Sunday, 12 December 2010

सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी

'' हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी'' का है,

हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,

तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा

(दूसरी क़िस्त)




कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ तो हम नफ़रत का पाठ पढाने वालों को सम्मान देकर सर आँखों पर बिठाते हैं, उनकी मदद सरकारी कोष से करते हैं, उनके हक में हमारा कानून भी है, मगर जब उनके पढे पाठों का रद्दे अमल (प्रतिक्रिया) होता है तो उनको अपराधी ठहराते हैं. ये हमारे मुल्क और क़ौम का दोहरा मेयार है. धर्म अड्डों और गुरुओं को खुली छूट कि वोह किसी भी अधर्मी और विधर्मी को एलान्या गालियाँ देता रहे भले ही सामने वाला विशुद्ध मानव मात्र हो या योग्य कर्मठ पुरुष हो अथवा चिन्तक नास्तिक हो. इनको कोई अधिकार नहीं की यह अपनी मान हानि का दावा कर सकें. मगर उन मठाधिकारियों को अपने छल बल के साथ न्याय का सन्रक्षन मिला हुवा है. ऐसे संगठन, और संसथान धर्म के नाम पर लाखों के वारे न्यारे करते हैं, अय्याशियों के अड्डे होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए देश को खोखला करते हैं.
इन्हीं के साथ साथ हमारे मुल्क में एक कौम है मुसलमानों की जिसको दुनयावी दौलत से ज़्यादः आसमानी दौलत यानी स्वर्ग लोक की चाह है. यह बात उन के दिलो दिमाग में सदियों से इस्लामी ओलिमा (धर्म गुरु) भर रहे हैं, जिनका ज़रीआ मुआश (भरण-पोषण) इस्लाम प्रचार है. हिंदुत्व की तरह ये भी हैं. मगर इनका पुख्ता माफिया बना है. इनकी भेड़ें न सर उठा सकती हैं न कोई इन्हें चुरा सकता है. बागियों को फतवा की तौक़ पहना कर बेयारो-मददगार कर दिया जाता है. कहने को हिदू बहु-संख्यक भारत में हैं मगर क्षमा करें धन लोभ और धर्म पाखण्ड ने उनको कायर बना रखा है, १०% मुस्लमान उन पर भारी है, तभी तो गाँव गाँव, शहर शहर मदरसे खुले हुए हैं जहाँ तालिबानी की तलब और अलकायदा के कायदे बच्चों को पढाए जाते हैं. भारत में जहाँ एक ओर पाखंडियों, और लोभियों की खेती फल फूल रही है वहीँ दूसरी और तालिबानियों और अल्कादियों की फसल तैयार हो रही है..सियासत दान देश के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में बद मस्त हैं. उनको मालूम नहीं कि इतिहास उनको किस रूप में बदलेगा.
क्या दुन्या के मान चित्र पर कभी कोई भारत था? क्या आज कहीं को भारत है? धर्म और मज़हब की अफीम खाए हुए, लोभ और अमानवीय मूल्यों को मूल्य बनाए हुए, क्या हम कहीं से देश भक्त भारतीय भी हैं? नकली नारे लगाते हुए, ढोंग का परिधान धारण किए हुए, हम केवल स्वार्थी ''मैं'' हूँ. हम तो मलेशिया, इंडोनेशिया तक भारत थे, थाई लैंड, बर्मा, श्री लंका और काबुल कंधार तक भारत थे. कहाँ चला गया भारत? अगर यही हाल रहा तो पता नहीं कहाँ जाने वाला है भारत. भारत को भारत बनाना है तो अतीत को दफ़्न करके वर्तमान को संवारना होगा, धर्म और मज़हब की गलाज़त को कोडों से साफ़ करना होगा. मेहनत कश अवाम को भारत का हिस्सा देना होगा न कि गरीबी रेखा के पार रखना और कहते रहना की रूपिए का पंद्रह पैसा ही गरीबों तक पहुँच पाता है.

