Wednesday 20 April 2011

सूरह जिन्न ७२ -पारा २९

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और ताबासरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह जिन्न ७२ -पारा २९



मुझे हैरत होती है कि मुहम्मद के ज़माने में वह लोग थे जोकि कुरानी बकवासों को मुहम्मद का परेशान ख़याल कह कर दीवाने को फ़रामोश कर दिया करते थे. वह इस लग्वियात को मुहम्मद का जेहनी खलल मानते थे, ये बातें खुद कुरआन में मौजूद है, इस लिए कि मुहम्मद लोगों की तनक़ीद को भी क़ुरआनी फरमान का हिस्सा बनाए हुए हैं. वह लोग क़ुरआनी फ़रमूदात पर ऐसे ऐसे जुमले कसते कि अल्लाह की बोलती बंद हो जाया करती थी.
आज का इंसान उस ज़माने से कई गुना तालीम याफ्ता है,
जेहनी बलूगत भी लोगों की काफी बढ़ गई है,
तहकीकात और इन्केशाफत के कई बाब खुल चुके हैं,
फिर भी इन कुरानी लग्वियात को लोग अल्लाह का कलाम माने हुए हैं. और इस बात पर यकीन रक्खे हुए हैं.
जाहिल अवाम को मुआफ़ किया जा सकता है, मगर
कालेज के प्रोफ़ेसर, वोकला, जज और बुद्धि जीवी भी यक़ीन रखते हैं कि अल्लाह ने ही कुरआन को अपनी दानिश मंदी की शक्ल बख्शी .
अभी तक मुहम्मद उन लोगों को पकड़ कर अपनी पब्लिसिटी कराते थे जो बकौल उनके अल्लाह के रसूल हुवा करते थे. अब उतर आए हैं जिन्नों और भूतों के स्तर पर.



वह इस तरह मक्र को वह आयतें बनाते है - - -


आप कहिए कि मेरे पास इस बात की वह्यी आई है कि जिन्नात में से एक जमाअत ने कुरआन को सुना फिर उनहोंने कहा हमने एक अजीब कुरआन को सुना जो राहे रास्त बतलाता है सो हम तो ईमान ले आए और हम अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे."मुहम्मद कुरआन की डफली अब उस मखलूक से भी बजवा रहे हैं जो वहमों का वजूद है. जिन्न का वहम भी यहूदियों के मार्फ़त इस्लाम में आया है.


"और हमारे परवर दिगार की बड़ी शान है. इसने न किसी को बीवी बनाया न औलाद."उस शख्स को अल्लाह के वजूद का वहम अगर है और इंसानी दिल ओ दिमाग रखने वाला अल्लाह है तो इंसानी जिसामत उसमें क्यूं नहीं? उसकी बीवी और बच्चे भी होना चहिए.
इस के बार अक्स जिन्नों मलायक की इफ़रात से मौजूदगी बगैर जिन्स के कैसे मुमकिन है?

"और हम में जो अहमक हुए हैं वह अल्लाह की शान में बढ़ी हुई बात करते थे. और हमारा ख़याल था कि इंसान और जिन्नात कभी अल्लाह की शान में झूट बात न कहेंगे. और बहुत से लोग आदमियों में ऐसे थे कि वह जिन्नात में से बअजे लोगों की पनाह लिया करते थे, सो उन आदमियों ने इन जिन्नात लोगों की बाद दिमागी और बढ़ा दी."क्या कहना चाहा है उम्मी ने? इसे कठ बैठे मुल्ला ही समझें.


"और हमने आसमान की तलाशी लेना चाहा, सो हमने इसको सख्त पहरों और शोलों में भरा हुवा पाया. और हम आसमान के मौकों में सुनने के लिए जा बैठा करते थे, सो अब जो कोई सुनता है एक तैयार शोला पाता है.."अल्लाह को पोलिस बन कर अपने ही कायनात की तलाशी लेनी पड़ सकती है क्या?

कि किसी मुजरिम ने आसमान में शोले छुपा रक्खा था. साथ साथ पहरे भी सख्ती के साथ थे, फिर भी अल्लाह हो असगर (यानी शैतान) आसमान में कान लगाए बैठा रहता है कि वहां की कोई खबर मिल सके.. गरज उसके लिए तारे का बुर्ज बना दिया जो कि शोले के साथ उस का पीछा करता है. ये तमाम कहानियाँ गढ़ राखी हैं रसूल ने इसको मुहम्मदी उम्मत वजू करके और टोपी लगा कर पढ़ती है.



