Friday 8 January 2016

Soorah yunus 10 Qist 4

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह यूनुस १० 
चौथी किस्त 


''लोग कहते हैं कि यह वादा (क़यामत का) कब वाक़ेअ होगा, अगर तुम सच्चे हो? आप फरमा दीजिए कि अपनी ज़ात खास के लिए किसी नफा या किसी नुकसान का अख्तियार नहीं रखता मगर जितना अल्लाह को मंज़ूर हो. हर उम्मत के लिए एक मुअय्यन वक़्त है. जब उनका यह मुअय्यन वक़्त आ पहुचता है तो एक पल न पीछे हट सकते हैं न आगे सरक सकते है.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५०)
''क्या वह (क़यामत) वाक़ई है? आप फरमा दीजिए कि हाँ ! वह वाकई है और तुम किसी तरह उसे आजिज़ नहीं कर सकते.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
मुहम्मद ने मुसलमानों के लिए अल्लाह को हाथ, पाँव, नाक, कान, मुँह, दिल और इंसानी दिमाग़ रखने वाला एक घटिया हयूला का पैकर पेश कर रखा है, तभी तो मजबूर बीवियों की तरह अपने शौहर नुमा बन्दों से आजिज़ भी हो रहा है, वर्ना इंसानों और जिनों से दोज़ख के पेट भरने का वादा किए हुए अल्लाह को इनकी क्या परवाह होनी चाहिए।
 बेचारा मुसलमान हर वक़्त अपने परवर दिगार को अपने सामने तैनात खड़ा पाता है. वह ससी हुई, सहमी सहमी ज़िन्दगी गुज़रता है. कुदरत की बख्शी हुई इस अनमोल जिसारत ए लुत्फ़ से लुत्फ़ अन्दोज़ ही नहीं हो पाता. क़यामत का खौफ लिए अधूरी ज़िन्दगी पर किनाअत करता हुवा इस दुन्या से उठ जाता है. 
कौम की माली, सनअती, तामीरी और इल्मी तरक्की में यह अल्लाह की फूहड़ आयतें बड़ी रुकावट बनी रहती हैं. अवाम जो इन बातों की गहराइयों में जाते हैं वह हकीक़त को समझने के बाद या तो इस से अपना दामन झाड़ लेते हैं या इसका फायदा उठाने में लग जाते हैं. 
हर मज़हब की लग-भग यही कहानी है.
''याद रखो अल्लाह के दोस्तों पर न कोई अंदेशा और न वह मगमूम होते हैं. वह वो हैं जो ईमान लाए और परहेज़ रखते हैं. इनके लिए दुन्यावी ज़िन्दगी में भी और आखरत में भी खुश खबरी है - - -''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (५३)
आज अल्लाह के दोस्तों पर तमाम दुन्या को अंदेशा है. हर मुल्क में मुसलामानों को मशकूक नज़रों से देखा जाता है. एक मुसलमान किसी मुसलमान पर भरोसा नहीं करता. इनकी हर बात इंशा अल्लाह के शक ओ शुबहा में घिरी रहती है. कोई वादा क़ाबिले एतबार नहीं होता. आखरत के नाम पर एक दूसरे को धोका दिया करते हैं. भोलेभाले अवाम आखरत का शिकार हैं.
कुरआन एक हज़ार बार कहता है जो कुछ ज़मीन और आसमान के दरमियान है अल्लाह का है. कौन काफ़िर कहता है कि यह सब उनके बुतों का है. या कौन मुल्हिद कहता है कि नहीं यह सब उसका है? कौन पागल कहता है कि अल्लाह का नहीं, सब बागड़ बिल्लाह का है, कि मुहम्मद उस से पूछते रहते हैं कि कोई दलील हो तो पेश करो. वह खुद अल्लाह के दलाल बने फिरते हैं, इसका सुबूत जब कोई पूछता है तो बड़ी आसानी से कह देते हैं कि इसका गवाह मेरा अल्लाह काफी है.
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (६५-७४)
नूह के बाद मुहम्मद मूसा का तवील क़िस्सा फिर नए सिरे से ले बैठते है. इनके तखरीबी ज़ेहन में दूसरे मौज़ूअ का ज्यादह मसाला भी नहीं है. 
शुरू कर देते हैं फिरौन और मूसा की मुकलमों की फूहड़ जंग जिसको पढ़ कर एहसास होता है कि एक चरवाहा इस से बढ़ कर क्या बयान कर सकता है. इसमें तबलीग इस्लाम की होश्यारी खटकती रहती है. अकीदत मंदों की लेंडी ज़रूर तर हुवा करती है यह और बात है.बयान का वाक़ेअय्यत से कोई लेना देना नहीं. मसलन - - -
''ए मूसा आप मुसलामानों को बशारत देदें और मूसा ने अर्ज़ किया ए हमारे रब ! तूने फिरौन को और इसके सरदारों को सामान तजम्मुल और तरह तरह के सामान ए दुनयावी, ज़िन्दगी में इस वास्ते दी हैं कि वह आप के रस्ते से लोगों को गुमराह करें? ए मेरे रब तू उनके सामान को नेस्त नाबूद कर दे और इनके दिलों को सख्त करदे, सो ईमान नलाने पावें, यहाँ तक कि अज़ाबे अलीम देख लें और फ़रमाया कि तुम दोनों की दुआ कुबूल कर लीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (७५-८९)
मुहमदी कुरआन की नव टंकी देखिए ,
 रसूल खेत की कहते हैं, मूसा खलियान की सुनता है और अल्लाह गोदाम की कुबूल करता है.
इन आयतों को पढ़ कर मुहम्मद की गन्दी ज़ेहन्यत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह बनी नवअ इंसान के कितने हम दर्द थे फिर भी यह हराम जादे ओलिमा उनको मोह्सिने इंसानियत कहते नहीं थकते.
''और हमने बनी इस्राईल को दरिया के पार कर दिया, फिर उनके पीछे पीछे फिरौन मय अपने लश्कर के ज़ुल्म और ज़्यादती के इरादे से चला, यहाँ तक कि जब डूबने लगा तो कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईलईमान ले हैं.कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९०)
क़ुरआन में कितना छल कपट और झूट है यह आयत इस बात की गवाही देती है - - -
१- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरऑन मय अपने लस्कर के दरियाय नील पार कर रहा था और उसमें गर्क हुवा.
तौरेती तवारीख कहती है कि यह वाक़िया नील नदी नहीं बल्कि नाड सागर का है और लश्करे फिरौन गर्क हुई फिरौन नहीं.
२- क़ुरआन का अल्लाह यानी मुहम्मद बक़लम खुद कहते है कि फिरौन ''कहने लगा मैं ईमान लाता हूँ बजुज़ इसके कि जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए हैं'' यानि यहूदियत को छोड़ कर, जब कि वह यहूदियत के नबी मूसा के बद दुआ का शिकार हुवा था, दो हज़ार साल बाद पैदा होने वाले इस्लाम पर कैसे ईमान लाया? कि फिरौन कहता है ''कोई माबूद नहीं कि मैं मुसलमानों में दाखिल होता हूँ.'' यहूदियत की बेगैरती के साथ मुखालिफत करते हुए, बे शर्मी के साथ इस्लाम की तबलीग ? कोई मुर्दा कौम रही होगी जो इनबातों को तस्लीम किया होगा जो आज बेहिस मुसलमानों पर इस्लाम ग़ालिब है.
है कोई जवाब दुन्य के मुसलमानों के पास ? मुस्लिम सरबराहों के पास ? आलिमों और फज़िलों के पास ?
''फिर अगर बिल्फर्ज़ आप इस किताब कुरआन की तरफ़ से शक में हों जोकि हमने तुम्हारे पास भेजा है तो तुम उन लोगों से पूछ देखो जो तुम से पहले की किताबों को पढ़तेहैं यानी तौरेत और इंजील तो कुरआन को सच बतलाएंगे. बेशक आप के पास रब की सच्ची किताब है. आप हरगिज़ शक करने वालों में न हों और न उन लोगों में से हों जिन्हों ने अल्लाह की आयतों को झुटलाया. कहीं आप तबाह न हो जाएँ.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (९४-९५)
अपने रसूल को अल्लाह खालिक ए कायनात को समझाने बुझाने की ज़रुरत पड़ रही है कि खुदा नखास्ता यह भी आदम जाद है गुमराह न हो जाएं ।साथ साथ वह इनको ईसा मूसा का हम पल्ला भी करार दे रहा है. चतुर मुहम्मदने अवाम को रिझाने की कोई राह नहीं छोड़ी. 