सूरह क़सस मुहम्मद ने किसी पढ़े लिखे संजीदा शख्स से लिखवाई है. इसे पढने के बाद आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हराम ज़ादे आलिमों को खूब पता है मगर उन्हों ने सच न बोल्लने की क़सम जो खा राखी है. न सच बोलेंगे, न सच सुनेंगे और न सच महसूस करेंगे.
लीजिए महसूस कीजिए गैर अल्लाह के कुरआन को, मगर हाँ! क़ि इस मुजरिम ने मुहम्मद की उम्मियत की इस्लाह की है, कलम में मुहम्मद का हम सर ही है - - -
"आप जिसको चाहें हिदायत नहीं कर सकते बल्कि अल्लाह ही जिसको चाहे हिदायत कर देता है और हिदायत पाने वालों का इल्म उसी को है."सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-56)
यानी कि अल्लाह नहीं चाहता कि लोग इस्लाम को क़ुबूल करें मगर जिसको बेवकूफ समझता है उसको ही चुनता है। बक़ौल जोश मलीहाबादी - - -


जिसको अल्लाह हिमाक़त की सज़ा देता है।

उसको बेरूह नमाज़ों में लगा देता है।


''और हम बहुत सी ऐसी बस्तियाँ हलाक कर चुके हैं जो अपने सामाने ऐश पर नाज़ां थे सो ये उनके घर हैं कि उनके बाद आबाद ही न हुए मगर थोड़ी देर के लिए और आखिर कार हम ही मालिक रहे और आप का रब बस्तियों को हलक नहीं किया करता जब तक कि सदर मुकाम में किसी पैगम्बर को न भेज ले कि वह इन लोगों को हमारी आयतें पढ़ पढ़ कर सुनाए. और हम उन बस्तियों को हलाक नहीं करते मगर इस हालत में कि वहाँ के बाशिंदे बहुत ही शरारत न करने लगें"
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (आयत-५८-५९)
अव्वल कार अल्लाह गाफ़िल रहा कि''आखिर कार हम ही मालिक रहे '' क्या मुहम्मदी अल्लाह गाफिल भी हुवा करता है कि लोगों को मनमानी करने की छूट दे ताकि उसको अपने बन्दों को सज़ा देने का मज़ा भी मिले. वह ज़ालिम नहीं है, अल्लाह पहले बस्तियों के सदर मुक़ाम पर ''मुहम्मादों'' को भेजता रहता है कि उनकी किताब पढ़े जो लाल बुझक्कड़ की पोथी है .
"और जिस दिन काफिरों से पूछा जाएगा कि तुमने पैगम्बरों को क्या जवाब die ? सो उस रोज़ उनसे सारे मज़मून गुम हो जाएँगे सो वह लोग आपस में पूछ ताछ भी न कर सकेगे, अलबत्ता जो शख्स तौबा कर ले और ईमान ले आए तो ऐसे लोग उम्मीद है कि फलाह पाने पाने वालों में से होंगे ."सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (६६-६७)

देखिए कि टुच्चा मुहम्मदी अल्लाह बन्दों की कैसी घेरा बंदी करता है. मुसलमानों ''नहीं'' करना भी सीखो ऐसे अल्लाह को दो लात रसीद करो.

"और कहें कि भला ये तो बताओ कि अल्लाह तुम पर हमेशा के लिए रात ही रहने दे तो वह अल्लाह के सिवा कौन सा माबूद है जो रौशनी ले आए? तो क्या तुम सुनते नहीं? और भला ये तो बताओ कि अगर अल्लाह तअला तुम पर क़यामत तक के लिए दिन ही रहने दे तो उसके सिवा तुम्हारा कौन सा माबूद है जो रात ले आए? जिसमें तुम आराम पाओ? क्या तुम देखते नहीं? और उसने अपनी रहमत से तुम्हारे लिए दिन और रात बनाया ताकि तुम रात में आराम करो और दिन में उसकी रोज़ी तलाश करो और ताकि दोनों पर तुम शुक्र करो.सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (७१-७३)

