Saturday 23 April 2011

सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ -

मेरी तहरीर में - - -


क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

अपने वजूद पर सवार ईश्वर को जब तक आप उतार नहीं फेकेंगे तब तक सत्य को नहीं पा सकेगे. कोई प्राणी ईश्वर की आराधना नहीं करता सिवाय इंसान के . ईश्वर है तो हुवा करे, हमें उसके होने न होने पर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, न ही अपनी ऊर्जा. हमने हमेशा ईश्वर को अपने सामने पाया है. सृष्टी में जो कुछ आप देख रहे है, सब ईश्वर है. ईश्वर प्रशंशनीय और कभी कभी निंदनीय तो हो सकता है, मगर पूजनीय कभी नहीं हो सकता है.

मुझ तक अल्लाह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,

तुम तक अल्लाह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो.


जहां से ईश्वर की आराधना शुरू होती है वहीँ से ईश्वर का क्रय-विक्रय शुरू होता है, यानी ओलिमा और पंडित का कारोबार. कोई ईश्वर ऐसा नहीं जो इंसान का कल्याण या अहित करता हो. अपने जीवन को शुद्ध करके मानव और दीगर प्राणी के लिए समर्पित रहिए, यही मानव धर्म है. इस धरती को सजाइए, संवारिए जो आने वाले आपके वारिसों को सुखी रखे. इसके लिए होई एक जीवन लक्ष बनाइए. सत्य को जितना पा सकेंगे, उतना अस्तित्व भार हीन होगा.


सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ -

आइन्दा ऐसी ही छोटी छोटी सूरह हैं जिसमे मुहम्मद अपनी बातों को ओट रहे हैं, गोया क़ुरआनी पेट भरने की बेगार कर रहे हों.
महिरीन कुरआन और ताजिराने दीन इनको मुख्तलिफ शक्लें देकर सवाबों के खानों में बांटे हुए हैं.
इन्होंने हर सूरह की कुछ न कुछ "खवास'' बना रख्खा है. मसलन इस सूरह के बारे में मौलाना लिखते हैं

"जो शख्स सूरह मुज़म्मिल को अपना विरद (वाचन).बना दे, वह मुहम्मद का दर्शन ख्वाबों में पाए. और इससे खैर ओ बरकत होगी. सूरह को पढ़ कर हाकिम के पास जाए तो हाकिम को मेहरबान पाए. वास्ते ज़बान बंदी और तेग बंदी के लिए मुजर्रब है (परीक्सित, आज्मूदः) और अगर लिखकर मरीज़ के गले में लटका दे तो तो इसको सेहत हो और हर रोज़ सात मर्तबा पढ़े तो भोज्य अधिकाए ."देखिए कि लफ्ज़ी मानी ओ मतलब क्या है और बरकत क्या है - - -

"ए कपडे में लिपटने वाले! रत को खड़े रहा करो, मगर थोड़ी सी रात यानी निस्फ़ रात, या इससे भी निस्फ से किसी क़द्र कम कर दिया करो या निस्फ से कुछ बढ़ा दो और कुरआन को खूब साफ़ साफ़ पढो "कुछ और सोचने का मौक़ा ही न मिल सके. आयातों में अल्फाज़ की कारीगरी मुलाहिजा हो जैसे कि लफ़्ज़ों की मीनार चुन रहे हों, और जानते हैं कि हो सकता है, इसी तरह अल्लाह की ज़बाब होगी.


"और मुझको और इन झुटलाने वालों, नाज़ ओ नेमत में रहने वालों को छोड़ दो और इनको थोड़े दिनों की और मोहलत देदो. हमारे यहाँ बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना."
" और तुम उस दिन से कैसे बचोगे जो बच्चों को भी बूढा कर देता है."
मुहम्मद की लगजिश देखिए कि अपने को अल्लाह के झुटलाने वालों में शामिल किए हुए हैं.
इन्हें कौन पकडे हुए हैं कि जिससे खुद को छुड़ा रहे है.
कैसा ज़ालिम अल्लाह है कि जिसको वह मनवा रहे हैं? बन्दों की मौत के बाद "बेड़ियाँ हैं और दोज़ख है और गले में फँस जाने वाला खाना देगा."मुसलामानों की अक्ल मारी गई है. अपने गलों में इस्लामी कांटा फंसे हुए हैं.



"और अल्लाह को अच्छी तरह क़र्ज़ दो, और नेक अमल अपने लिए आगे भेज दो, इसको अल्लाह के पास पहुँच कर इससे अच्छा और सवाब में बड़ा पाओगे और अल्लाह से गुनाह मुआफ़ कराते रहा करो, बेशक अल्लाह गफूरुर रहीम है."मुहम्मद अल्लाह अपनी इबादत का भूका प्यासा बैठा है?
सूरह मुज़म्मिल ७३ - पारा २९ - पारा(१-२०)

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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