Tuesday, 7 September 2010

क़ुरआन - सूरह नूर २४-१८वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
सूरह नूर २४-१८वाँ पारा

हुक्म है कि हर काम अल्लाह नाम से शुरू किया जाय यानी "बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम" पढने के बाद। किसी जानदार को हलाल करो तब भी पहले मुँह से निकले बिस्मिल्लाह - - - खुद कुरान पाठ में भी इस बात का एहतेमाम है। मगर कारी पहले पढता है "आऊजो बिल्लाहे-मिनस-शैतानुर्रजीम" जिसका मतलब है "अल्लाह की पनाह चाहता हूँ उस मातूब (प्रकोपित) किए गए शैतान से" यहाँ पर शैतान ने अल्लाह मियाँ को भी गच्चा दे दिया कि क़ुरआन पाठ से पहले उसका नाम लेना पड़ता है, यानी उसकी हैबत से डर के, बाद में अल्लाह मियाँ का मम्बर आता है. ये है मुहम्मद की अकले-कोताह का नमूना. ऐसी बहुत सी गलतियाँ अल्लाह के कलाम में हैं जो बदली नहीं जा सकतीं. इसी तरह इस्लामी नअरा है "नअरे तकबीर-अल्लाह हुअकबर" यानी तकब्बुर (घमंड) का नारा, अल्लाह बड़ा है. सवाल उठता है अल्लाह बड़ा है तो छोटा कौन है? बड़ा कहने का इशारा होता है कि इससे छोटा भी कोई है? यहाँ पर भी अल्लाह के मुकाबिले में छोटा अल्लाह यानी शैतान खड़ा हुवा है. दोनों की खस्लतें भी एक जैसी हैं. दोनों हर जगह मौजूद हैं. दोनों इंसान के हर अमल में दख्ल रखते हैं. क़ुरआन बार बार कहता है "अल्लाह जिसको गुमराह करता है उसको राहे-रास्त पर कोई नहीं ला सकता." शैतान भी लोगों को गुमराह करता है. मुसलमानों! शैतान को कहो" अल्लाह-हुअसगर" यानी छोटे अल्लाह मियाँ.