मुहम्मद की इन्हीं दलीलों में फँस कर आज मुसलमान दूसरी कौमों की नज़र में अजीब ओ गरीब मख्लूक़ बना हुवा है.दुश्मने इंसानियत ओलिमा और उनकी सोच की दीगर कौमें चाहती है कि मुसलमान इसी अँधेरे में पड़े रहें और उनको अपने मजदूरों के लिए ऐसे नाक्बत अंदेशों (अदूर दरशी)की ज़रुरत है,

''कारून मूसा की बिरादरी में से था सो वह उन लोगों से तकब्बुर करने लगा और हमने उसको इस क़दर खजाने दिए थे कि उनकी कुंजियाँ कई कई ज़ोर आवर शख्सों को गराँ बार कर देतीं, जब कि उसको उसकी बिरादरी ने कहा कि तू इस पर इतरा मत, वाकई अल्लाह तअला इतराने वालों को पसंद नहीं करता - - - और जिस तरह अल्लाह तअला ने तेरे साथ एहसान किया है, तू भी एहसान कर. दुन्या में फसाद का ख्वाहाँ मत हो, बेशक अल्लाह तअला फसाद को पसंद नहीं करता. करून कहने लगा मुझको तो मेरी ज़ाती हुनर मंदी से मिला है. क्या इसने ये न जाना कि अल्लाह तअला इससे पहले गुज़श्ता उम्मतों में से ऐसे ऐसों हलाक कर चुका है जो कूवत में इससे कहीं बढे चढ़े थे और माल भी ज्यादह था. और अहले जुर्म से उनके गुनाहों का सवाल न करना पड़ेगा (?) फिर वह अपनी आराइश से अपनी बिरादरी के सामने निकला जो लोग दुया के तालिब थे, कहने लगे क्या खूब होता कि हमको भी वह साज़ो सामान मिला होता जैसा कि कारून को मिला है, वाकई वह वह बड़ा साहिबे नसीब है. और जिन लोगों को फहेम अता हुई थी वह कहने लगे, अरे तुम्हारा नास हो अल्लाह तअला के घर का सवाब इससे हज़ार दर्जा बेहतर है जो ऐसे लोगों को मिलता है कि ईमान लाए और नेक अमल करे. . . फिर हमने कारून को और इसके महेल सरा को ज़मीन में धंसा दिया. सो कोई ऐसी जमाअत न हुई जो इसको अल्लाह के अजाब से बचा लेती और कल जो लोग इस जैसे होने की तमन्ना रखते थे, वह आज कहने लगे बस जी यूँ मालूम होता है कि अल्लाह जिसको चाहे ज़्यादः रोज़ी देदेता है और तंगी से देने लगता है. अगर हम पर अल्लाह की मेहरबानी न होती तो हम को भी धँसा देता.
सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (७४-८२)
अल्लाह सिर्फ एक कुंजी कारून के खजाने के लिए क्यूं नहीं दीं कि वह सब कुछ कर सकता है . कारून के खजाने की चाभियाँ इतनी थीं कि जोर आवारो से उठाए न उठतीं तो वह अपने तालों की पहचान कैसे रखती थीं? कई कई ज़ोर आवर शख्सों को गराँ बार कर देतीं, ''खुलजा सिम सिम'' का फ़ॉर्मूला भी उसके पास न था? मुसलामानों! अपने दिमाग का तालों अपनी हिस की कुंजी से खोलो।
