Saturday 23 February 2019

सूरह मुआरिज 70 आयत (36 -39 )

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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मुआरिज़- 70 = سورتہ المعارج
(मुकम्मल)

मुहम्मद का क़यामत का शगूफ़ा इतना कामयाब होगा कि इसे सोचा भी नहीं जा सकता. आज इक्कीसवीं सदी में भी क़यामत की अफ़वाह अक्सर फैला करती है, 
तब तो ख़ैर दुन्या जेहालत के दौर में मासूम थी.
अवाम उमूमन डरपोक हुवा करती है. 
हाद्साती अफ़वाहों को वह ख़ुद हवा दिया करती है. अहले क़ुरैश से एक शख़्स  क़यामत आने की ख़बर समाज को देता है, 
इसे वह मुश्तहिर करता है. लोग हज़ार झुट्लाएं, वह बाज़ नहीं आता. 
उसकी वजेह से मक्का में लोगों को क़यामत का सपना आने लगा था. 
क़यामत की वबा फ़ैल चुकी थी, वह चाहे यक़ीन के तौर पर या इसका मज़ाक़ ही बन गया हो.
क़यामत का नया बाब खोलते हुए मुहम्मदी अल्लाह कहता है - -

"एक दरख़्वास्त करने वाला इस अज़ाब की दरख़्वास्त करता है कि जो काफ़िरों पर होने वाला है, जिसका कोई दिफ़अ करने वाला नहीं है और जो कि अल्लाह की तरफ़ से वाक़ेअ होगा, जो कि सीढ़ियों का मालिक है. फ़रिश्ते और रूहें इसके पास चढ़ कर जाती हैं. ऐसे दिन में होगा जिस की मिकदार पचास हज़ार साल होगी, सो आप सब्र कीजिए और ऐसा सब्र कि जिसमें शिकायत का नाम न हो.'
सूरह मुआरिज 70 आयत (1-5 )

मुहम्मदी अल्लाह क़यामत के एक दिन का वक्फ़ा यहाँ पर 50,000 साल बतलाता है, इसके पहले हज़ार साल बतलाया था, और अब जल्द ही आने वाली है, तो हर सूरह में बार बार दोहराता है. 
फ़ारसी मुहाविरा है कि 'झूट बोलने वाले की याद दाश्त कमज़ोर होती है' 
बहुत दिनों से मुसलामानों को चौदहवीं सदी का इन्तेज़ार था, 
मुहम्मद ने इस सदी के लिए पेशीन गोई कि थी जो आधी होने को है.
क्या मुसलमान मुसलसल ख़द्शे की ज़िन्दगी जी रहा है?

"ये लोग इस दिन को बईद देख रहे हैं और हम इसको क़रीब देख रहे हैं, जिस दिन तेल तलछट की तरह हो जाएगा और पहाड़ रंगीन उन की तरह"
सूरह मुआरिज 70 आयत (6 -9)

मुहम्मद का साज़िशी दिमाग़ हर वक़्त कुछ न कुछ उधेड़ बुन किया करता है, जिसके तहत क़यामत के ख़ाक़े बना करते हैं. इस तरह से क़ुरआन का पेट भरता रहता है. तेल तलछट की तरह हो जाएगा तो ये भी अल्लाह की कोई बात हुई,
तेल के नीचे तो तलछट ही होता है.

"और उस रोज़ कोई दोस्त, किसी दोस्त को न पूछेगा, बावजूद एक दूसरे को दिखा दिए जाएँगे और मुजरिम इस बात की तमन्ना करेगा कि अज़ाब से छूटने के लिए, अपने बेटों को, बीवी को, भाई को, और क़ुनबे को जिस में वह रहता था और तमाम अहले ज़मीन को फ़िदया में देदे, फिर ये इसको बचाए, ये हरगिज़ न होगा, बल्कि आग ऐसी हिगी जो ख़ाल उधेड़ देगी.'
सूरह मुआरिज 70 आयत (10-16 )

एक पाठक ने पिछले ब्लॉग पर मुझ से पूछा है कि दुन्या में मुसलमानों की पस्मान्दगी की वजेह क्या है?
उनको मैने इन्हीं आयतों पर मुसलामानों का पुख़ता यक़ीन बतलाया था.

