Friday 12 August 2011

सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह निसाँअ ४ चौथा पारा
छटवीं किस्त

"मुनाफिक जब नमाज़ को खड़े होते हैं तो बहुत काहिली के साथ खड़े होते हैं, सिर्फ आदमियों को दिखाने के लिए और अल्लाह का ज़िक्र भी नहीं करते, मुअल्लक़(टंगे हुए)हैं दोनों के दरमियाँ। न इधर के, न उधर के. जिन को अल्लाह गुमराही में डाल दे, ऐसे शख्स के लिए कोई सबील(उपाय) न पाओ गे।" सूरह निसाँअ पाँचवाँ पारा- आयात (144) मुजरिम तो मुहम्मदी अल्लाह हुवा जो नमाजियों को गुमराह किए हुए है और ना हक़ ही बन्दों के सर इल्जाम रखा जा रहा है कि मुनाफ़िक़ और काहिल हैं।
"जो लोग कुफ्र करते हैं अल्लाह के साथ और उसके रसूल के साथ वोह चाहते हैं फर्क रखें अल्लाह और उसके रसूल के दरम्यान, और कहते हैं हम बअजों पर तो ईमान लाते हैं और बअजों के मुनकिर हैं और चाहते हैं बैन बैन(अलग-अलग) राह तजवीज़ करें, ऐसे लोग यकीनन काफिर हैं।" सूरह निसाँअ छटवां पारा- (युहिब्बुल्लाह) आयात (151) जनाब! नमाज़ एक ऐसी बला है जिसमें नियत बांधते ही जेहन मुअल्लक़ हो जाता है, अल्लाह का नाम लेकर दुन्या दारी में. इसकी गवाही एक ईमानदार मुसलमान दे सकता है. खुद मुहम्मद को तमाम कुरानी और हदीसी खुराफात नमाजों में ही सूझती थीं मदीने में अक्सरीयत जनता मुहम्मद को अन्दर से उस वक्त तक पसंद नहीं करती थी मगर चूँकि चारो तरफ इस्लामी हुकूमतें कायम हो चुकी थी और मदीने पर भी, इस लिए मर्कज़ियत (केंद्र)तो उनको हासिल ही थी. फिर भी थे नापसंदीदा ही. कैसे बे शर्मी के साथ अल्लाह की तरह खुद को मनवा रहे हैं. आज उनका तरीका ही उनके चमचे आलिमान दीन अपनाए हुए हैं. मुसलमानों! बेदारी लाओ। नूह, मूसा, ईसा जैसे मशहूर नबियों के सफ में शामिल करने के लिए मुहम्मद एहतेजाज (विरोध) करते हैं कि लोग उनको भी उनकी ही तरह क्यूँ तस्लीम नहीं करते. वोह उनको काफिर कहते हैं और उनका अल्लाह भी. मुहम्मद अपनी ज़िन्दगी में ही सोलह आना अपनी मनमानी देखना चाहते हैं जो कि उमूमन ढोंगियों के मरने के बाद होता है. इन्हें कतई गवारा नहीं की कोई इनकी राय में दख्ल अंदाज़ करे जो उनकी रसालत पर असर अंदाज़ हो. लोगों को अपनी इन्फ्रादियत (व्यक्तिगतत्व) भी अज़ीज़ होती है, इसलाम में निफ़ाक़ (विरोध) की खास वजह यही है। यह सिलसिला मुहम्मद के ज़माने से शुरू हुवा तो आज तक जरी है। इसी तरह उस वक़्त अल्लाह की हस्ती को तस्लीम करते हुए, मुहम्मद की ज़ात को एक मुक़ररर हद में रहने की बात पर हजरत बिफर जाते हैं और बमुश्किल तमाम बने हुए मुसलमानों को काफिर कहने लगते हैं
