Tuesday 12 April 2011

सूरह हाक़क़ा ६९ - पारा २९-

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह हाक़क़ा ६९ - पारा २९-


"वह होने वाली चीज़ कैसी कुछ है, वह होने वाली चीज़, आपको कुछ खबर है, कैसी कुछ है, वह आने वाली चीज़. (१-३)
मुहम्मद के सर पे क़यामत का भूत सवार था, या साजिशी दिमाग की पैदावार कहना ज़्यादः बेहतर होगा. वह कुरआन को उसी तरह बकते हैं जैसे एक आठ साल के बच्चे को कुछ बोलते रहने के लिए कहा जाए, उसके पास अलफ़ाज़ ख़त्म हो जाते है, वह अपनी बात दोहराने लगता है. उसका दिमाग थक जाता है तो वह भाषा की कवायद भी भूल जाता है. जो मुँह में आता है, आएँ बाएँ शाएँ, बकने लगता है अगर सच्चाई पर कोई आ जाए तो कुरआन का निचोड़ यही है.


''सुमूद और आद ने इस खड़खड़ाने वाली चीज़ की तकजीब की, सुमूद तो एक ज़ोर की आवाज़ से हलाक कर दिए गए और आद जो थे, एक तेज़ तुन्द हवा से हलाक कर दिए गए. (४-६)

आपने कभी आल्हा सुना हो तो समझ सकते हैं कि उसके वाकेआत सारे के सारे लग्व और कोरे झूट हैं, इसके वाद भी अल्फाज़ की बन्दिश और सुखनवरी, आल्हा को अमर किए हुए है कि सुन सुन कर श्रोता मुग्ध हो जाता है..

उसके आगे मुहम्मद का क़ुरआनी आल्हा ज़ेहन को छलनी कर जाता है, क्यूंकि इसे चूमने चाटने का मुकाम हासिल है.


''जिसको अल्लाह तअला ने सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया.वह तो उस कौम को इस तरह गिरा हुवा देखता कि वह गोया गिरी हुई खजूरों के तने हों. (७)

किस को सात रात और आठ दिन मुतावातिर मुसल्लत कर दिया ? किस पर मुसल्लत कर दिया? अल्लाह के इशारे पर पहाड़ और समंदर उछलने लगते हैं, फिर किस बात ने उसको मुतावातिर मुसल्लत करते रहने के अज़ाब में मुब्तिला रक्खा. मुहम्मद की जेहनी परवाज़ भी किस क़दर फूहड़ है.

अल्लाह को अरब में खजूर इन्जीर और जैतून के सिवा कुछ दिखता ही नहीं.

''फिरौन ने और इस से पहले लोगों ने और लूत की उलटी हुई बस्तियों ने बड़े बड़े कुसूर किए, सो उन्हों ने अपने रसूल का कहना न माना तो अल्लाह ने इन्हें बहुत सख्त पकड़ा. हमने जब कि पानी को तुगयानी हुई , तुमको कश्ती में सवार किया ताकि तुम्हारे लिए हम इस मुआमले को यादगार बनाएँ और याद रखने वाले कान इसे याद रक्खें." (१०-१४)

पाषाण युग के लूत कालीन बाशिदों का ज़िक्र है कि उस गड़रिए लूत की बातें मुहम्मद कर रहे है जो बूढा बेय़ार ओ मदद गार अपनी दो बेटियों को लेकर एक पहाड़ पर रहने लगा था. मुहम्मद अपने लिए पेश बंदी कर रहे हैं कि मुझ रसूल की बातें न मानोगे तो अल्लाह तुम्हारी बस्तियों को ज़लज़ले और सूनामी के हवाले कर देगा.


"फिर सूर में यकबारगी फूँक मार दी जाएगी और ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे फिर दोनों एक ही बार में रेज़ा रेज़ा कर दिए जाएँगे, तो इस रोंज़ होने वाली चीज़ हो पड़ेगी." (१५)

जब ज़मीन और पहाड़ उठा लिए जाएँगे तो हज़रत के गुनाहगार दोजखी कहाँ होंगे?


"आसमान फट जाएगा और वह उस दिन एकदम बोदा होगा और फ़रिश्ते उसके किनारे पर आ जाएगे और आपके परवर दिगार के अर्श को उस रोंज़ फ़रिश्ते उठाए होगे."

मुसलमानों! अपने अल्लाह का ज़ेहनी मेयार देखो, उसकी अक्ल पर मातम करो, आसमान फट जाएगा, इस मुतनाही कायनात को काग़ज़ का टुकड़ा समझने वाला तुम्हारा नबी कहता है कि फिर ये बोदा (भद्दा) हो जायगा ? फटे हुए आसमान को फ़रिश्ते अपने कन्धों पर ढोते रहेंगे.. क्या इसी आसमान फाड़ने वाले अल्लाह से तुम्हारी फटती है ? ?

"उस शख्स को पकड़ लो और इसके तौक़ पहना दो, फिर दोज़ख में इसको दाखिल कर दो फिर एक ज़ंजीर में जिसकी पैमाइश सत्तर गज़ हो इसको जकड दो. ये शख्स अल्लाह बुज़ुर्ग पर ईमान नहीं रखता था." (३०-३३)

कोई खुद्दार और खुद सर था मुहम्मद के मुसाहिबों में, जोकि उनकी इन बातों से मुँह फेरता था, उसका बाल बीका तो कर नहीं सकते थे मगर उसको अपने क़यामती डायलाग से इस तरह से ज़लील करते हैं.


