Friday 11 December 2015

Soorah Tauba 9 Qist 3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
******
सूरह ए तौबः 9 
(तीसरी किस्त)

ये नर्म नर्म हवाएँ हैं किसके दामन की ,
चराग़ दैरो-हरम के हैं झिलमिलाए हुए।
'फ़िराक़' गोरखपूरी

एक बार उर्दू के महान शायर 'फ़िराक़' गोरखपूरी के पास संबंधित विभाग से लोग इस सूचना को लेकर आए आए कि सरकार ने आप का बुत गोल घर चौराहे पर आप के मृत्यु बाद स्थापित करने की मंज़ूरी दी है, आप से गुजारिश है कि इस सिलसिले में आप विभाग का मूर्ति रचना में सहयोग दें.
'फ़िराक़' साहब इंजीनियर पर उखड गए कि आप चौराहे पर मेरा बुत खड़ा कर देंगे और चील कौवे मेरे सर पर बैठ कर बीट करेंगे ? 
मुझे यह अपनी तौहीन मनजूर नहीं. सरकार से कह दो कि वह अगर बुत की लागत का पैसा मुझे बतौर मदद दे दे तो मैं जिंदगी भर गोल घर चौराहे पर मूर्ति बना खड़ा रह सकता हूँ.
रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपूरी उर्दू के अज़ीम शायर के साथ साथ सत्य वाद्यता के लिए भी प्रसिद्ध हैं कटु सत्य बोलने में ज़रा भी न झिझकते. गाँधी जी ने उन्हें स्पोइल जीनियस कहा था. क्यूंकि उनमें बहुत सी व्यक्तिगत खामियाँ थीं जिसमें एक सम लैगिकता - - - 
इस संबंध में कटु संवाद ने 'फ़िराक़' साहब के बेटे की जान लेली.'फ़िराक़' साहब ने अपना बुत न लगवा कर सच्चाई का मीनार कायम किया है, भविष्य के सस्ती शोहरत में गुम हो जाने के लिए, उन्हों ने इंसानियत के दामन से नर्म नर्म हवाएँ बिखेरी हैं और उसमें मग्न हो रहा कई इंसानी समाज जिस को यह हवाएं पनाह दे रही हैं. इन हवाओं से मंदिरों-मस्जिद के ज़हरीले चिराग झिलमिला गए हैं और बुझने वाले ही हैं.
झूट के अलम बरदार, हवा का बुत कायम करने वाले मुहम्मद जिसको (हवा के बुत को ) आधा मिनट से ज्यादह ध्यान में रखना मुहाल है
कि उसके बाद खुद मुहम्मद का बुत दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाता है, 
इसके लिए उन्होंने इंसानियत का खून किया और ढूंढ ढूढ़ कर उन इंसानी जमाअतों का खून किया जो ''मुहम्मादुर्रसूलिल्लाह'' (अर्थात मुहम्मद अल्लाह के दूत) कहने से इंकार करता था. मुहम्मद ने अपनी ज़िन्दगी में ही अपना बुत दुन्या के चौराहे पर कायम कर के दम तोडा. 
आज दुन्या का हर शिक्छित समाज, हर बुद्धि जीवी, हर दानिश्वर, यहाँ तक कि हर ईमान दार आदमी उनके कायम किए हुए जेहालत के बुत पर परिंदा बन कर बीट करना पसंद करता है।
अब देखिए कि क़ुरआन में मुहम्मद कल्पित साज़िशी अल्लाह क्या कहता है - - - 

मुहम्मद पहले कुंद ज़हनों, लाखैरों और नादारों को मुसलमान बनाते हैं और उसके बाद मुसलमानों को जेहादी ज़रीआ मुआश फराहम करके उस पर कायम रहने पर आमादा किए रहते हैं. माले गनीमत को मुसलमानों को चार दिन सुकून से खाने पीने भी नहीं देते कि अगली जेहाद की तय्यारी का हुक्म हो जाता है. अल्लाह अम्न पसंदों को कैसे कैसे ताने देता है मुलाहिजा हो - - - 
''जेहाद से जान चुराने वालों को अल्लाह भी नहीं चाहता कि वह शरीक हों, वह अपाहिजों के साथ यहीं धरे रहें '' 
किसी फर्द की उभरती हैसियत मुहम्मद को क़तई नहीं भाती, किसी की इन्फ़िरादियत की खूबी उनसे फूटी आँख नहीं देखी जाती, न ही किसी की भारी जेब उनको हजम होती है. ऐसे लोगों के खिलाफ धडाधड आयतें उतरने लगती हैं. आयतें खुद गवाह हैं कि इस्लाम क़ुबूल किए हुए मुसलामानों के दरमियाँ अल्लाह, उसका खुद साख्ता रसूल, और उसके कुरानी फ़रमूदात तमस्खुर(मजाक) का बाईस है, जिस पर अलाह बरहम होता है.