" आप से अहले किताब यह दरख्वास्त करते हैं कि आप उनके पास एक खास नविश्ता (लिखी हुई) किताब आसमान से मंगा दें, सो उन्हों ने मूसा से इस से भी बड़ी दरख्वास्त की थी और कहा था कि हम को अल्लाह ताला को खुल्लम खुल्ला दिखला दो। उनकी गुस्ताखी के सबब उन पर कड़क बिजली आ पड़ी। फिर उन्हों ने गोशाला तजवीज़ किया था, इस के बाद बहुत से दलायल उनके पास पहुँच चुके थे.फिर हम ने उसे दर गुज़र कर दिया था, और मूसा को हम ने बहुत बड़ा रोब दिया था." सूरह निसाँअ छटवां पारा- आयात (153) देखिए कि लोगो की जायज़ मांग पर अल्लाह के झूठे रसूल कैसे कैसे रंग बदलते हैं, जवाज़ में कहीं पर कोई मर्दानगी नज़र आती है? कोई ईमान दिखाई पड़ता है, आप को कहीं कोईसदाक़त की झलक नज़र आती है? उनकी इन्हीं अदाओं पर यह इस्लामी हिजड़े गाया करते हैं "मुस्तफा जाने आलम पे लाखों सलाम"
" और हम ने उन लोगों से क़ौल क़रार लेने के वास्ते कोहे तूर को उठा कर उन के ऊपर टांग इया था और हम ने उनको हुक्म दिया था कि दरवाज़े में सरलता से दाखिल होना और हम ने उनको हुक्म दिया था कि शनिवार के बारे में उल्लंघन न करना और हम ने उन से क़ौल ओ क़रार निहायत शदीद लिए. सो उनकी अहद शिकनी की वजह से और उनकी कुफ़्र की वजह से अहकाम इलाही के साथ और उनके क़त्ल करने की वजह से ईश्वीय दूत अनुचित और उन के इस कथन की वजह से कि हमारे ह्रदय सुरक्सित बल्कि इन के कुफ़्र के सबब - - - " सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात (154-55) ये हैं तौरेत के वाकेआती कुछ टुकड़े जो कि अनपढ़ मुहम्मद के कान में पडे हुए हैं उसे वे शायर के तौर पर वोह भी अल्लाह बन कर कुरआन की पागलों की सी रचना कर रहे हैं और इस महा मूरख कालिदास के इशारे को उसके होशियार पंडित ओलिमा सदियों से मानी पहना रहे हैं. कहानी कहते कहते खुद मुहम्मदी अल्लाह भटक जाता है, उसको यह अलिमाने दीन अपनी पच्चड़ लगा कर रस्ते पर लाते हैं. जब तक आम मुसलमान इन मौलानाओं से भपूर नफरत नहीं करेंगे, इनका उद्धार होने वाला नहीं।