अल्लाह क़ारूनो को इस क़दर दौलत क्या उन्हें इतराने के लिए देता है? दौलत देना अल्लाह के बस है और इतराना दौलत मंदों के बस का? कैसी डबुल स्टैंडर्ड बातें हैं कुरान में?ऐसी आयतें ही मुसलमानों को पस्मंदगी की तरफ खींचती हैं जो क़नाअत पसंदी को ओढ़ते बिछाते हैं और अपनी तरक्क़ी के तमाम दर्जे अपने पर बंद कर लेते हैं.''ये आलमे आखिरत हम उन ही लोगों के लिए खास करते हैं जो दुन्या में न बड़ा बनना चाहते हैं और न फसाद करना. और नेक नतीजा मुत्तकी लोगों को मिलता है. जो शख्स नेकी करके आएगा उसको इस से बेहतर नतीजा मिलेगा, और जो शख्स बदी करके आवेगा, सो ऐसे लोगों को जो बदी का काम करते हैं, इतना ही बदला मिलेगा. जितना वह बदी करते थे.''सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (८३)
''ये आलमे आखिरत हम उन ही लोगों के लिए खास करते हैं जो दुन्या में न बड़ा बनना चाहते हैं''यह ज़हर मुसलामानों के ईमान में रच बस कर उनको खोखला किए हुए है. दुसरे उनको मातहत और मजबूर किए हुए, उन्हें अपने ईमान पर कायम रहने पर आमादः किए हुए हैं, इनके लिए ईमान की फैक्ट्री (मदरसे) लगाए हुए हैं. ''जिस खुदा ने आप पर कुरआन के एहकाम पर अमल और इसकी तबलीग को फ़र्ज़ किया है, वह आप को (आपके) असली वतन (यानी मक्का) फिर पहुंचाएगा. आप (इनसे) फरमा दीजिए कि मेरा रब खूब जनता है कि (अल्लाह की तरफ़ से) कौन सच्चा दीन लेकर आया है. और कौन सरीह गुमराही में (मुब्तिला) है. और आप को (अपने नबी होने के क़ब्ल)ये तावक्को न थी कि आप पर ये किताब नाज़िल हो जाएगी. मगर महेज़ आपके रब की मेहरबानी से इसका नुज़ूल हुवा. सो आप उन काफिरों की ज़रा भी ताईद न कीजिए. जब अल्लाह के एहकाम आप पर नाज़िल हो चुके तो ऐसा न होने पाए (जैसा अब तक भी नहीं होने पाया) कि ये लोग आपको इन एहकाम से रोक दें. और आप (बदस्तूर) अपने (रब के दीन) की तरफ़ लोगों को बुलाते रहिए. और इन मुशरिकों में शामिल न होइए. और जिस तरह (अब तक शिर्क से मासूम हैं इसी तरह आइन्दा भी) अल्लाह के साथ किसी माबूद को न पुकारना. इसके सिवा कोई माबूद होने के काबिल नहीं. (इस लिए कि) सब चीज़ें फ़ना होने वाली हैं. बजुज़ उसके ज़ात की, उसी की हुकूमत है.''सूरह क़सस २८- २० वाँ पारा (८४-८७)मुहम्मद की गढ़ी हों या मुहम्मद के किसी किराए के टट्टू ने इनको सलीका बतलाते हुए इस आयत को बतौर नमूना गढ़ा हो, देखना ये है की कुरआन की बातों में कोई दम भी है? मुस्लमान इन कुरानी आयतों में सदियों से अटके हुए हैं. मुसलमान आकबत के फरेब में इस तरह गर्क है कि उसे अपना उरूज समझ में ही नहीं आता. आकबत का नशा उसे आँख ही नहीं खोलने देता, कि वह दुनिया में सुर्खुरू हो सके. मुहम्मदी अल्लाह बार बार हिदायत करता है इस दुन्या का हासिल छलावा है, उस दुन्या को हासिल करो. खुद मुहम्मद इस दुन्या को इस क़दर हासिल किए हुए थे कि हर जंग के माले गनीमत में २०% अल्लाह और उसके रसूल का हिस्सा रहता. ये कमबख्त आलिमान इस्लाम किस्सा गढ़े हुए हैं कि उनके मरने पर चंद दीनारें उनकी विरासत निकली.
ब्रेकेट की बंद बातें बन्दों की है जो कि मुहम्मद के अल्लाह के यार ओ मददगार हैं.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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