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२५)
आखिर तंग आकर नव मुस्लिम, झक्की और बक्की मुहम्मद से एहतेजाज करते हैं कि आप तो हमारी ज़रा ज़रा सी बातों पर कान लगाए रहते हैं? जिसे मुहम्मद उनको बेवकूफ़ बनाते कि '' यह बात मुझे बज़रिए वहिय अल्लाह ने बतलाई'' दर असल यह बाते बज़रिए चुगलखोराने रसूल से उनको मालूम पड़तीं. अपने नव मुस्लिम साथियों को डराना धमकाना, जहन्नमी क़रार दे देना, मुनाफ़िक़ या काफ़िर कह देना, मुहम्मद के लिए कोई ख़ास बात न थी, जोकि मुसलामानों में आज भी चला आ रहा है, 
अल्लाह कहता है - - -
''ऐ ईमान वालो! मुशरिक लोग निरा नापाक होते हैं, सो इस साल के बाद यह लोग मस्जिद हराम के पास न आने पाएं। अगर तुम्हें मुफलिसी का अंदेशा हो तो अल्लाह तुम को अपने फज़ल से अगर चाहेगा तो मोहताज नहीं रखेगा. बेशक अल्लाह खूब जानने वाला और रहमत वाला है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२८)
मनु महाराज अपनी स्मृति में लिखते हैं कि शूद्रों का साया भी अगर किसी बरहमन पर पड़ जाए तो वह अपित्र हो जाता है और उसको स्नान करना चाहिए, इस क़िस्म की बहुत सी बाते. जैसे इनको जीने का हक बरहमन की सेवा के बदले ही है - - - 
इसी तरह यहूदियों को उनके खुदा यहवाह ने नबी मूसा को ख्वाब दिखलाया कि तुम दुन्या की बरतर कौम हो और एक दिन आएगा जब तुम्हारी कौम दुन्या के हर कौम पर शाशन करेगी, कोशिश जरी रहे - - - 
मेरा अनुमान है कि बरहमन जो बुनयादी तौर पर आर्यन हैं, के पूर्वज मनु मूसा वंशज एक ही खून हैं यहूदी और ब्राह्मणों का जेहनी मीलान बहुत कुछ यकसाँ है. दोनों के मूल पुरुष इब्राहीम, अब्राहाम, अब्राहम, बराहम, ब्रह्मा एक ही लगते हैं. अब यह बात अलग है कि अतिशियोक्ति पसंद पंडितों ने ब्रह्मा का रूप तिल का ताड़ नहीं बल्कि तिल का पहाड़ बना दिया. 
मुहम्मद मूसा और मनु से भी चार क़दम आगे हैं, इन दोनों ने विदेशियों से नफ़रत सिखलाया और यह जनाब अपने भाई बन्धुओं को ही अछूत बना रहे है.
'' अहले किताब जो कि न अल्लाह पर ईमान रखते है न क़यामत के दिन पर और न उन चीज़ों को हराम समझते हैं जिनको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम फ़रमाया और न सच्चे दीन को क़ुबूल करते हैं, इनसे यहाँ तक लड़ो की यह मातहत हो कर जज़िया देना मंज़ूर कर लें.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (२९)
शर पसंद मुहम्मद, उनसे सदियों पहले आए आए ईसाई और मूसाई कौमों से जेहाद के बहाने तलाश कर रहे हैं, वह भी जज़िया वसूलने के लिए. . कितने बेशर्म इस्लमी ओलिमा हैं जो कहते हुए नहीं थकते कि इस्लाम अमन पसंद है. इस्लाम का अंजाम यही खुद सोज़ बम रख कर एक मुस्लिम नव जवान अपने साथ ५० मुसलामानों को पाकिस्तान जैसे मुस्लिम मुल्क में हर हफ्ते मौत के घाट उतरता है. भारत में हर रोज़ सैकड़ों बे कुसूर मुसलामानों को खुद अपनी नज़रों में ज़लील ओ ख्वार करता है. 
