Monday 29 August 2011

सूरह अलमायदा 5

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।


नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.




सूरह अलमायदा 5

किस्त पाँचवीं

किस्त धर्म और ईमान के मुख्तलिफ नज़रिए और माने अपने अपने हिसाब से गढ़ लिए गए हैं. आज के नवीतम मानव मूल्यों का तकाज़ा इशारा करता है कि धर्म और ईमान हर वस्तु के उसके गुण और द्वेष की अलामतें हैं. इस लम्बी बहेस में न जाकर मैं सिर्फ मानव धर्म और ईमान की बात पर आना चाहूँगा. मानव हित, जीव हित और धरती हित में जितना भले से भला सोचा और भर सक किया जा सके वही सब से बड़ा धर्म है और उसी कर्म में ईमान दारी है. वैज्ञानिक हमेशा ईमानदार होता है क्यूँकि वह नास्तिक होता है, इसी लिए वह अपनी खोज को अर्ध सत्य कहता है. वह कहता है यह अभी तक का सत्य है कल का सत्य भविष्य के गर्भ में है. मुल्लाओं और पंडितों की तरह नहीं कि आखरी सत्य और आखरी निजाम की ढपली बजाते फिरें. धर्म और ईमान हर आदमी का व्यक्तिगत मुआमला होता है मगर होना चाहिए हर इंसान को धर्मी और ईमान दार, कम से कम दूसरे के लिए. इसे ईमान की दुन्या में ''हुक़ूक़ुल इबाद'' कहा गया है, अर्थात ''बन्दों का हक'' आज के मानव मूल्य दो क़दम आगे बढ़ कर कहते हैं ''हुक़ूक़ुल मख्लूकात'' अर्थात हर जीव का हक.धर्म और ईमान में खोट उस वक़्त शुरू हो जाती है जब वह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो जाता है. धर्म और ईमान , धर्म और ईमान न राह कर मज़हब और रिलीज़न यानी राहें बन जाते हैं. इन राहों में आरंभ हो जाता है कर्म कांड, वेश भूषा, नियमावली, उपासना पद्धित, जो पैदा करते हैं इंसानों में आपसी भेद भाव. राहें कभी धर्म और ईमान नहीं हो सकतीं. धर्म तो धर्म कांटे की कोख से निकला हुआ सत्य है, पुष्प से पुष्पित सुगंध है, उपवन से मिलने वाली बहार है. हम इस धरती को उपवन बनाने के लिए समर्पित राहें यही मानव धर्म है. धर्म और मज़हब के नाम पर रची गई पताकाएँ, दर अस्ल अधार्मिकता के चिन्ह हैं.लोग अक्सर तमाम धर्मों की अच्छाइयों(?) की बातें करते हैं यह धर्म जिन मरहलों से गुज़र कर आज के परिवेश में कायम हैं, क्या यह अधर्म और बे ईमानी नहीं बन चुके है? क्या यह सब मानव रक्त रंजित नहीं हैं? इनमें अच्छाईयां है कहाँ? जिनको एह जगह इकठ्ठा किया जाय, यह तो परस्पर विरोधी हैं.. अब लीजिए कुरआनी बक्वासें पेश हैं - - -


" और जब वोह (सूफी, संत, दुरवैश और राहिब) इस को सुनते हैं जो कि मुहम्मद (इस्लाम) की तरफ से भेजा गया है, तो उनकी आँखें आंसुओं से बहती हुई दिखती हैं, इस सबब से कि उन्हों ने हक को पहचान लिया है. कहते हैं कि ए हमारे रब! हम मुस्लमान हो गए, तो हम को भी इन लोगों में लिख लीजिए जो तस्दीक करते हैं, और हमारे पास कौन सा उज्र है कि हम अल्लाह ताला पर और जो हक हम पर पहुंचा है, इस पर ईमान न लाएँ और इस बात की उम्मीद रक्खें कि हमारा रब हम को नेक लोगों की जमाअत में हमें दाखिल करेगा."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (75)

