मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह क़ियामह ७५- पारा २९
आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है.जो कबीलाई समाज का मफरूज़ा खदशा हुवा करता था. अफगानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, मिस्र, लीबिया और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली हो रही हैं तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के गुलामी में जा चुके है, लोग तेज़ी से ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, दोबारा इस्लामी गोद में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, ११-९ के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, १८ करोड़ बे कुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फसाद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, बहुत सी प्राइवेट कारखाने और फर्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, दीनी तालीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का लेंड होते है, जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक ही नहीं होते. लेदे के आन्वां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ अपने आप में पस मानदा है, वहीँ दूसरी कौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख्वार है. क्या इससे बढ़ कर कौम पर कोई क़यामत आना बाकी रह जाती है? ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाकिस कुरआन की बरक़त है. आज हस्सास ताबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि बुजुर्गों की नाकबत अनदेशी ने अपने जुग्रफियाई वजूद को कुर्बान करके अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
ईरान में बज़ोरशमशीर इस्लामी वबा आई कमजोरों ने इसे निगल लिया मगर गयूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढना गवारा नहीं किया, घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे जिहें पारसी कहा जाता है, दुन्या में सुर्खुरू है.सिर्फ एक पारसी टाटा के सामने तमाम ईरान पानी भरे.मुसलामानों के सिवा हर कौम मूजिदे जदीदयात है जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख के लिए पर तौल रहा है. इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो इसकी बद नसीबी ही होगी कि एक दिन वह दुन्या के लिए माजी की कौम बन जाएगा.
और क़सम खता हूँ नफ्स की, जो अपने ऊपर मलामत करे."सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (१-२)कल्बे स्याह मुहम्मद अपने नफ्स की भूक की क़सम खाते हैं जो मुसलसल इनको झूट बोलने पर आमादः करती है. इन पर मलामत तो कभी करती ही नहीं. नफ्स तो चाहत ही चाहत चाहती है और इसे काबू करना पड़ता है, ये इंसान को काबू में रखती है, इंसान इसका मुरीद होता है.
इंसान का ज़मीर इसको मलामत करता है, हज़रात गालिबन ज़मीर की जगह नफ्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. उनके अल्लाह को अल्फाज़ चुनना भी नहीं आता. उसे बेहूदा कसमों की आदत पड़ गई है.
इसे हराम जादे ओलिमा ने यूँ मेकअप किया है - - -"हक तअला ने जिब्रील के पढने को अपना पढना क़ारार दिया है क्यूंकि जिब्रील हक तअला के पयम्बर और कुरआन लाने में महज़ वास्ता थे. मतलब ये कि जब जिब्रील आकर कुरआन पढ़ा करें तो आप ख़ामोशी से सुना करें और इनके सुना चुकने के बाद दोबारा पढ़ लिया करेंजिब्रील के पढने के दौरान में आपको ज़बान हिलाने की ज़रुरत नहीं. कुरआन आप के सीने में जमा करा देना यानी याद करा देना और आपके लिए इसकी किरत आसान कर देना, इसका साफ़ साफ़ मतलब ओ मफ़हूम, सब कुछ हमारे ज़िम्मे है. "
क्या ये शख्स एक क़तरा मनी न था? जो टपकाया गया था."सूरह क़ियामह ७५- पारा २९ आयत (३१-३७)मुहम्मदी जेहालत के जत्थे में कभी कभी कोई बेदार जेहन आ जाया करता था जिसका रवय्या जनाब बयान करते हैं. उसको जाने के बाद अल्लाह के मकरूह रसूल कोसते काटते हैं, यहाँ तक कि गालियाँ भी देते हैं. यही गालियाँ मुसलमान अपनी नमाज़ों में अदा करते हैं.
क्या उस शख्स को जवाब नहीं दिया जा सकता कि तुम भी तो अपनी माँ के अन्दाम निहानी में टपके हुए मनी के कतरे के अंजाम हो, पैगम्बर कैसे बन गए? किसी पैगम्बर ने तो मनी टपकने की हरकत की नहीं होगी. इंसान का बच्चा पैगम्बर ? चे मअनी?
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान
हर बार नए शब्द नहीं मिलते मुझे तारीफ के लिये..
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