Sunday 12 December 2010

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

(पहली क़िस्त)

*इस्लाम इसके सिवा और कुछ भी नहीं क़ि यह एक अनपढ़ मुहम्मद की जिहालत है भरी, जालिमाना तहरीक है. आज इसके नुस्खे सड़ गल कर गलीज़ हो चुके हैं, इसी गलाज़त में पड़े हुए हैं ९९% मुसलमान.
*कुरान सरापा बेहूदा और झूट का पुलिंदा है.इतिहास की बद तरीन तस्नीफे-खुराफ़ात .
*मुहम्मद ने निहायत अय्यारी से कुरआन की रचना की है जिसकी ज़िम्मेदारी अल्लाह पर रख कर खुद अलग बैठे तमाश बीन बने रहते हैं.
*मुहम्मद एक कठमुल्ले थे जिसका सुबूत उनकी हदीसें हैं.
*कुरआन की हर आयत मुसलामानों की शह रग पर चिपकी जोंक की तरह उनका खून चूस रही हैं.
*वह जब तक कुरआन से मुंह नहीं फेरता, और उसके फ़रमान से बगावत नहीं करता, इस दुनिया में पसमान्दा कौम के शक्ल में रहेगा और दीगर कौमो का सेवक बना रहेगा.
*कुरआन के फायदे मक्कार ओलिमा गढ़े हुए हैं जो महेज़ इसके सहारे गुज़ारा करते हैं और आली जनाब भी बने रहते हैं..
*मुसलामानों! इन ओलिमा से उतनी ही दूरी कायम करो जितनी दूरी सुवरों से रखते हो. यही तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन हैं।


सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख्स से लिखवाई है. इसे पढने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. इस बात का हराम जादे इस्लामी आलिमों को खूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोलने की क़सम जो खा रखी है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.लीजिए क़ुरआनी खुराफ़ात हाज़िर है. - - -"तासिम"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-१)
ये लफ्ज़ मोह्मिल है अर्थात अर्थ हीन. इसका मतलब अल्लाह ही जनता है और हम जन साधारण क़ुरआनी अल्लाह को अब तक खूब जान चुके हैं. ये मुहम्मद का फरेब है."ये किताब की आयतें हैं"सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-२)अल्लाह अपने ही फरमान में कहता है "ये किताब की आयतें हैं" जैसे किताब के बारे में कोई दूसरा बतला रहा हो. ये मुहम्मद ही है जो कुरआन में झूट बोल रहे हैं."हम आपको मूसा और फिरौन का कुछ क़िस्सा पढ़ कर सुनाते हैं. उन लोगों के लिए जो ईमान रखते हैं."सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३)अल्लाह को भी क़िस्सा पढ़ कर सुनाने की ज़रुरत है क्या? उसने जो देखा है या जो भी उसे याद है, क्या उसको ज़बानी नहीं बतला सकता? पढ़ कर तो कोई दूसरा ही सुनाएगा. अल्लाह कहाँ पढ़ कर सुना रहा है ? मुहम्मद अनपढ़ हैं, वह पढ़ कर सुना नहीं सकते, इस आयत की हुलिया कहाँ बनी? ऐसी गैर फितरी बात उम्मी मुहम्मद ही कह सकते है. कुरआन के हर जुमले फितरी सच्चाई से परे हैं. मुहम्मद के झूट को आलिमों ने परदे में रखकर मुसलामानों को गुमराह किया है.
"फिरौन सर ज़मीन पर बहुत बढ़ चढ़ गया था और उसने वहां के बाशिंदों को मुख्तलिफ किस्में कर रखा था कि उसने एक जमाअत का ज़ोर घटा रक्खा था. उनके बेटों को जिबह कराता था और उनकी औरतों को जिंदा रहने देता था''सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४)सर ज़मीन, इस धरती के किसी मखसूस हिस्से को कहा जाता है, अपनी खासियत के साथ. मुहम्मद पढ़े लिखों की नक्ल करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं.
ये तौरेत की जग-जाहिर कहानी है जिसे उम्मियत में डूबे मुहम्मद अपने अल्लाह का कलाम बतला रहे हैं.