सूफी और दरवेश हमेशा से इसलाम से भयभीत और बेजार रहे हैं. इस के डर से वोह गरीब बस्तियों को छोड़ कर वीरानों में रहा करते थे.प्रसिद्ध संत उवैस करनी मोहम्मद का चहीता होते हुए भी उनसे कोसों दूर जंगलों में रहता था. इस्लामी हाकिमो के खौफ से वोह हमेशा अपना पता ठिकाना बदलता रहता कि कहीं इस को मोहम्मद के कुर्बत में जा कर 'मोहम्मादुर रसूल अल्लाह' न कहना पड़े.मोहम्मद के वसीयत के मुताबिक मरने के बाद उनका पैराहन उवैस करनी को भेंट किया जाना था, समय आने पर, जब पैराहन को लेकर अबू बकर और अली बमुश्किल तमाम उवैस तक पहंचे तो पाया की वोह ऊँट चरवाहे की नौकरी कर रहा था. उन हस्तियों से मिल कर या पैराहन पाकर उसके चेहरे पर कोई खास रद्दे अमल न देख कर दोनों मायूस हुए. बहुत देर तक खमोशी छाई रही, जिसको तोड़ते हुए अबू बकर बोले उम्मत ए मोहम्मदी के लिए कुछ दुआ कीजिए.फकीर दुआ के बहाने उठा और अपने हुजरे के अन्दर चला गया. बहुत देर तक बाहर न निकला तो इन दोनों को उस से बेजारी हुई, हुजरे के दर से सूफ़ी को आवाज़ दी कि बाहर आएं, उवैस बर आमद हुवा और कहा जल्दी कर दी वर्ना पूरी उम्मते मुहम्मदी को बख्शुवा लेता.दोनों दरवेश के रवैयए से खिन्न होकर वापस हुए.बद मआश ओलिमा ने ओवैस करनी की उलटी कहानिया गढ़ रखी हैं.यही हाल मशहूर सूफ़ी हसन बसरी का था.हसन बसरी और राबिया बसरी मुहम्मद के बाद तबा ताबेईन हुए, जो बागी ए पैगंबरी थे और मुहम्मदुर रसूल अल्लाह कभी नहीं कहा.हसन बसरी का वाक़ेआ मशहूर है कि एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी ले कर भागे जा रहे थे, लोगों ने पूंछा कहाँ? बोले जा रहा हूँ उस दोज़ख को पानी से ठंडी करने जिसके डर से लोग नमाज़ पढ़ते हैं और उस जन्नत को आग लगाने जिस की लालच में लोग नमाज़ पढ़ते हैं. मोहम्मद की गढ़ी जन्नत और दोज़ख का उस वक़्त ही हस्तियों ने नकार दिया था जिसको आज मान्यता मिली हुई है, ये मुसलमानों के साथ कौमी हादसा ही कहा जा सकता है.*हम मुहम्मदी अल्लाह की एक बुरी आदत पर आते हैं - - -

कुरानी आयातों से ज़ाहिर होता है की अरबों में कसमें खाने का बड़ा रिवाज था.यह रोग शायद भारत में वहीँ से आया है,वरना यहाँ तो प्राण जाए पर वचन न जाय की अटल बात थी. अल्लाह भी अरबों की खसलत से प्रभावित है. कसमें भी जानें किन किन चीजों की और कैसी कैसी. वह बन्दों के लिए दो किस्में, कसमों की मुक़ररर करता है--

पहली इरादा कसमें, और दूसरी पुख्ता कसमें.


" अल्लाह तुम से जवाब तलबी नहीं करता, तुम्हारी कसमों पर, ब्यर्थ किस्म की हों, लेकिन जवाब तलबी इस पर करता है कि क़सम को पुख्ता करो और तोड़ दो.सो इस का कफ्फारा (प्रयश्चित) दस मोहताजों को खाना देना है या औसत दर्जे का कपडा देना या एक गर्दन को आजाद करना या कुछ न हो सके तो तीन दिन का रोजा रखना."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा(वइज़ासमेओ)-आयत (77)