"और हम नहीं जानते कि ज़मीन वालों को कोई तकलीफ़ पहुँचाना मक़सूद है या उनके रब ने उनको हिदायत लेने का एक किस्सा फरमाया."ऐसे किस्सों से कुरआन भरा हुवा है, जिसे मुसलमान दिनों रात तिलावत करते हैं.




जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

7 comments:

  1. आपकी एक और अच्‍छी पोस्‍ट मोमिन जी.

    आप इतने नेक और पवित्र लक्ष्‍य की प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं मोमिन जी कि आपकी तारीफ के लिए मेरे पास सच में शब्‍द नहीं हैं, सोचिए कि पिछले 1400 सालों में आपके अलावा और किसी व्‍यक्ति ने भी इतनी जोरदार आवाज में इस नफरत से भरी जुनूनी और अंधी मानसिकता की खिलाफत करने और करोड़ों निर्दोष लोगों को जो बिना जाने समझे और बिना किसी गलती के इस के शिकार बने बैठे हैं, इससे मुक्ति दिलाने का प्रयास नहीं किया.

    यहां तक कि जो मुस्लिम सूफी संत और दरवेश आदि भी हुए जिन्‍होंने लोगों को ईश्‍वर तक पहुंचने का रास्‍ता प्रेम और सेवा में बताया, वे स्‍वयं भी पांच वक्‍त नमाज पढ़ने और बाकी इस्‍लामी कर्मकांडों का पालन करने से खुद को पता नहीं क्‍यों नहीं रोक पाए, हालांकि उनके ऐसा करने के पीछे की वजहों को जानना दिलचस्‍प होगा. लेकिन मेरे विचार से शायद उस समय मौजूद कट्टर मौ‍लवियों और ओलिमाओं तथा तानाशाह और जालिम मुस्लिम बादशाहों (जोकि खुद कट्टर मौ‍लवियों और ओलिमा के आगे झुकते या उनका राजनैतिक प्रयोग करते थे) से डरकर इन सूफी संतों ने भी मुहम्‍मद और कुरान के पन्‍नों में छुपी जहरीली मानसिकता के विरुद्ध खुलकर नहीं बोला और सिर्फ सबसे प्रेम, शांति और सद्भाव को ही ईश्‍वर प्राप्‍ति और मानव जीवन का अंतिम उद्देश्‍य बताते रहे.

    लेकिन उनके इस डर और सीधेपन का नतीजा यह निकला कि बड़ी संख्‍या में हिंदू श्रद्धालुओं ने तो उनको अपना आराध्‍य मानकर ईश्‍वर के काल्‍पनिक ही सही लेकिन प्रेम और करुणा से भरे रूप को ही सच मान लिया, लेकिन अधिकांश मुस्लिम उसी अंधेरे में फंसे रह गए क्‍योंकि उनके मौलवी और ओलिमा ने उन संतों को ही इस्‍लाम से बाहर घोषित कर दिया. विशेष तौर पर कबीर और शिरडी के सांई बाबा इसके ज्‍वलंत उदाहरण हैं.

    आप जो करना चाह रहे हैं मोमिन जी वह वास्‍तव में एक बेहद सच्‍चा, नेक और मानवीय प्रयास है. भले ही आप अपने शब्‍दों में ईश्‍वर में विश्‍वास न करते हों लेकिन आपको पढ़ते-पढ़ते इतना विश्‍वास मुझे हो चुका है कि आपके हृदय की भावनाओं में ईश्‍वर या खुदा अपने बेहद सच्‍चे और करुण स्‍वरूप में विद्यमान है चाहे आपको इसका आभास हो या न हो, और अगर मेरा ऐसा मानना सिर्फ मेरा भ्रम न होकर सच है तो विश्‍वास कीजिए उसके जिन बच्‍चों से उसे सबसे अधिक प्रेम होगा या उसकी बनाई इस दुनिया को बेहतर बनाने की उसके जिन बच्‍चों की कोशिशें उस ईश्‍वर या खुदा की आंखों में करुणा के आंसू ले आती होंगी उनमें सबसे ऊपर की लिस्‍ट में एक नाम आपका भी होगा.