*देखें कि अल्लाह की इन बातों से आप कोई नतीजा निकल सकते हैं - - -
''अगर आप का रब चाहता तो तमाम रूए ज़मीन के लोग सब के सब ईमान ले आते. सो क्या आप लोगों पर ज़बर दस्ती कर सकते हैं, जिस से वह ईमान ही ले आएं. हालाँकि किसी का ईमान बगैर अल्लाह के हुक्म मुमकिन नहीं और वह बे अक्ल लोगों पर गन्दगी वाक़े कर देता है और जो लोग ईमान लाते हैं उनको दलायल और धमकियाँ कुछफ़ायदा नहीं पहुचातीं.''
सूरह यूनुस १० -११-वाँ परा आयत (१००)

यहाँ मुहम्मदी अल्लाह खुद अपनी खसलत के खिलाफ किस मासूमयत से बातें कर रहा है। ज़बरदस्ती, ज़्यादती, जौर व ज़ुल्म तो उसका तरीका ए कार है, यहाँ मूड बदला हुवा है. वह अपने बन्दों की रचना पहले बे अकली के सांचे से करता है फिर उन पर गलाज़त उँडेल कर मज़ा लेता है. मुसलमान उसके इस हुनर पर तालियाँ बजाते हैं. 
कैसा तजाद(विरोधाभास) है अल्लाह की आयत में कि बगैर उसके हुक्म के कोई ईमान नहीं ला सकता और ईमान न लाने वालों के लिए अजाब भी नाजिल किए हुए है. यह उसके कैसे बन्दे हैं जो उस से जवाब तलबी नहीं करते, वह नहीं मिलता तो कम अज कम उसके एजेंटों को पकड़ कर उनके चेहरों पर गन्दगी वाके करें. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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