फिरौन के मज़ालिम बनी इस्राईल पर बढ़ते ही चले जा रहे थे. वह फिरौन के बंधक जैसे हो गए थे. किसी नजूमी की पेशीन गोई के तहत कि फिरौन को पामाल करने वाला कोई इसरईली बच्चा पैदा होने वाला है, वह तमाम इस्रईली बच्चों को जन्म लेते ही मरवा दिया करता था और लड़कियों को जिंदा रहने दिया करता था. इन्ही हालत में मूसा पैदा हुआ. इसकी बेक़रार माँ को अल्लाह ने हुक्म दिया कि इसे दूध पिलाओ और जासूसों का खतरा महसूस करो, फिर बगैर खौफ ओ खतर इसे दर्याए नील में डाल दो. जब खतरा महसूस हुवा तो उसकी माँ ने दिल पर पत्थर रख कर मूसा को संदूक में डाल कर, उसे दर्याए नील के हवाले कर दिया. दूसरे दिन माँ बेचैन हुई और बेटे की खैर ओ खबर और सुराग लेने के लिए उसकी बहेन को आस पास भेजा''संदूक में बच्चे की खबर फिरौन के जासूसों को लग चुकी है. बच्चा उठा कर महेल के हवाले कर दिया गया है. बादशाह की मलका आसिया को बच्चा बहुत अच्छा लगा और इसने इसकी जान बख्शुआ कर उसे अपना लिया. ''"मूसा की बहेन ने अपनी माँ को आकर ये खुश खबर दी. अल्लाह ने दूध पिलाइयों की बंदिश कर रखी थी, सो हुवा यूँ के मूसा की परवरिश के लिए खादिम के तौर पर इसकी माँ ही मिली . इस तरह अल्लाह ने अपना वादा पूरा किया जो मूसा की माँ से किया था. इसकी आँखें मूसा को देखकर ठंडी हुईं. गरज ये कि मूसा की जान बची. शाही महेल की सहूलतों के साथ साथ उसे माँ की देख भाल मिली. अल्लाह ने मूसा को इल्म ओ हुनर से नवाज़ा था."सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-५-१४)
''मूसा जब जवानी की दहलीज़ पर पहुँचा तो एक रोज़ शहर से निकल कर पास की बस्ती में घूमता हुवा चला गया, रात का वक़्त था सब सो रहे थे, इसने देखा कि दो आदमी झगड़ रहे हैं जिसमें से एक इस्रईली था उसके ही कौम का, जिसने इससे मदद मांगी और दूसरा मिसरी था. मूसा ने अपने हम कौम की ऐसी मदद की कि एक ही घूँसे में मिसरी का काम तमाम हो गया. वह वहाँ से चुप चाप खिसक लिया मगर बाद में इसको इस बात का बड़ा रंज रहा. दूसरे दिन मूसा ने देखा वही इस्रईली बन्दा एक दूसरे मिसरी से हाथा-पाई कर रहा था और मूसा को देख कर फिर मदद की गुहार लगाई. मूसा इसके पास पहुँचा तो, मगर घूँसा ताना इस्रईली पर. ये देखकर इस्राईली चीख पुकार करने लगा - - -"

''तू मुझे भी मार डालना चाहता है जैसे कल एक मिसरी को क़त्ल कर दिया था, तू अपनी ताक़त जमाना चाहता है, मेल मिलाप से नहीं रह सकता? "
इस तरह कल हुए क़त्ल के कातिल का पता लोगों को चल गया और इसकी खबर दरबार तक पहंच गई, बस कि मूसा की शामत आ गई.
एक शख्स मूसा के पास आया और खबर दी की भागो, मौत तुम्हारा पीछा कर रही है, दरबारी तुम्हें गिरफ्तार करने आ रहे हैं. मूसा सर पर पैर रख कर भागता है. भागते भागते वह मुदीन नाम की बस्ती तक पहुँच जाता है, गाँव के बाहर पेड़ के साए में बैठ कर वह अपनी सासें थामने लगता है. कुछ देर बाद देखता है कुछ लोग एक कुँए पर लोगों को पानी पिला रहे हैं और वहीँ दो लड़कियां अपनी बकरियों को पानी पिला ने के लिए इंतज़ार में खड़ी हुई हैं, वह उठता है और कुँए से पानी खींच कर बकरियों की प्यास बुझा देता है.
थका मांदा मूसा एक दरख़्त के से में बैठ जाता है और
अल्लाह से दुआ मांगता है - -''ऐ अल्लाह जो नेमत भी तू मुझे भेज दे मैं इसका तलबगार हूँ."सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-१५-२४)''मूसा की दुआ पलक झपकते ही कुबूल होती है. उसने जब आँखें खोलीं तो देखा कि एक नाज़ुक अंदाम दोशीजा सामने से खिरामाँ खिरामाँ चली आ रही है. ये उनमें से ही एक थी जिनकी बकरियों को मूसा ने पानी पिलाया था. करीब आकर उसने कहा - - -
अजनबी तुम से मेरे वालिद बुजुर्गवार मिलना चाहते हैं, अगर तुम मेरे साथ चलो?
मूसा लड़की के हमराह उसके बाप की खिदमत में पेश होता है. और उसको अपना हमदर्द पाकर पूरी रूदाद सुनाता है और (बुड्ढा बाप) कहता है. अच्छा हुआ तुम जालिमो से बच कर आ गए.
लड़की बाप को मशविरा देती है कि अब आप बूढ़े हो गए हैं, आपको एक ताक़त वर और अमानत दार इंसान की ज़रुरत है, बेहतर होगा कि आप मूसा को अपनी मुलाजमत में ले लें
लड़की का बूढा बाप उसकी बात मान जाता है और मूसा के सामने पेशकश रखता है कि वह इन दोनों बेटियों में से किसी एक के साथ शादी करले, इस शर्त के साथ कि वह दस साल तक घर जंवाई बन कर रहेगा, जिसे मूसा मान जाता है. वह तवील मुद्दत देखते ही देखते ख़त्म हो जाती है और वह वक़्त भी आ जाता है कि मूसा अपने बाल बच्चों को लेकर मिस्र के लिए कूच करता है .
मूसा सफ़र में था और रात का वक़्त कि इसने कोहे तूर पर एक रौशनी देखी, वह इसकी तरफ खिंच गया, अपने घर वालों से ये कहता हुवा कि तुम यहीं रुको मैं आग लेकर आता हूँ. वहीँ पर अल्लाह इसको अपना पैगम्बर चुन लेता है.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-२५-३०)
इस मौक़े पर मुहाविरा है कि "मूसा गए आग लेने और मिल गई पैगम्बरी"अल्लाह फिरौन की सरकूबी के लिए मूसा को दो मुआज्ज़े देता है, पहला उसकी लाठी का सांप बन जाना और दूसरा यदे-बैज़ा(हाथ की गदेली पर अंडे की शक्ल का निशान) और मूसा के इसरार पर उसके भाई हारुन को उसके साथ का देना क्यूंकि मूसा की ज़ुबान में लुक्नत थी.
ये दोनों फिरौन के दरबार में पहुँच कर उसको हक की दावत देते हैं (यानी इस्लाम की) और अपने मुअज्ज़े दिखलाते हैं जिस से वह मुतासिर नहीं होता और कहता है यह तो निरा जादू के खेल है. फिर भी नए अल्लाह में कुछ दम पाता है. फिरौन अपने वजीर हामान को हुक्म देता है कि एक निहायत पुख्ता और बुलंद इमारत की तामीर की जाए कि इस पर चढ़ कर मूसा के इस नए (इस्लामी) अल्लाह की झलक देखी जाए.