देखिए कि कितना आसन है इसलाम में मुसलमानों के लिए झूट बोलना, वह भी कसमें खा कर. इरादा (निशचय)कसमें अल्लाह की, रसूल, क़ुरआन की, माँ बाप की, दिन भर कसमें खाते रहिए, अल्लाह इसकी जवाब तलबी नहीं करता, हाँ अगर पुख्ता (ठोंस) क़सम खा ली तो भी गज़ब हो जाने वाला नहीं, बस सिर्फ तीन रोज़ का दिन का फाका, जो कि गरीब को यूँ भी उस वक़्त अन्ना उपलब्ध नहीं हुवा करता था. इसको रोजा कहते हैं, इसमें सवाब भी है. किस क़दर झूट की आमेज़िश है कुरानी निजाम में जिसे अनजाने में हम "पूर्ण जीवन व्योस्था या मुकम्मल निजाम ए हयात " कहते हैं.अदालतों में क़ुरआन पर हाथ रख कर क़सम खाते है जो खुद झूट बोलने की इजाज़त देता है.आर्श्चय होता है न्याय के अंधे विश्वास पर.देखिए कि हर मुस्लिम ही नहीं मुझ जैसा मोमिन भी इस ईमानी कमजोरी से कितना कुप्रभावित है, खुद मेरी बीवी इरादा कसमे खाने की आदी है जिसको हजम करने के हम आदी हो चुके हैं. पुख्ता यानी ठोंस झूट भी उसके बहुत से पकडे गए हैं जिसके लिए वह अक्सर पुख्ता कसमें खा चुकी है. मज़े की बात ये है कि वह कफ्फारा भी मेरी कमाई से अदा करती है,पक्की मुसलमान है, क़ुरआन की तिलावत रोज़ाना करती है और इन कुरानी फार्मूलों से खूब वाकिफ है. सच है कि गैर मुस्लिम शरीके हयात बेहतर होती बनिस्बत एक मुसलमान के.


"ऐ ईमान वालो! अल्लाह क़द्रे शिकार से तुम्हारा इम्तेहान करेगा. जिन तक तुम्हारे हाथ और तुम्हारे नेज़े पहुँच सकेंगे ताकि अल्लाह समझ सके कि कौन शख्स इस से बिन देखे डरता है. सो इसके बाद जो शख्स हद से निकलेगा इसके लिए दर्द नाक सजा है"

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (94)

दिलों कि बात जानने वाला मुहम्मदी अल्लाह मुसलमानों का प्रेटिकल इम्तेहान ले रहा है और बेचारी क़ौम उसी इम्तेहान में मुब्तिला है, न शिकार रह गए हैं न नेज़े. आलिमान दीन ने इन आयात को गोबर सुंघा सुंघा कर कर मरी मुसरी को ज़िदा रखा है. मुस्लिम अवाम जब तक खुद बेदार होकर कुरानी बोझ को सर से दफा नहीं करते तब तक कौम का कुछ होने वाला नहीं.


"अल्लाह तअला ने गुज़श्ता को मुआफ कर दिया और जो शख्स फिर ऐसी ही हरकत करेगा तो अल्लाह तअला उस से इंतकाम ले सकते हैं."

सूरह अलमायदा 5 सातवाँ पारा-आयत (95)

अल्लाह न हुवा बल्कि बन्दा ए बद तरीन हुआ जो इन्तेकाम(प्रतिशोध) भी लेता है।
इसी आयत पर शायद जोश मलीहा बादी कहते हैं - - -


गर मुन्तकिम है तो खोटा है खुदा,

जिसमें सोना न हो, वह गोटा है

खुदा,शब्बीर हसन खाँ नहीं लेते बदला,

शब्बीर हसन खाँ से भी छोटा है खुदा.

पिछले सारे गुनाह मुआफ आगे कोई खता नहो, बस कि बद नसीब मुसलमान बने रहो. इस मुहम्मदी अल्लाह से इंसानियत को खुदा बचाए.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. कसम वाली बात तो कमाल की है. मैंने न जाने कितने लोगों को ईमान की, रोजी की कसम खाते हुये देखा है.

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