Friday 7 July 2017

Soorah feel 105

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह  फ़ील १०५  - पारा ३० 
(अलम तरा कैफ़ा फ़अला रब्बोका बेअसहाबिल  फ़ील) 


अगर इंसान किसी अल्लाह, गाड और भगवान् को नहीं मानता तो सवाल उठता है कि वह इबादत और आराधना किसकी करे ? मख्लूक़ फ़ितरी तौर  पर किसी न किसी की आधीन होना चाहती है. एक चींटी अपने रानी के आधीन होती है, तो एक हाथी अपनेझुण्ड के सरदार हाथी या पीलवान का अधीन होता है. कुत्ते अपने मालिक की सर परस्ती चाहते है, तो परिंदे अपने जोड़े पर मर मिटते हैं. इन्सान की क्या बात है, उसकी हांड़ी तो भेजे से भरी हुई है, हर वक्त मंडलाया करती है, नेकियों और बदियों का शिकार किया करती है. शिकार, शिकार और हर वक़्त शिकार, इंसान अपने वजूद को ग़ालिब करने की उडान में हर वक़्त दौड़ का खिलाडी बना रहता है, मगर बुलंदियों को छूने के बाद भी वह किसी की अधीनता चाहता है.
सूफी तबरेज़ अल्लाह की तलाश में इतने गारे गे कि उसको अपनी जात के आलावा कुछ न दिखा, उसने अनल हक (मैं खुदा हूँ) कि सदा लगे, इस्लामी शाशन ने उसे टुकड़े टुकड़े कर के दरिया में बह देने की सजा दी. मुबल्गा ये है कि उसके अंग अंग से अनल हक की सदा निकलती रही.
कुछ ऐसा ही गौतम के साथ हुवा कि उसने भी भगवन की अंतिम तलाश में खुद को पाया और " आप्पो दीपो भवः " का नारा दिया.
मैं भी किसी के आधीन होने के लिए बेताब था, खुदा की शक्ल में मुझे सच्चाई मिली और मैंने उसमे जाकर पनाह ली.
कानपूर के ९२ के दंगे में, मछरिया की हरी बिल्डिंग मुस्लिम परिवार की थी, दंगाइयों ने उसके निवासियों को चुन चुन कर मारा, मगर दो बन्दे उनको न मिल सके, जिनको कि उन्हें खास कर तलाश थी. पड़ोस में एक हिन्दू बूढी औरत रहती थी, भीड़ ने कहा इसी घर में ये दोनों शरण लिए हुए होंगे, घर की तलाशी लो. बूढी औरत अपने घर की मर्यादा को ढाल बना कर दरवाजे खड़ी हो गई. उसने कहा कि मजाल है मेरे जीते जी मेरे घर में कोई घुस जाए, रह गई अन्दर मुसलमान हैं ? तो मैं ये गंगा जलि सर पर रख कर कहती हूँ कि मेरे घर में कोई मुसलमान नहीं है. औरत ने झूटी क़सम खाई थी, दोनों व्यक्ति घर के अन्दर ही थे, जिनको उसने मिलेट्री आने पर उसके हवाले किया.
ऐसे झूट का भी मैं अधीन हूँ. 

ये खाए हुए भूसे का नतीजा गोबर वाली आयत है. गोबर गणेश अल्लाह कहता है - - -

"क्या आपको मालूम नहीं कि आपके रब ने हाथी वालों के साथ क्या मुआमला किया?
क्या इनकी तदबीर को सर ता पा ग़लत नहीं कर दिया?
और इन पर ग़ोल दर ग़ोल परिंदे भेजे,
जो इन लोगों पर कंकड़ कि पत्थरियाँ फेंकते थे,
सो अल्लाह ने इनको खाए हुए भूसा की तरह कर दिया."  
सूरह  फ़ील १०५  - पारा ३० आयत (१-५)

नमाज़ियो !
इस्लाम नाज़िल होने से तकरीबन अस्सी साल पहले का वक़ेआ है कि अब्रहा नाम का कोई हुक्मरां मक्के में काबा पर अपने हाथियों के साथ हमला वर हुवा था. किम-दंतियाँ हैं कि उसकी हाथियों को अबाबील परिंदे अपने मुँह से कंकड़याँ ढो ढो कर लाते और हाथियों पर बरसते, नतीजतन हाथियों को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा और अब्रहा पसपा हुवा. यह वक़ेआ ग़ैर फ़ितरी सा लगता है मगर दौरे जिहालत में अफवाहें सच का मुकाम पा जाती हैं.
वाजः हो कि अल्लाह ने अपने घर की हिफ़ाज़त तब की जब खाना ए काबा में ३६० बुत विराजमान थे. इन सब को मुहम्मद ने उखाड़ फेंका, अल्लाह को उस वक़्त परिंदों की फ़ौज भेजनी चाहिए था जब उसके मुख्तलिफ शकले वहां मौजूद थीं. अल्लाह मुहम्मद को पसपा करता. अगर बुत परस्ती अल्लाह को मंज़ूर न होती तो मुहम्मद की जगह अब्रहा सललललाहे अलैहे वसल्लम होता.
यह मशकूक वक़ेआ भी कुरानी सच्चाई बन गया और झूट को तुम अपनी नमाज़ों में पढ़ते हो?   

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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