"जो लोग अपनी बीवियों पर तोहमत लगाएँ और उनके पास बजुज़ अपने और कोई गवाह ना हो, तो उनकी शहादत यही है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खा कर ये कह दें कि बे शक मैं सच्चा हूँ और पाँचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की लअनत है, अगर मैं झूठा हूँ और इसके बाद उस औरत से सज़ा यूँ टल सकती है कि चार बार क़सम खा कर कहे कि ये मर्द झूठा है और पांचवीं बार ये कहे कि मुझ पर अल्लाह की गज़ब हो, अगर ये मर्द सच्चा हो."
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (६-९)
अक्ल का पैदल अल्लाह और उसके क़ानून कितने नामुकम्मल हैं, मियाँ और बीवी में ज़ाहिर है कि इनमे कोई एक झूट बोल रहा होगा, तो क्या कर लोगे उसका ? या अगर दोनों मियाँ बीवी झूट बोल रहे हों तो? किसको सजा होगी, इसके सिवा कि झूठे को अल्लाह दोज़ख में डालेगा। जब गुनाहगारों को ऊपर की सज़ा तय है तो तुम नीचे ज़मीन पर न मुकम्मल और जेहालत से भरी हुई सज़ा को क्यूं रवा रक्खे हो। जब तुम्हारे पास कानून बनाने की अक्ल नहीं है तो कानून साज़ी का मजाक क्यूँ बना रहे हो? मुसलमानों अगर तुमने लाल बुझककड़ का नाम सुना हो तो तुम्हारा पैगमबर लाल बुझककड़ था। उसको खैर बाद कहकर मोमिन की रह अपनाओ।  
"जिन लोगों ने ( आयशा के निस्बत) तूफ़ान बरपा किया है वह तुम्हारे में का गिरोह है, तुम इसको अपने हक में बुरा ना समझो बल्कि ये तुम्हारे हक में बेहतर ही बेहतर है. इस में से हर शख्स को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा और इनमें, इस तूफ़ान में जिसने सब से बड़ा हिस्सा लिया, उसको सज़ा होगी. जब तुमने ये बात सुनी थी तो अपने आपस वालों के साथ गुमान नेक क्यूँ ना किया, और ये क्यूँ ना कहा ये सरीह झूट है. यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ ना लाए. सो इस सूरत में ये लोग गवाह ना लाए तो बस अल्लाह के नज़दीक ये लोग झूठे हैं. और तुम ने ये बात जब सुना था तो ये क्यूं ना कहा कि ये बात हम को ज़ेबा नहीं देता है कि ऐसी बात को मुँह से निकालें. ये तो बड़ा बोहतान है, अल्लाह तअला तुमको नसीहत देता है कि ऐसी हरकत दुबारा ना करना, अगर तुम ईमान वाले हो. जो लोग चाहते हैं कि बाद नुजूल इन आयात के मुसलामानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आखरत में बड़ी सज़ा है".
सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (११-१९)
मुहम्मद एक तरफ कहते हैं " तुम इसको अपने हक में बुरा ना समझो बल्कि ये तुम्हारे हक में बेहतर ही बेहतर है।" साथ साथ कहते हैं " इस में से हर शख्स को जितना किसी ने कुछ किया था, गुनाह हुवा " तर्जुमा निगार ने यहाँ पच्चड लगा कर उम्मी मुहम्मद की मदद की है. यह वक़ेआ मुसलामानों के हक में बेहतर कैसे रहा? ये तो अल्लाह ही बेहतर समझे, मगर इसके लिए वह मुहम्मद को जवाब तलब क्यूँ नहीं करता जो आयशा से एक महीने तक बद दिल रहे. अल्लाह अपने आप को क्यूँ मुजरिम नहीं गर्दानता कि वह्यी भेजने में एक महीने की देर कर दी. गरीब आयशा इतने दिनों ज़िल्लत उठाती रही और बदनामी की ताब न ला कर बीमार हो गई? आयशा के साथ हादसे के एक महीने बाद अल्लाह का क़ानून आया चार गवाही का और मुहम्मद फरमा रहे हैं कि "यह लोग इस पर चार गवाह क्यूँ ना लाए" बात को समझें अगर समझ में आए तो मुहम्मद की अक्ल पर मातम करें. मुहम्मद का मकसद था अपनी बीवी आयशा को बदनामी से बचाना, उनको मालूम है कि उस जगह तो आयशा और सफवान इब्ने मुअत्तल फ़क़त दो बशर थे, सेहरा में चार गवाह कहाँ से ला सकते थे,
इलज़ाम लगाने वाले? आयत-ए-मज़कूरा में चार गवाहों की बात भी खूब रही, ये सोच कर ही आप लुत्फ़ अन्दोज़ हो सकते है कि काश किन्हीं ज़ानियों के चश्म दीद गवाहों में एक आप भी होते. इस तसव्वुर पर आपको कोई गुनाह भी नहीं कि शरई हुक्म की पैरवी जो हुई. वैसे इंसानी फितरत के हिसाब से इए मौक़े पर शरीके-ज़ानयान हो जाना ज्यादा मुनासिब है, कौन ताब रखता है कि ऐसे मौक़े से चूके. ज़ानयान को भी मुहम्मद से दो क़दम आगे होना चाहिए कि चार आदमी उसको देख रहे हों और वह उनको अपनी तस्वीरें उनकी गवाही के लिए कैमरों को चालू रहने दें .इस हालात-ए-ज़िना का अमल ऐसा हो कि जैसे सुरमे दानी में सलाई आ, जा रही हो. इंसानों के लिए ये अमल ज़रा मुश्किल है मगर जानवरों की ज़िना कारी पर अगर ये गवाही होती तो कुछ आसानी होती. मुबाश्रत के वक़्त बड़े बड़े मुत्तकी जानवर हो जाते हैं, ये बात अलग है.
मुहम्मद की अकले कोताह पर मातम किया जा सकता है कि इस वाकेए को कुरआन में चर्चा भी किए जा रहे हैं और कह रहे हैं - - -" जो लोग चाहते हैं कि बाद नुजूल इन आयात के मुसलामानों में इस बे हयाई की फिर चर्चा हो, इनके लिए दुन्या और आखरत में बड़ी सज़ा है".

"गन्दी औरतें गंदे मर्दों के लिए होती हैं और गंदे मर्द गन्दी औरतों के लिए होते हैं। सुथरे मर्द सुथरी औरतों के लायक होते हैं और और सुथरी औरतें सुथरे मर्द के लायक होते हैं."सूरह नूर २४-१८ वाँ पारा आयत (२०)
असल पैगम्बरी तो ये होती कि गन्दे मर्द और गन्दी औरतों के साथ शरीके-हयात बन कर उनकी गंदगी को दूर करो। अच्छे समाज की तामीर में इस तरह से अच्छे लोग अपना तआवुन दें।


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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