शाह रुख खान जैसे फ़नकार को दुन्या के सामने गाना पड़ता है - - - 
''माय नेम इज खान बट आइ एम नाट टेरेरिस्ट.'' 
मुहम्मद की कबीलाई दहशत पसंदी की वक्ती आलमी कामयाबी ने आज दुन्या की एक अरब आबादी को शर्मसार किए हुए है मगर ओलिमा रोटियों पर रोटियाँ सेके चले जा रहे हैं. आजके मुस्लिम ओलिमा और दानिश्वर जिस की पर्दा दारी करते फिर रहे हैं वह कलमुही डायन इन आयातों के परदे में अयाँ है जो दुन्या की हर खास जुबान में तर्जुमा हो चुकी है. 
इस्लाम के चेहरे पर कला धब्बा है यह माले गनीमत और जज़िया जो मौक़ा मिलते ही आज भी इस्लाम के ना इंसाफी पाकिस्तान में दो सिक्खों का सर कलम करके अपनी वहशत का मुज़ाहिरा करते हैं. 
क्या वह वक़्त आने वाला है कि मुसलमानों से दुन्या की मुतासिर कौमें माले गनीमत और जज़िया वापस तलब करें, मुसलामानों पर हर गैर मुस्लिम मुल्क में जज़िया लगा करे?
''और यहूद ने कहा अज़ीज़ अल्लाह के बेटे हैं और नसारा ने कहा मसीह अल्लाह के बेटे हैं. यह इनका कौल है मुँह से कहने का - - - अल्लाह इनको गारत करे यह उलटे जा रहे हैं.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३०)
हाँ सच है कि कोई अल्लाह का बेटा नहीं है. न कोई अल्लाह का रसूल, न कोई अल्लाह न नबी, न कोई अल्लाह का अवतार न कोई अल्लाह का चेला और न कोई अल्लाह का दलाल. अभी तक यह साबित नहीं हो पाया है कि अल्लाह है भी या नहीं. अल्लाह अगर है भी तो ऐसा कोई नहीं जैसा इन अल्लाह के मुजरिमों ने अल्लाह का रूप गढ़ा है. 
मोह्सिने इंसानियत इंसानों को खुद बद दुआ दे रहे हैं कि उन्हें अल्लाह ग़ारत करे और मुसलमानों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं कि यह मेरा नहीं अल्लाह का कलाम है, मुसलमानों का हाल यह है कि उनकी हाँ में हाँ मिला रहा है, हाँ में ना मिलाने कि हिम्मत ही नहीं है.
'' लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह से फूँक मार के बुझा दें ,हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३२)
इस आयत में मुहम्मद ने लाशऊरी तौर पर खुद को अल्लाह तस्लीम कराने की कोशिश की है जो कि उनकी मुहीम की मरकजी नियत थी। लात, मनात, उज्ज़ा जैसे देवी देवता के क़तार में अल्लाह के बुत निराकार की स्थापना ही तो करते हैं और उन्हीं के दिए की तरह अल्लाह के बुत का भी एक दिया जलाते हैं, कल्पना करते हैं कि जैसे हम इरादा रखते हैं इन देवो पर जलने वाले चिरागों को बुझाने का, वैसे ही यह काफ़िर, मुशरिक और मुल्हिद भी हमारे वहदानियत के बुत का दिया मुँह से फूँक मार के बुझादेने का..कहते हैं - - 
''अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , हालाँकि अल्लाह तआला बदून इसके अपने नूर को कमाल तक पहुँचा दे , मानेगा नहीं, गो काफ़िर लोग कैसे ही नाखुश हों.'' 
अरे भाई उस खुदाए बरतर का कमाल तो रोज़े अव्वल से कायम है. तुम पिद्दी? क्या पिद्दी का शोरबा? उसे कमाल तक क्या पहुंचोगे? हाँ उसकी मिटटी ज़रूर पिलीद किए हुए हो . उसकी मिटटी क्या पिलीद कर पाओगे ? हाँ मुसलमानों को पामाल ज़रूर किए हुए हो.
'' वह ऐसा है कि उसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चा दीन देकर भेजा है ताकि इसको तमाम दीनो पर ग़ालिब कर दे, गो कि मुशरिक कितने भी नाखुश हों.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३३)
खुदाए बरतर? खालिके कायनात? अगर कोई है तो निज़ाम ए कायनात की निजामत को छोड़ कर अरब के मुट्ठी भर कबीलाई बन्दों की नाराजी और रजामंदी को देख रहा है. अफ़सोस कि लाल बुझक्कड़ी माहौल में कोई चतुर मुखिया पैदा हुवा था और वह ऐसा चतुर था कि उसकी बोई हुई घास हम आज तक चर रहे हैं.