बात मूसा की चले तो ईसा को कैसे भूलें? कुरआन के रचैता ये तो उम्मी की फितरत बन चुकी है, इस बात की गवाह खुद कुरआन है. मुहम्मदी अल्लाह कहता है - - -
" मरियम पर उनके बड़ा भारी इलज़ाम धरने की वजह और उनके इस कहने की वजेह से हम ने मसीह ईसा पुत्र मरियम जो कि अल्लाह के रसूल हैं को क़त्ल कर दिया गया. हालाँकि उन्हों ने न उनको क़त्ल किया, न उनको सूली पर चढाया, लेकिन उनको इश्तेबाह (शंका) हो गया और लोग उनके बारे में इख्तेलाफ़ करते हैं, वोह गलत ख़याल में हैं, उनके पास इसकी कोई दलील नहीं है बजुज़ इसके कि अनुमानित बातों पर अमल करने के और उन्हों ने उनको यकीनी बात है कि क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ताला ने उनको अपनी तरफ उठा लिया और अल्लाह ताला ज़बर दस्त हिकमत वाले हैं और कोई शख्स अहल किताब से नहीं रहता मगर वोह ईसा अलैहिस्सलाम की अपने मरने से पहले ज़रूर तस्दीक कर लेता है और क़यामत के रोज़ वोह इन पर गवाही देंगे।" सूरह निसाँअ ४ छटवां पारा- आयात( 156-159) मूसा और ईसा अरब दुन्या की धार्मिक केंद्र के दो ऐसे विन्दु हैं जिनपर पूरी पश्चिम ईसाई और यहूदी आबादी केन्द्रित है ओल्ड टेस्टामेंट यानी तौरेत इन को मान्य है. इनकी आबादी दुन्या में सर्वाधिक है और दुन्या की कुल आबादी का आधे से ज्यादा है. कहा जा सकता है कि तौरेत दुन्या की सब से पुरानी रचना है जो मूसा कालीन नबियों और स्वयं मूसा द्वारा शुरू की गई और दाऊद के ज़ुबूरी गीतों को अपने दामन में समेटे हुए ईसा काल तक पहुची, आदम और हव्वा की कहानी और दुन्या का वजूद छह सात हज़ार साल पहले इसमें ज़रूर कोरी कल्पना है जिसे खुद इस की तहरीर कंडम करत्ती है मगर बाद के वाकिए हैरत नाक सच बयान करते हैं.ऐसी कीमती दस्तावेज़ को ऊपर लिखी मुहम्मद की जेहालत, बल्कि दीवानगी के आलम में बकी गई बकवास को लाना तौरेत की तौहीन है. जिसको अल्लाह खुद शक ओ शुबहा भरी आयत कहता हो उसको समझने की क्या ज़रुरत? जाहिल क़ौम इसे पढ़ती रहे और अपने मुर्दों को बख़श कर उनका भी आकबत ख़राब करती रहे.हम कहते हैं मुसलमान क्यूँ नहीं सोचता कि उसके अल्लाह अगर हिकमत वाला है तो अपनी आयत साफ साफ क्यूँ अपने बन्दों को बतला सका, क्यूँ कारामद बातें नहीं बतलाएं? क्यूँ बार बार ईसा मूसा की और उनकी उम्मत की बक्वासें हम हिदुस्तानियों के कानों में भरे हुए है? वह फिर दोहरा रहा है कि यहूदियों पर बहुत सी चीज़ें हराम करदीं अरे तेल लेने गए यहूदी, करदी होंगी उन पर हराम, हलाल, हमसे क्या लेना देना, क्यों हम इन बातों को दोहराए जा रहे है? यहूदी ज्यूज़ बन गए आसमान में छेद कर रहे हैं और हम अहमक़ मुसलमान उनकी क़ब्रो की मरम्मत करके मुल्लाओं को पाल पोस रहे हैं हमारे लिए दो जून की रोटी मोहल है, ये अपनी माँ के खसम ओलिमा हम से कुरानी गलाज़त ढुलवा रहे हैं.पैदाइशी जाहिल अल्लाह एक बार फिर नूह को उठता है, पूरे क़ुरआन में बार बार वह इन्हीं गिने चुने नामों को लेता है जो इस ने सुन रखे हैं, कहता है। "और मूसा से अल्लाह ने खास तौर पर कलाम फ़रमाया, उन सब को खुश खबरी देने वाले और खौफ सुनाने वाले पैगम्बर इस लिए बना कर भेजा था ताकि अल्लाह के सामने इन पैगम्बरों के बाद कोई उज्र बाकी न रहे और अल्लाह ताला पूरे ज़ोर वाले और बड़ी हिकमत वाले हैं।" ऐसी बक्वासें कुआनी आयतें हुईं.

