Friday 4 December 2015

Soorah Tauba 9 Qist 1

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह ए तौबः ९

(पहली किस्त) 

सूरह-ए-तौबः एक तरह से अल्लाह की तौबः है . 
अरबी रवायत में किसी नामाक़ूल, नामुनासिब, नाजायज़ या नाज़ेबा काम की शुरूआत अल्लाह या किसी मअबूद के नाम से नहीं की जाती थी, 
आमदे इस्लाम से पहले यह क़ाबिले क़द्र अरबी कौम के मेयार का एक नमूना था. 
मुहम्मद ने अपने पुरखों की अज़मत को बरक़रार रखते हुए इस सूरह की शुरूआत बगैर बिस्मिल्लाह हिररहमा निररहीम से अज खुद शुरू किया. 
आम मुसलमान इस बात को नहीं जानता कि कुरान की ११४ सूरह में से सिर्फ एक सूरह, सूरह-ए-तौबः बगैर बिस्मिल्लाह हिररहमा निररहीम पढ़े शुरू करनी चाहिए, इस लिए कि इस में रसूल के दिल में पहले से ही खोट थी. 
मुआमला यूँ था कि मुसलामानों का मुशरिकों के साथ एक समझौता हुआ था कि आइन्दा हम लोग जंगो जद्दाल छोड़ कर पुर अम्न तौर पर रहेंगे. ये मुआहदा कुरआन का है, गोया अल्लाह कि तरफ से हुवा. इसको कुछ रोज़ बाद ही अल्लाह निहायत बेशर्मी के साथ तोड़ देता है 

और बाईस-ए-एहसास जुर्म अपने नाम से सूरह की शुरूआत नहीं होने देता.
मुसलामानों! 
इस मुहम्मदी सियासत को समझो. 
अकीदत के कैपशूल में भरी हुई मज़हबी गोलियाँ कब तक खाते रहोगे? 
मुझे गुमराह, गद्दार, और ना समझ समझने वाले कुदरत कि बख्सी हुई अक्ल का इस्तेमाल करें, तर्क और दलील को गवाह बनाएं तो खुद जगह जगह पर क़ुरआनी लग्ज़िशें पेश पेश हैं 

कि इस्लाम कोई मज़हब नहीं सिर्फ सियासत है और निहायत बद नुमा सियासत जिसने रूहानियत के मुक़द्दस एहसास को पामाल किया है।
क़बले-इस्लाम अरब में मुख्तलिफ़ फिरके हुवा करते थे जिसके बाकियात खास कर उप महाद्वीप में आज भी पाए जाते हैं। इनमें क़ाबिले ज़िक्र नीचे दिए जाते हैं ---
१- काफ़िर ---- यह क़दामत पसंद होते थे जो पुरखों के प्रचीनतम धर्म को अपनाए रहते थे. सच पूछिए तो यही इंसानी आबादी हर पैगम्बर और रिफार्मर का रा-मटेरियल होती रही है. बाकियात में इसका नमूना आज भी भारत में मूर्ति पूजक और भांत भांत अंध विश्वाशों में लिप्त हिदू समाज है.
ऐसा लगता है चौदह सौ साला पुराना अरब पूर्व में भागता हुआ भारत में आकर ठहर गया हो और थके मांदे इस्लामी तालिबान, अल क़ायदा और जैशे मुहम्मद उसका पीछा कर रहे हों.
२- मुश्रिक़ ---- जो अल्लाह वाहिद (एकेश्वर) के साथ साथ दूसरी सहायक हस्तियों को भी खातिर में लाते हैं. मुशरिकों का शिर्क जानता की खास पसंद है. इसमें हिदू मुस्लिम सभी आते है, गोकि मुसलमान को मुश्रिक़ कह दो तो मारने मरने पर तुल जाएगा मगर वह बहुधा ख्वाजा अजमेरी का मुरीद होता है, पीरों का मुरीद होता है जो की इस्लाम के हिसाब से शिर्क है. 
आज के समाज में रूहानियत के क़ायल हिन्दू हों या मुसलमान थोड़े से मुश्रिक़ ज़रूर हैं.
३- मुनाफ़िक़ ---- वह लोग जो बज़ाहिर कुछ, और बबातिन कुछ और, दिन में मुसलमान और रात में काफ़िर. ऐसे लोग हमेशा रहे हैं जो दोहरी जिंदगी का मज़ा लूट रहे हैं. मुसलामानों में हमेशा से कसरत से मुनाफ़िक़ पाए जाते हैं.
४- मुनकिर ----- मुनकिर का लफ्ज़ी मतलब है इंकार करने वाला जिसका इस्लामी करन करने के बाद इस्तेलाही मतलब किया गया है कि इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उस से फिर जाने वाला मुनकिर होता है. बाद में आबाई मज़हब इस्लाम को तर्क करने वाला भी मुनकिर कहलाया.
५-मजूसी ----- आग, सूरज और चाँद तारों के पुजारी. ज़रथुष्टि.
६-मुल्हिद ------ कब्र रसीदा (नास्तिक) हर दौर में ज़हीनों को ढोंगियों ने उपाधियाँ दीं हैं मुझे गर्व है कि इंसान की ज़ेहनी परवाज़ बहुत पुरानी है.
७- लात, मनात, उज़ज़ा जैसे देवी देवताओं के उपासक, जिनकी ३६० मूर्तियाँ काबे में रक्खी हुई थीं जिसमे महात्मा बुद्ध की मूर्ति भी थी.
इनके आलावा यहूदी और ईसाई कौमे तो मद्दे मुकाबिल इस्लाम थीं ही जो कुरआन में छाई हुई हैं.
अल्लाह अह्द शिकनी करते हुए कहता है - - -
''अल्लाह की तरफ से और उसके रसूल की तरफ से उन मुशरिकीन के अह्द से दस्त बरदारी है, जिन से तुमने अह्द कर रखा था.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (१)
मुसलामानों ! 
आखें फाड़ कर देखो यह कोई बन्दा नहीं, तुम्हारा अल्लाह है जो अहद शिकनी कर रहा है, वादा खेलाफ़ी कर रहा है, मुआहिदे की धज्जियाँ उड़ा रहा है, मौक़ा परस्ती पर आमदः है, वह भी इन्सान के हक में अम्न के खिलाफ ? 
कैसा है तुम्हारा अल्लाह, कैसा है तुम्हारा रसूल ? एक मर्द बच्चे से भी कमज़ोर जो ज़बान देकर फिरता नहीं। मौक़ा देख कर मुकर रहा है? 
लअनत भेजो ऐसे अल्लाह पर.

