Monday 3 June 2019

सूरह नस्र 110 = سورتہ النصر

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह नस्र 110 = سورتہ النصر
(इज़ाजाअ नसरुल लाहे वलफतहो)  

यह क़ुरआन का तीसवाँ और आख़िरी पारा है. इसमें सूरतें ज़्यादः तर छोटी छोटी हैं जो नमाज़ियों को नमाज़ में ज़्यादः तर काम आती हैं. 
बच्चों को जब क़ुरआन शुरू कराई जाती है तो यही पारा पहला हो जाता है. इसमें 78 से लेकर114 सूरतें हैं जिनको (ब्रेकेट में लिखे ) उनके नाम से पहचान जा सकता है कि नमाज़ों में आप कौन सी सूरत पढ़ रहे हैं 
और ख़ास कर याद रखें कि क्या पढ़ रहे हैं.
नट खट बातूनी बच्चे से देर रात को माँ कहती है, बेटे सो जाओ नहीं तो बाग़ड़ बिल्ला आ जाएगा. 
माँ की बात झूट होते हुए भी झूट के नफ़ी पहलू से अलग है. 
यह सिर्फ़ मुसबत पहलू के लिए है कि बच्चा सो जाए ताकि उसकी नींद पूरी हो सके, 
मगर यह बच्चे को डराने के लिए है.
क़ुरआन का मुहम्मदी अल्लाह बार बार कहता है, 
"मैं डराने वाला हूँ " 
ऐसे ही माँ बच्चे को डराती  है.
लोग उस अल्लाह से डरें जब तक कि सिने बलूग़त न आ जाए, 
यह बात किसी फ़र्द या क़ौम के ज़ेहनी बलूग़त पर मुनहसर करती है कि वह बाग़ड़ बिल्ला से कब तक डरे. 
यह डराना एक बुराई, जुर्म और गुनाह बन जाता है कि बच्चा बाग़ड़ बिल्ला से डर कर किसी बीमारी का शिकार हो जाए, डरपोक तो वह हो ही जाएगा माँ की इस नादानी से. 
डर इसकी तमाम उम्र का मरज़ बन जाता है.
मुसलमान अपने बाग़ड़ बिल्ला से इतना डरता है कि वह कभी बालिग़ ही नहीं होगा. 
मूर्तियाँ जो बुत परस्त पूजते हैं, वह भी बाग़ड़ बिल्ला ही हैं 
लेकिन उनको अधिकार है कि सिने- बलूग़त आने पर वह उन्हें पत्थर मात्र कह सकें, 
उन पर कोई फ़तवा नहीं, 
मगर मुसलमान अपने हवाई बुत को कभी बाग़ड़ बिल्ला नहीं कह सकता.
देखिए कि बाग़ड़ बिल्ला क्या कहता है - - -

"जब अल्लाह की मदद और फतह आ पहुंचे, 
और आप लोगों को अल्लाह के दीन में जौक़ जौक़ दाख़िल होता हुवा देखें, 
तो अपने रब की तस्बीह और तहमीद कीजिए और उससे इस्तेग़फ़ार की दरख़्वास्त कीजिए. वह बड़ा तौबा क़ुबूल करने वाला है." 
सूरह नस्र 110 आयत (1 -3)

मुहम्मद का ख़्वाब ए वहदानियत शक्ल पाने वावाला है, 
मक्का की फ़तह हासिल करने वाले हैं, 
उनका ला शऊर बेदार हो रहा है, 
वह भी अपने रचे हुए अल्लाह से डरने लगे हैं, 
उनकी बद आमलियाँ उनको झिंझोड़ रही है, 
नतीजतन वह अपनी मग़फ़िरत की दुआ कर रहे हैं. 
खुशियों और मायूसियो से पुर यह सूरह है. 
फ़तह मक्का का दिन दुन्या की तमाम इंसानी आबादी के लिए एक बद तरीन दिन था, 
ख़ास कर मुसलामानों के लिए नामुराद दिन कहा जाएगा, 
इस के बाद दीन जैसे मुक़द्दस उन्वान को लेकर जब तलवार उट्ठी तो इंसानों के लिए यह ज़मीन तंग हो गई. सदियाँ गुज़र गईं मगर यह जिहादी सिलसिला अभी तक ख़त्म नहीं हुवा. 
इतने बड़े इंसानी ख़ून का हिसाब जब एक बन्दा-ए-हक़ीर अल्लाह से तलब करता है, 
तब अल्लाह नज़रें चुराता है. 
इस नतीजा ए फ़िक्र के बाद बंदा-ए-अहक़र, बन्दा ए बरतर हो गया और उसने ऐसे कमतर अल्लाह की नमाज़ें अपने पर हराम कर लीं

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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