''ऐ इमान वालो! तुम लोगो को क्या हुवा? जब तुम से कहा जाता है अल्लाह की राह में (जेहाद के लिए) निकलो, तो तुम ज़मीन को लगे हो जाते हो. क्या तुम ने आख़िरत की एवज़ दुनयावी ज़िन्दगी पर किनाअत कर ली है? सो दुनयावी ज़िन्दगी का फ़ायदा बहुत क़लील है, अगर तुम न निकले तो वह तुम को बहुत सख्त सज़ा देगा और तुम्हारे बदले दूसरी क़ौम को पैदा कर देगा. और तुम अल्लाह को कुछ ज़रर नहीं पहूंचा सकते और अल्लाह को हर चीज़ पर पूरी पूरी कुदरत है.''
सूरात्तुत तौबा ९ - १०वाँ परा आयत (३८-३९)
मुहम्मद कुरआनी अल्लाह बन कर अपने पर ईमान लाए मुसलमान बन्दों को पैगामे तशद्दुद दे रहे हैं. इन्हीं के एहकामात भारतीय मदरसों में आज भी पढाए जाते हैं वह भी सरकारी मदद से. जब बच्चा जिज्ञासु होकर मोलवी साहब से पूछता है कि हमारे सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम किस के साथ जंग करने के लिए फरमा रहे हैं? तो जवाब होता है काफिरों के साथ. बच्चा पूछता है यह काफ़िर कौन लोग होते हैं तो मोलवी शरारत से मुस्कुरा कर कहता है बड़े होकर सब समझ जाओगे. बच्चा इसी तलब में बड़ा होता है 

कि काफ़िर कौन होते हैं? 
कुफ्र क्या है? 
बड़ा होते होते पूरी तरह से उस पर जब यह भावुक ईमान ग़ालिब हो लाता है तो उसकी तलब उसे तालिबान बना देती है. 
अफ़सोस का मुकाम यह है कि देश में तालिबानी मदरसे खुद हमारी सरकारें कायम करके चला रही हैं. हर एक को अल्प संख्यक वोट चाहिए क्यूंकि इसके दम से ही बहु सख्यक वोट का दारो मदार है, अल्प संख्यक मुस्लिम समाज पर सिर्फ मज़हबी जूनून का भूत ग़ालिब है जिसके चलते वह पीछे हैं, अनपढ़ हैं, गरीब है, बस. मगर बहु संख्यक हिदू समाज पर धार्मिक नशे का भूत ऐसा सवार है कि शराब, जुवा, अफीम. भाँग, चरस, गाँजा, कई अमानवीय, असभ्य नागा साधू जैसी नग्नता उसकी सभ्यता और धर्म का अंग बन चुके हैं. समाज सुधार का ढोल पीटने वाले मीडिया के नए अवतार केवल नाम नमूद की चाह रखते हैं अन्दर से पैसे की भूख उनको भी है. जम्हूरियत भारत के लिए इक्कीसवीं सदी में भी अभिशोप है. ज़मीर फरोश हर पार्टी के नेता किसी इनक्लाबी तलवार के इंतज़ार में हैं. जाने कब कोई माओ ज़े तुंग भारत में अवतरित होगा.
अल्लाह बने मुहम्मद कहते हैं ऐ ईमान वाले गधो! मैंने हुक्म दिया कि जेहाद के लिए खड़े हो जाओ , तुन ने सुना नहीं? अभी भी ज़मीन से पीठ लगाए लेटे हुए हो? क्या तुम्हें मेरे कबीले कुरैश के मुस्तक़बिल की कोई परवाह नहीं? गोकि मेरी नस्ल चुन चुन कर मार दी जायगी , मेरा तुख्म भी बाकी नहीं बचेगा, मैं जनता हूँ कि मेरी बद आमालियों की सज़ा कुदरत मुझे देगी मगर मैं क्या करून अपनी फितरत का गुलाम हूँ। मैं फिर भी कहता हूँ कुरैशयों के भले के लिए लड़ो वर्ना अल्लाह कोई कबीला ,कोई क़ौम ए दीगर उन पर मुसल्लत कर देगा क्यूंकि वह बड़ी कुदरत वाला है। 




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment