Friday, 24 July 2015

Soorah Nisa 4 Part 3 (43-55)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा  
किस्त 3
देखिए कि हरियाणा खाप पंचायत के मुखियाओं जैसा मुहम्मदी अल्लाह अरबी भाषा में क्या क्या कहता है - - -
अल्लाह नशे की हालत में नमाज़ के पास भटकने से भी मना करता है. मुसलमानों को जनाबत(शौच) इस्तेंजा(लिंग शोधन ) मुबाश्रत (सम्भोग) और तैममुम (पवित्री करण) के तालमेल और तरीके समझाता है इस सिलसिले में यहूदियों की गुमराहियों से आगाह करता है कि वह तुम को भी अपना जैसा बनाना चाहते हैं. अल्लाह समझाता है कि वह अल्फाज़ को तोड़ मरोड़ कर तुम्हारे साथ गुफ्तुगू में कज अदाई करते हैं. यहाँ पर सवाल उठता है कि न यहूदी हमारे संगी साथी हैं और न उनकी भाषा का हम से कोई लेना देना, इस पराई पंचायत में हम भारतीय लोगों को क्यूँ सदियों से घसीटा जा रहा है, क्यूँ ऐसे क़ुरआन का रटंत हम मुसलसल किए जा रहे है। रौशनी नए इल्म की आ चुकी है तो ऐसे इल्म को तर्क करना और इसकी मुखालफ़त करना सच्चा ईमान बनता है. 
देखिए अल्लाह कहता है - - -
" उन को अल्लाह ने उन के कुफ्र के सबब अपनी रहमत से दूर फेंक दिया है। ए वह लोगो! 
जो किताब दिए गए हो, तुम उस किताब पर ईमान लाओ जिस को हम ने नाज़िल फ़रमाया है, ऐसी हालत पर वोह सच बतलाती है जो तुम्हारे पास है, इस से पहले कि हम चेहरों को बिलकुल मिटा डालें और उनको उनकी उलटी जानिब की तरफ बना दें या उन पर ऐसी लानत करें जैसी लानत उन हफ़्ता वालों पर की थी. अल्लाह जिस को चाहे मुक़द्दस बना दे, इस पर धागे के बराबर भी ज़ुल्म न होगा - - - 
वोह बुत और शैतान को मानते हैं. वोह लोग कुफ्फार के निस्बत कहते हैं कि ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं - - - 
और दोज़ख में आतिश-ऐ-सोज़ाँ काफी है''
सूरह निसाँअ4 पाँचवाँ पारा- आयात (43-55)
उम्मी मुहम्मद अपने क़ुरआन और हदीस में बवजेह उम्मियत हज़ार झूट गढा हो मगर उसमे उनके खिलाफ़ सच्चाई दर पर्दा दबे पाँव रूपोश बैठी नज़र आ ही जाती है. बुत को मानने वाले तो काफ़िर थे ही, बाकी उस वक़्त नुमायाँ कौमें हुवा करती थीं जो मशसूरे वक़्त थीं, ये शैतान के मानने वाले गालिबन नास्तिक हुवा करते थे? बडी ही जेहनी बलूगत थी इनमें जब इसलाम नाजिल हुवा, इसने तमाम ज़र खेजियाँ गारत करदीं. ये नास्तिक हमेशा गैर जानिब दार और इमान दार रहे हैं. यह इन की ही बे लाग आवाज़ होगी 

"वोह बुत और शैतान को मानते हैं. वोह लोग कुफ्फर के निस्बत कहते हैं कि ये लोग बनिस्बत मुसलमानों के ज़्यादः राहे रास्त पर हैं " 

जहाँ भी मुसलमानों के साथ किसी क़ौम का झगडा होता है, तीसरी ईमान दार आवाज़ ऐसी ही आती है. आज जो लोग गलती से मुस्लमान हैं, वक्ती तौर पर इस बात का बुरा मान सकते हैं, क्यूँ कि वोह नहीं जानते कि आम मुस्लमान फितरी तौर पर लड़ाका होता है जिसकी वकालत गाँधी जी भी करते हैं। 

मुहम्मदी अल्लाह आजतक अपने मुखालिफों का चेहरा मिटा कर उलटी जानिब तो कर नहीं सका मगर हाँ मुसलमानों की खोपडी को अतीत की ओर करने में कामयाब ज़रूर हुवा है।

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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