मुसलमानों! क्या तुम आयत (आयत10-16 ) में मुहम्मद की साज़शी बू नहीं पा रहे हो? तुम्हारा रहनुमा तुमको और तुम्हारी नस्लों को ठग रहा है, 
आँखें खोलो.
जो इस्लाम से जुडा हुआ सर गर्म है, 
उसे ग़ौर से समझो कि वह मज़हब को ज़रीआ मुआश बनाए हुए है, 
न कि वह अच्छा इंसान है,
अच्छे और नेक तो आप लोग हो जो अपनी नस्लों को उनके यहाँ गिरवीं रक्खे हुए हो.
मैं तुम्हारी गिरवीं पड़ी अमानत को बेख़ौफ़ होकर उनसे तुम्हारे हवाले कर रह हूँ.

"जो अपनी शर्म गाहों को महफ़ूज़ रखने वाले हैं, लेकिन अपनी बीवी से और अपनी लौंडियों से नहीं, क्यूंकि इन पर कोई इलज़ाम नहीं. हाँ जो इसके अलावा तलब गार हो, ऐसे लोग हद से निकलने वाले हैं."
सूरह मुआरिज 70 आयत (29 -30)

मुहम्मदी अल्लाह कहाँ से कहाँ पहुँच गया? 
इसी को 'बे वक़्त, बे महल बात' कहते है. 
उम्मी के पास कोई मुफ़क्किर का ज़ख़ीरा तो था ही नहीं, 
लेदे के एक ही बात को बार बार औटा करता है.
मुसलमानों! क्या आज तुम लौडियाँ रखते हो?
 नहीं! तो फिर उस अहमक की बातों में क्यूँ मुब्तिला हो?
जैसे लौंडियाँ हराम हो गई हैं, वैसे ही इस्लाम को अपने ऊपर हराम कर लो.  

"तो काफ़िरों को क्या हुवा कि आप की तरफ़ को दाएँ और बाएँ जमाअतें बन बन कर दौड़ रहे हैं. क्या इस में से हर शख़्स इसकी हवस रखता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाख़िल होगा. ये हरगिज़ न होगा. हमने इनको ऐसी चीज़ से पैदा किया है कि जिसकी इनको भी ख़बर नहीं."
सूरह मुआरिज 70 आयत (36 -39 )

क्या पैग़ाम दे रही हैं ये अल्लाह की बातें ?
ख़ुद मुसलमान इस की हवस रखाता है कि वह आशाइश की जन्नत में दाख़िल और काफ़िरों पर इलज़ाम है. इसी को लोग इस्लामी तअस्सुब कहते हैं.
इंसान कैसे पैदा हुवा है, इसको हमारे साइंसटिस्ट साबित कर चुके हैं जो रोज़े रौशन की तरह उजागर है, ख़ुद फ़रेब अल्लाह इसे राज़ ही रखना चाहता है.

"फिर मैं क़सम खाता हूँ मग़रिब और मशरिक़ के मालिक की, कि हम इस पर क़ादिर हैं कि इनकी जगह इन से बेहतर लोग ले आएँगे और हम आजिज़ नहीं हैं, सो इनको आप इसी शुगल में और इसी तफ़रीह में रहने दीजिए."
सूरह मुआरिज 70 आयत  (42 )

मुहम्मदी अल्लाह दो दिशाओं की क़सम खाता है? 
गोलार्ध की मुख्य लीक को जो सूरज की चाल की है, शुमाली और जुनूबी को वह जानता भी नहीं. जिस अल्लाह की जानकारी इस कद्र सीमित हो, उसको ख़ुदा कहलाने में शर्म नहीं आती?
मुसलामानों! तुम पर दूसरी क़ौमें ग़ालिब हो चुकी हैं, ये इस्लाम की बरकत ही है. ईराक और लीबिया मौजूदः मिसालें हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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