    क्‍योंकि सूफियों, दरवेशों, कबीर, सांई बाबा आदि ने तो केवल वैयक्तिक रूप से बिना धर्म के किसी भेदभाव के सबको ईश्‍वर तक पहुंचने का रास्‍ता बताया... लेकिन वे सभी यह भूल गए कि ईश्‍वर के कुछ बच्‍चों पर अधिक श्रम किए जाने की आवश्‍यकता है जैसे एक शिक्षक अपेक्षाकृत कमजोर या भटके हुए बच्‍चों पर करता है ---- और वह जिम्‍मेदारी आपने उठाई है...


    साभार और सादर,

    दिनेश प्रताप सिंह

    ReplyDelete
  2. आपसे भरपूर स्‍नेह करने और आपको समस्‍त मानव जाति का एक सच्‍चा हमदर्द मानते हुए मैं आप पर कुछ अधिकार समझता हूँ मोमिन जी, और अगर आप यह अधिकार मुझे दें तो मैं आपके लक्ष्‍य की प्राप्ति के लिए कुछ विमर्श देना चाहता हूँ, आप उसे स्‍वीकार करें या न करें पूरी तरह आप पर निर्भर करता है और यदि आपको यह विमर्श ठीक न भी लगें तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है, आखिर यह सिर्फ विमर्श हैं आदेश नहीं.

    ईश्‍वर जैसी कोई परमशक्ति वास्‍तव में है या नहीं है, यदि है तो कैसी है या कैसी नहीं है न तो इस बारे में मुझ कोई ज्ञान है और अगर सच में वह 'परम' अर्थात् सभी आभासों से परे है, तो उसका संज्ञान लिया ही नहीं जा सकता ऐसा मेरा विश्‍वास है. लेकिन एक बात जो मैं स्‍पष्‍ट रूप से देखता व समझता हूँ, वह यह है कि मूलत: सामान्‍य मनुष्‍य अपनी संरचना में मन से एक कमजोर प्राणी है जो अपने जन्‍म से अपनी मृत्‍यु तक हर वक्‍त अनेकों भयों तथा कामनाओं के बीच झूलता रहता है... यह बात धरती के हर हिस्‍से, हर महाद्वीप, हर देश और हर प्रांत में सदियों-सदियों से जन्‍मते मनुष्‍यों पर पूरी तरह लागू होती है. इन्‍हीं भयों तथा कमजोरियों से कम से कम मानसिक तौर पर मुक्ति पाने के लिए ही ईश्‍वर की अवधारणा बनी, जिसमें यूं देखें तो कुछ भी बुराई नहीं है सिवाय इसके कि यह मनुष्‍य को एक काल्‍पनिक सहारा देती है. लेकिन सच पूछें तो मोमिन जी एक आम मनुष्‍य शुरू से ही इतनी मुसीबतों से घिरा रहा है कि इस काल्‍पनिक सहारे के बिना तो वह पागल ही हो जाए. आप कल्‍पना करें‍ कि कोई व्‍यक्ति अपने जीवन में हर ओर से कष्‍टों से घिरा हो, और अगर दिन में पांच मिनट किसी मूर्ति के सामने या अकेले में ही वह अपने मन का दु:ख किसी काल्‍पनिक परम शक्ति के सामने सुना दे तो भले ही उसकी जिंदगी में कुछ परिवर्तन न आए कम से कम उसे इतना सहारा मिल जाता है कि ईश्‍वर ने मेरी बात अवश्‍य ही सुन ली होगी और वह कुछ न कुछ राहत मुझे देगा ही. यहां तक ईश्‍वर की अवधारणा में विश्‍वास कीजिए कुछ भी बुरा नहीं है जहां तक वह एक प्रेम और स्‍नेह करने वाले, करुणाशील पिता जैसा प्रतीत होता है जो विश्‍वास दिलाता है कि तुम अपने जीवन में अच्‍छा करते रहे और मेहनत करते रहो, मैं तुम्‍हारे साथ खड़ा हूँ.... यह तो हुई आम मनुष्‍यों जिनकी संख्‍या हर धर्म और जाति में सबसे ज्‍यादा है, के ईश्‍वर की बात.....


    साभार और सादर,

    दिनेश प्रताप सिंह

    ReplyDelete
  3. दिक्‍कत तब शुरू होती है जब हर धर्म और काल में कुछ लोगों ने जो वास्‍तव में ईश्‍वर जैसी किसी शक्ति में बिल्‍कुल भी विश्‍वास नहीं करते थे और जिन्‍होंने इसे इन सामान्‍य मनुष्‍यों के मन की कमजोरी की निशानी समझ कर इस अवधारणा से अपना स्‍वार्थ सिद्ध करने की सोची. बस यहीं से शुरू हो गया तरह-तरह के कर्मकांडों, विधि-विधानों, नमाजों, रिवायतों और जबरदस्‍ती ईश्‍वर का आदेश बताते हुए मनमाने बयानों और नीच धारणाओं को लोगों के मस्तिष्‍क में भरने का और उन्‍हें मानसिक गुलाम बनाकर अपने नीच उद्देश्‍यों की पूर्ति करने का.... जो अलग-अलग धर्मों में जगह-जगह हुआ. इस तरह की तमाम गतिविधियों को अंजाम देने वालों में चर्च के पोप भी रहे हैं जिन्‍होंने सदियों तक ईसाइयों को अपने इशारों पर नचाया, ब्राह्मण भी रहे हैं जिन्‍होंने सैंकड़ों सालों तक हिंदुओं को अपने कब्‍जे में किए रखा, मुहम्‍मद और उसके बाद के मौलवी और ओलिमा तो खैर मुस्लिमों की 14 से भी अधिक पीढि़यों को लगभग पूरी तरह मानसिक गुलाम बनाने में पूरी तरह सफल रहकर ऐसी मिसाल बन गए हैं कि इनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता. और बाकी धर्मों जैसे यहूदियों आदि में भी ऐसे लोग रहे ही हैं जिनके बारे में मैं अधिक नहीं जानता लेकिन आप काफी बेहतर जानते हैं. यह बात भी गौर करने लायक है कि इन सभी धर्मों में तथा इन सभी जगहों पर उस सच्‍चे ईश्‍वर का झूठा और मनमाना चेहरा दिखाकर मासूम लोगों के दिमागों और जिंदगियों से खेलने वाले इन कमीने लोगों को उन देशों के राजाओं का पूरा-पूरा समर्थन प्राप्‍त होता था, क्‍योंकि मानसिक तौर पर गुलाम लोग, बादशाहों की आज्ञाकारी प्रजा बनने के लिए सबसे सही तत्‍व साबित होते थे, जो यह लोग बखूबी तैयार करते थे.


    साभार और सादर,

    दिनेश प्रताप सिंह

    ReplyDelete
  4. लेकिन आपके इस ब्‍लॉग तथा कुरान व हदीसों के बारे में और पढ़ने से मुझे इस सारे प्रकरण में सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण बात यह लगती है कि मुस्लिमों की बदकिस्‍मती यह रही कि उनके पूर्वजों के मनो‍मस्तिष्‍क से खेलने वाला तथा उनमें बहला कर, फुसला कर या फिर जबर्दस्‍ती तलवार का भय दिखा कर जहर भरने वाला मुहम्‍मद नाम का व्‍यक्ति चर्च के इन सभी पोप व मंदिरों के इन सभी ब्राह्मणों व महंतों से कहीं अधिक चालाक तथा मास्‍टरमाइंड था जिसने कुरान की आयतों की रचना बेहद बारीकी से एक विस्‍तृत तथा करीने से बनाए हुए मनोवैज्ञानिक जाल की तरह की जिसमें एक बार फंसने वाले या जिस पर एक बार विश्‍वास करने वाले व्‍यक्ति की इस जाल से बाहर निकलने की हर संभावित कोशिश की काट पहले से तैयार कर दी गई थी, और शायद यही वजह है कि जैसा आपने इस पोस्‍ट में लिखा है "कालेज के प्रोफ़ेसर, वोकला, जज और बुद्धि जीवी भी यक़ीन रखते हैं कि अल्लाह ने ही कुरआन को अपनी दानिश मंदी की शक्ल बख्शी", क्‍योंकि एक बार इस बेहद कायदे से बुने हुए मनोवैज्ञानिक जाल में फंसने के बाद इसमें से निकलना एक आम मनुष्‍य के लिए बेहद-बेहद मुश्किल हो जाता है, और आपकी तरह मजबूत इरादों वाले बेहद विरले लोग होते हैं मोमिन जी, नहीं तो पिछले 1400 सालों में आप जैसे कई लोग इस दुनिया में आ चुके होते और करोड़ों मुस्लिमों को अब तक इस जाल से मुक्ति दिला भी चुके होते. जैसा आपने कई बार कहा कि मुहम्‍मद अनपढ़ था, लेकिन कुरान की संरचना को देख कर पूरा पूरा अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह वाकई एक अत्‍यधिक शातिर व चालाक दिमाग का मालिक था जिसे मानव मनोविज्ञान तथा मनुष्‍य की स्‍वभावगत कमजोरियों तथा डर का जबर्दस्‍त ज्ञान था तभी वह ऐसे ग्रंथ की रचना कर सका.

    गौर तलब है कि जो बात मैं कह रहा हूँ वह बात लगभग सभी मौलवी तथा ओलिमा अच्‍छी तरह जानते हैं यहां तक कि जिन लोगों ने हदीसों आदि की रचना की वे भी इस बात का बखूबी संज्ञान रखते थे, लेकिन चूंकि वे लोग मुहम्‍मद के साथ रहते-रहते देख चुके थे कि उसने अपनी चालाकी से बुने इस जाल को दिखाकर फैलाए डर से कितना अकूत धन, संपत्ति, ताकत तथा रुतबा इकट्ठा कर लिया था, अत: उन सबने भी उन सब चीजों को पाने के लालच में इस जाल को काट कर सब मुस्लिमों को आजाद करने के बजाए इस जाल को हदीसों आदि के द्वारा और मजबूत करने का ही काम किया और ठीक मुहम्‍मद के नक्‍शे कदम पर चलते हुए आज तक मौज कर रहे हैं. यह तो रही मुहम्‍मद द्वारा बुने गए इस जाल की संरचना और इसकी बेहद बारीक और शक्तिशाली बुनावट को समझने की एक कोशिश. आज मुझे थोड़ा विलंब हो रहा है मोमिन जी इसके लिए क्षमा चाहता हूँ, मैं अगली प्रतिक्रियाओं में अपनी ओर से इस जाल में फंसे मजबूर और लाचार मुस्लिमों की तकलीफ को समझने और एक ऐसा रास्‍ता ढूंढने की चर्चा करूँगा जिसके माध्‍यम से इन मजबूर मुस्लिमों को बड़े स्‍तर पर, बड़ी संख्‍या में और प्रभावी रूप में इस जाल से मुक्ति का रास्‍ता दिखाया जा सके. अगर कोई ईश्‍वर है तो वे उसके भी उतने ही प्‍यारे बच्‍चे हैं जितना मैं हूँ, लेकिन वे बदकिस्‍मती से एक सुरंग में फंसे हैं तो मेरी ओर से पूरा प्रयास रहेगा कि आगे आने वाले समय में वे इससे मुक्‍त होकर उस ईश्‍वर के दिए जीवन को कम से कम प्रेमपूर्वक और शांतिपूर्वक जी तो सकें.

    साभार और सादर,

    दिनेश प्रताप सिंह

    ReplyDelete
  5. दिनेश साहब !
    अपने वजूद पर सवार ईश्वर को जब तक आप उतार नहीं फेकेंगे तब तक सत्य को नहीं पा सकेगे. कोई प्राणी ईश्वर की आराधना नहीं करता सिवाय इंसान के . ईश्वर है तो हुवा करे, हमें उसके होने न होने पर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए, न ही अपनी ऊर्जा.
    हमने हमेशा ईश्वर को अपने सामने पाया है. सृष्टी में जो कुछ आप देख रहे है, सब ईश्वर है. ईश्वर प्रशंशनीय और कभी कभी निंदनीय तो हो सकता है, मगर पूजनीय कभी नहीं हो सकता है.
    मुझ तक अल्लाह यार है मेरा, मेरे संग संग रहता है,
    तुम तक अल्लाह एक पहेली, बूझे और बुझाए हो.
    जहां से ईश्वर की आराधना शुरू होती है वहीँ से ईश्वर का क्रय-विक्रय शुरू होता है, यानी ओलिमा और पंडित का कारोबार.
    कोई ईश्वर ऐसा नहीं जो इंसान का कल्याण या अहित करता हो.
    अपने जीवन को शुद्ध करके मानव और दीगर प्राणी के लिए समर्पित रहिए, यही मानव धर्म है. इस धरती को सजाइए, संवारिए जो आने वाले आपके वारिसों को सुखी रखे. इसके लिए होई एक जीवन लक्ष बनाइए.
    सत्य को जितना पा सकेंगे, उतना अस्तित्व भर हीन होगा.

    ReplyDelete
  6. can you tell me the meaning of word 'harf'

    ReplyDelete