निकल खड़े हों, कह दो कि बस क़समें न खाओ, फ़रमाँ बरदारी मालूम है. अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी खबर रखता है. आप कहिए कि अल्लाह की इताअत करो और रसूल की इताअत करो, फिर अगर रूगरदनी करोगे तो समझ रखो कि रसूल के जिम्मे वही है जिसका इन पर बार रखा गया है और तुमने अगर इनकी इताअत करली तो राह पर जा लगोगे और रसूल की ज़िम्मेदारी साफ़ तौर पर पहुंचा देना है.'सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (५३-५४)मुहम्मद अपने जाल में फँसे हुए किसी मुसलमान पर इशारतन तनकीद कर रहे हैं जो कि उनका हर उल्टा सीधा कहना नहीं मानता, धमका रहे हैं कि "अल्लाह तुम्हारे ईमान की पूरी खबर रखता है" गोया अल्लाह निजाम कायनात को कुछ दिन के लिए मुल्तवी करके मुहम्मद की मुखबरी कर राह है. या यह कहा जाए कि अल्लाह की आड़ में खुद मुहम्मद अल्लाह बने हुए हर एक अपने बन्दों की खबर रखते हैं. ना फ़रमाँ बरदारी करने वाले को छुपी हुई धमकी भी साथ साथ दे रहे हैं कि उनकी तरफ़ से अल्लाह की मर्ज़ी काम करेगी. हर हाल में अपनी इताअत इनकी खू थी.
"बड़ी बूढी औरतें जिनको निकाह की कोई उम्मीद न रह गई हो, उनको कोई गुनाह नहीं कि वह अपने कपडे उतार रखें.बशर्ते ये कि ज़ीनत का इज़हार न करे और इससे भी एहतियात रखें तो उनके लिए और ज़ियादः बेहतर है.सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६०)मुहम्मद बद किसमत थे कि उनकी बड़ी बूढी कोई नहीं थी वर्ना ऐसी बेहूदा राय औरतों को न देते.
''तुम लोग रसूल के बुलाने को ऐसा न समझो जैसे तुम में एक दूसरे को बुला लेता है. अल्लाह उन लोगों को जनता है जो आड़ में होकर तुम में से खिसक जाते हैं, सो जो लोग अल्लाह के हुक्म की मुखालफ़त करते हैं उनको इस से डरना चाहिए कि उन पर कोई आफ़त आ पड़े या उन पर कोई दर्दनाक अज़ाब नाज़िल हो जाय."सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६३)मुहम्मदी अल्लाह की हकीकत को उस वक़्त सभी जानते थे और उनकी बातों को सुन कर इधर उधर हो जाया करते थे। वह मुस्लमान तो मजबूरन बने हुए थे कि मुहम्मद के पास हराम खोर लुटेरों की फ़ौज थी जो, आज भी अपने समाज में जो बहुबल होते हैं. कानून उनका, और कहीं कोई अदालत नहीं. बरसों इस्लामी हथौड़ों से पिटने के बाद आज उन बा ज़मीरों की नस्लों ने मुहम्मद की हठ धर्मी को धर्म मान लिया गया है.
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बहुत बेहतर प्रस्तुति...
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