" मैं क़सम खाता हूँ उन चीजों की जिन को तुम देखते हो और उन चीजों की जिन को तुम नहीं देखते कि ये कुरआन कलाम है एक मुआज्ज़िज़ फ़रिश्ते का लाया हुवा और ये किसी शायर का कलाम नहीं." (३८-४१)

कौन सी चीज़ें है जो अल्लाह को भी नहीं दिखाई देतीं? क्या वह भी अपने मुसलमान बन्दों की तरह ही अँधा है. फिर कसमें खा खाकर अपनी ज़ात को क्यूं गुड गोबर किए हुए है.

मुसलमानों! तुम्हें इन अफीमी आयतों से मैं नजात दिला रहा हूँ., मेरी राय है कि तुम एक ईमान दार ज़िन्दगी जीने के लिए इस 'मोमिन' की बात मानों औए अपनी ज़ात को सुबुक दोश करो इन क़ुरआनी बोझ से और इन गलाज़त भरी आयातों से.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

2 comments:

  1. हमेशा की तरह बेहद लाजवाब लिखा है मोमिन जी आपने, एकदम झकझोर देने वाला और मुझे यकीन है कि जो भी मुस्लिम आपके ब्‍लॉग को खुले दिल और दिमाग से पढ़ लेगा वह बेशक इस्‍लाम नाम की बंद और भय के बल पर राज करने वाली प्रतिगामी व्‍यवस्‍था को त्‍यागकर मानवता को अपना लेगा.

    एक बात मेरी समझ में नहीं आती, श्रीमान मुहम्‍मद साहब के लिखे हुई बेसिर-पैर के ग्रंथ कुरान की तरह बहुत सी ऊल-जलूल बकवास तमाम हिंदू ग्रंथों में भी लिखी है. जैसा कि आपने कई बार लिखा है, यहूदियों के पुराने ग्रंथ तथा ईसाइयों की बाइबिल का पुराना टेस्‍टामेंट भी ऐसी मूर्खतापूर्ण और कहीं-कहीं बेहद अमानवीय और घृणा से भरी नीच बातों से भरा पड़ा है... मेरा सवाल यह है कि जब यह सारी कौमें अपने पूर्वजों द्वारा लिखी गई अमानवीय, नफरत फैलाने वाली
    , गलत और बेसिरपैर की बातों से किनारा कर चुके हैं और उन्‍हें सिर्फ रस्‍म अदायगी के लिए ही पढ़ते हुए अपना सारा ध्‍यान बेहतर पढ़ाई, तरक्‍की और नई-नई खोजें करने में लगे हुए हैं, तो आखिर मुस्लिमों के ऊपर ऐसा कौन सा नशा चढ़ा है कि वो इस बकवास को तिलांजलि देने के बजाय इसी से चिपके रहना चाहते हैं? किसी भी शहर में आप देखें मुस्लिम बस्तियां सबसे घटिया और गंदे हालात में होंगी, उनके बच्‍चे स्‍कूल तो कभी नहीं गए होंगे लेकिन मदरसे के मौलवी साहब से दीनी तालीम के बिना उन्‍हें मुस्लिम समझा ही नहीं जाता... आप देखें कि कोई हिन्‍दू बच्‍चा रामायण पढ़ने मंदिर के पंडित जी के पास नहीं जाता, फिर आखिर मुस्लिम क्‍यों इस बीमारी को चिपके रहना चाहते हैं जो उनका तो सर्वनाश कर ही रही है बाकी सारी दुनिया (खास तौर पर पश्चिमी देश) की नजरों में भी और अधिक खटकती जा रही है... एक सवाल और, फ्रांस में बुर्के पर पाबंदी लगाए जाने के बारे में आप जैसे काबिल और सुलझी हुई सोच वाले व्‍यक्ति के क्‍या विचार हैं यह जानना बेहद प्रासंगिक होगा....

    सादर एवं साभार -

    दिनेश प्रताप सिंह

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  2. मान्यवर,
    जो कुछ भी आप जानना चाहते हैं वह मेरे लेखों में निहित है.
    बुनयादी बात है कि मुसलामानों का दिरिढ़ विशवास कि ये दुन्या और इसके ऐश ओ आराम क्षण भंगुर हैं, ऊपर की दुन्या अर्थात जन्नत ही इंसान का स्थाई निवास है. बस इसी विशवास को ये जी रहे है. ये विशवास यहूदियों से मुहम्मद ने चुरा कर पूरी दुनिया की घुट्टी में मिला दिया है.
    मैं इस्लाम विरोधी होकर इस कौम का शुभ चिन्तक हूँ, इसका मतलब ये नहीं की मैं हिन्दू धर्म का समर्थक हूँ, मगर हाँ किसी ने एक बार मेरे ब्लाक पर मुझको राय दी थी " आप मुसलामानों के लिए ही काम करें तो बेहतर होगा, हिदुओं में समाज सुधारक बहुत हो चुके है." तब से मैं ने महसूस किया कि उनका एतराज़ ठीक ही है.
    इस्लाम के माध्यम से मेरा सन्देश सभी मानव जाति के लिए है.
    मैं दुन्या के तमाम धर्मों को 'चूहेदान" समझता हूँ, इससे निकल कर ही मानव सब प्राणियों के लिए शुभ शुभ ओच सकता है, इसमें रह कर नहीं.

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