''सो तुम लोग इस ज़मीन पर चार माह तक चल फिर लो और जान लो कि तुम अल्लाह तअला को आजिज़ नहीं कर सकते और यह कि अल्लाह तअला काफिरों को रुसवा करेंगे.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२)
कहते है क़ुरआन अल्लाह का कलाम है, क्या इस क़िस्म की बातें कोई तख्लीक़ कार-ए-कायनात कर सकता है? मुसलमान क्या वाकई अंधे,बहरे और गूँगे हो चुके हैं, वह भी इक्कीसवीं सदी में. क्या खुदाए बरतर एक साजिशी, पैगम्बरी का ढोंग रचाने वाले अनपढ़ , नाकबत अंदेश का मुशीर-ए-कार बन गया है. वह अपने बन्दों को अपनी ज़मीन पर चलने फिरने की चार महीने की मोहलत दे रहा है ? क्या अजमतो जलाल वाला अल्लाह आजिज़ होने की बात भी कर सकता है? क्या वह बेबस, अबला महिला है जो अपने नालायक बच्चों से आजिज़-ओ-बेजार भी हो जाती है. वह कोई और नहीं बे ईमान मुहम्मद स्वयंभू रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हैं जो अल्लाह बने हुए अह्द शिकनी कर रहे है.
''अल्लाह और रसूल की तरफ से बड़े हज की तारीखों का एलान है और अल्लाह और उसके रसूल दस्त बरदार होते हैं इन मुशरिकीन से, फिर अगर तौबा कर लो तो तुम्हारे लिए बेहतर है और अगर तुम ने मुंह फेरा तो यह समझ लो अल्लाह को आजिज़ न कर सकोगे और इन काफिरों को दर्द नाक सज़ा सुना दीजिए."
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३)
क़ब्ले इस्लाम मक्का में बसने वाली जातियों का ज़िक्र मैंने ऊपर इस लिए किया था कि बतला सकूं कअबा जो इनकी पुश्तैनी विरासत था, इन सभी का था जो कि इस्माइली वंशज के रूप में जाने जाते थे।यह कदीम लडाका कौम यहीं पर आकर अम्न और शांति का प्रतीक बन जाती थी, सिर्फ अरबियों के लिए ही नहीं बल्कि सारी दुन्या के लिए. अरब बेहद गरीब कौम थी, इसकी यह वजह भी हो सकती है सकती सकती कि हज से इनको कुछ दिन के लिए बद हाली से निजात मिलती रही हो. मुहम्मद ने अपने बनाए अल्लाह के कानून के मुताबिक इसको सिर्फ मुसलामानों के लिए मखसूस कर दिया, क्या यह झगडे की बुनियाग नहीं कायम की गई. इन्साफ पसंद मुस्लिम अवाम इस पर गौर करे. 
'' मगर वह मुस्लेमीन जिन से तुमने अहेद लिया, फिर उन्हों ने तुम्हारे साथ ज़रा भी कमी नहीं की और न तुम्हारे मुकाबिले में किसी की मदद की, सो उनके मुआह्दे को अपने खिदमत तक पूरा करो. वाकई अल्लाह एहतियात रखने वालों को पसंद करता है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (४)
यह मुहम्मदी अल्लाह की सियासत अपने दुश्मन को हिस्सों में बाँट कर उसे किस्तों में मरता है. आगे चल कर यह किसी को नहीं बख्शता चाहे इसके बाप ही क्यूँ न हों.
''सो जब अश्हुर-हुर्म गुज़र जाएँ इन मुशरिकीन को जहाँ पाओ मारो और पकड़ो और बांधो और दाँव घात के मौकों पर ताक लगा कर बैठो. फिर अगर तौबा करलें, नमाज़ पढने लगें और ज़कात देने लगें तो इन का रास्ता छोड़ दो,''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (५)
मैं ने क़ब्ले इस्लाम मक्का कें मुख्तलिफ क़बीलों का ज़िक्र इस लिए किया था कि बावजूद इख्तेलाफ ए अकीदे के हज सभी का मुश्तरका मेला था क्यूँकि सब के पूर्वज इस्माईल थे. हो सकता है यहूदी इससे कुछ इख्तेलाफ़ रखते हों कि वह इस्माईल के भाई इसहाक के वंसज हैं मगर हैं तो बहरहाल रिश्ते दार. अब इस मुश्तरका विरासत पर सैकड़ों साल बाद कोई नया दल आकर अपना हक तलवार की जोर पर कायम करे तो झगडे की बुनियाद तो पड़ती ही है. इस तरह मुसलामानों ने यहूदियों और ईसाइयों से न ख़त्म होने वाला बैर खरीदा है. अल्लाह के वादे की खिलाफ वर्ज़ी के बाद मुहम्मद की बरबरियत की यह शुआतशुरुआत है। 





जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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