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३१-३८)
अल्लाह इसके आगे अपनी अजमत, ताक़त और हिकमत की बखान में किसी अहमक की तरह लग जाता है और अपने रसूल मुहम्मद की शहादत ओ गवाही में पड़ जाता है और मूसा के किससे को भूल जता है. आगे की आयतें कुरानी खिचड़ी वास्ते इबादत हैं.सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-३९-८८)
सवाल ये उठता है की क्या मूसा और सुलेमान जैसे सरबराहों के क़िस्से और कहानियां हम अपनी नमाज़ों में दोराते हैं? ये आल्लाह बने मुहम्मद का हुक्म है? इससे तो बेहतर है हम तकली से रस्सियाँ बात कर दुन्या को कुछ दें.याद रहे कुरान किसी अल्लाह का कलाम नहीं है, मुहम्मद की वज्दानी कैफियत है, जेहालत है और खुराफाती बकवास है.
मैंने महसूस किया है कि कुरान की दो सूरतें किसी दूसरे ने लिखी है जो तालीम याफ्ता और संजीदा रहा होगा, मुहम्मद ने इसको कुरान में शामिल कर लिया. इस सिलसिले में सूरह क़सस पहली है, दूसरी आगे आएगी. इसे कारी आसानी से महसूस कर सकते हैं. किस्साए मूसा और किस्साए सुलेमान में आसानी से ये फर्क महसूस किया जा सकता है. इस सूरह में न क़वायद की लग्ज़िशें हैं न ख्याल की बेराह रावी.
देखें इस सूरह क़सस की कुछ आयतें जो खुद साबित करती है कि यस उम्मी मुहम्मद की नहीं, बल्कि किसी ख्वान्दा की हैं. - - -
"और हम रसूल न भी भेजते अगर ये बात न होती कि उन पर उनके किरदार के सबब कोई मुसीबत नाजिल हुई होती, तो ये कहने लगते ऐ हमारे परवर दिगार कि आपने हमारे पास कोई पैगम्बर क्यूं नहीं भेजा ताकि हम आप के एहकाम की पैरवी करते और ईमान लाने वालों में होते."
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४७)

''सो जब हमारी तरफ से उन लोगों के पास अमर ऐ हक पहुँचा तो कहने लगे कि उनको ऐसी किताब क्यूँ न मिली जैसे मूसा को मिली थी. क्या जो किताब मूसा को मिली थी तो क्या उस वक़्त ये उनके मुनकिर नहीं हुए? ये लोग तो यूं ही कहते हैं दोनों जादू हैं. जो एक दूसरे के मुवाफिक हैं और यूँ भी कहते हैं कि हम दोनों में से किसी को नहीं मानते तो आप कह दीजिए कि तुम कोई और किताब अल्लाह के पास से ले आओ.जो हिदायत करने वालों में इन से बेहतर हो, मैं उसी की पैरवी करने लगूँगा, अगर तुम सच्चे हुए"सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-४८-४९)''ऐ अल्लाह जो नेमत भी तू मुझे भेज दे मैं इसका तलबगार हूँ."

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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