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

4 comments:

  1. शाहिद अख्‍़तर13 August 2011 at 21:58

    आपके लिखे अल्‍फाज़ पढ़कर मेरे रोगटे खड़े होने लगते हैं ये सोचकर कि कैसे एक उम्मी इंसान ने इतना शातिर ताना-बाना बुन दिया जिसमें आज के पढ़े-लिखे मुसलमान नौजवान भी बेहिचक आंखें मूंद कर खुशी-खुशी फंसते चले जाते हैं. अगर अंधेरे में जाते इंसानों को सही राह दिखाने वाले को ही सच्‍चे मायनों में 'नबी' ओहदे से नवाज़ा जाता है तो यक़ीनन आप उन सभी नौजवान-बूढ़े मर्द-औरत-बच्‍चे मुसलमानों को इस जाल से आज़ादी दिलाने के लिए एक असली नबी के तौर पर इस दुनिया में आए हैं जो मजलूमों की तरह उस ख़याली अल्‍लाह के जेहनी गुलाम बने हुए हैं जो दरअसल उसके एजेंट बने ओलिमान की नापाक सोच के सिवाय कहीं नहीं है.

    मेरी आंखें खोलने के लिए आपका बेहद शुक्रिया, लेकिन मेहरबानी करके मुझसे मेरा पता, मोबाइल नं., ई-मेल वगैरह न पूछें क्‍योंकि मेरे मोहल्‍ले तो छोडि़ए मेरे खानदान के ही लोग मेरा सिर कलम कर देंगे अगर उन्‍हें एहसास हो गया कि मैं इस झूठे और मक्‍कारी से भरे मकड़जाल से आज़ाद हो गया हूँ जिसमें वो ताउम्र तड़पना चाहते हैं और मुझ जैसे और लोगों को भी हमेशा-हमेशा के लिए तड़पने के लिए मजबूर करना चाहते हैं.

    एक बार फिर से आपका तहेदिल से शुक्रिया, अब तो ये भी नहीं कह सकता कि अल्‍लाह आपको खुशी दे क्‍योंकि उसे तो सिर्फ अपनी गुलामी करने वाले और डर के मारे पीले पड़े हुए जानवर ही पसंद आते हैं जो उसकी सनक भरी सोच के पीछे अपना खून भी बहाने को तैयार रहें और दूसरे मजहबों को मानने वाले उन मासूमों का भी जिन्‍हें पता ही नहीं है कि दरअसल मुसलमान कितना तकलीफदेह अजाब भुगतते हैं इस शैताननुमा अल्‍लाह और उसके डकैतनुमा रसूल को अपना रहनुमा मानकर.

    ReplyDelete
  2. जनाब अख्तर साहब !
    पहली बार कोई मुसलमानों में से पूरी तरह जगा है. मेरी ख़ुशी की इन्तहा है. आप का शुक्रिया. मैं आपका पता ,फोन नंबर, कुछ भी नहीं पूछूंगा, आप मुसलमानों को अन्दर से बेदार करिए, खुद को बचाते हुए. मत डरिए बहुत ज्यादह. अपनी शख्सियत को यूं ही दफन मत होने दीजिए.मैं नमाज़ रोज़ा कुछ भी, एलानिया नहीं करता. कभी कोई पूछता है तो कह देता हूँ कि मेरा हर फेल नमाज़ होता है. किसी से बहेस मुबाहिसा मत करिए मगर अप जो कुछ अंदर से है, वही बाहर से हो जाइए. ज़ाहिर बातिन को यकसाँ रखिए, आपकी कद्र समाज में खुद बखुद बढ़ जायगी. मेरे पैरवी में लाशूरी तौर पर आधा समाज है. उनकी समझ को शऊर आने की ज़रुरत है.
    हमारे साथ आइए, हमारे मज़ामीन तवज्जो तलब हैं, उनसे आप फायदा उठा सकते हैं. अपने साथियों को भी इसकी तरफ रागिब करिए.
    एक बार फिर शुक्रया.

    ReplyDelete
  3. jeem momin ..I don't know much about you....

    but one this is sure..I loved some of your lines...and this one for you


    क्यु मंदीर मस्जिद गिरजाघर बनाये
    जब तु उसकी राह पर ना चल पाए
    वो कहा कहे पूजन को,
    तु ही नये-नये तरीके अपनाए
    वो कहा बंधा है,
    जो तु उसे बांधे
    सीधी सी बात है,
    तु कहा उसे समझे
    जो कन कन में बसा है,
    वो तेरी चार दिवारीओं में कैसे समाए।

    ReplyDelete