Tuesday 4 August 2020

सच की ज़मीन पर झूट का आसमान

सच की ज़मीन पर झूट का आसमान 

मुहम्मद उम्मी थे अर्थात निक्षर. तबीयतन शायर थे, 
मगर ख़ुद को इस मैदान में छुपाते रहते, 
मंसूबा था कि जो शाइरी करूंगा, वह अल्लाह का कलाम क़ुरआन होगा . 
इस बात की गवाही में क़ुरआन में मिलनें वाली मफ़रूज़ा कफ़िरों के 
मुहम्मद पर किए गए व्यंग ''शायर है ना'' है. 
शाइरी में होनें वाली कमियों को, चाहे वह ख़यालों की हों, चाहे क़वायद की, मुहम्मद अल्लाह के सर थोपते हैं. अर्थ हीन और विरोद्दाभाशी मुहम्मद की कही गई बातें ''मुश्तबाहुल मुराद'' आयतें बन जाती हैं जिसका मतलब अल्लाह बेहतर जानता है. देखें (सूरह आले इमरान आयत 6+7) 
यह तो रहा क़ुरआन के लिए ग़ारे-हरा में बैठ कर मुहम्मद का सोंचा गया पहला शायरी नुमा मिशन ''क़ुरआन''. 
दूसरा मिशन मुहम्मद का था गद्य आधारित. इसे वह होश हवास में बोलते थे, ख़ुद को पैग़मबराना दर्जा देते हुए, 
हांलाकि यह उनकी जेहालत की बातें होतीं जिसे कठबैठी या कठ मुललाई कहा जाय तो ठीक होगा. यही मुहम्मदी ''हदीसें'' कही जाती हैं. 
क़ुरआन और हदीसों की बहुत सी बातें यकसाँ हैं, 
ज़ाहिर है एह ही शख़्स के विचार हैं, 
ओलिमा-ए-दीन इसे मुसलमानो को इस तरह समझाते हैं कि अल्लाह ने क़ुरआन में कहा है जिस को हुज़ूर (मुहम्मद) ने हदीस फलाँ फलाँ में भी फ़रमाया है. 
अहले हदीस का भी एक बड़ा हल्क़ा है जो मुहम्मद कि जेहालत पर कुर्बान होते हैं. शिया कहे जाने वाले मुस्लिम इससे चिढ़ते हैं.
ज़मीन हर वक़्त हिलती ही नहीं बल्कि बहुत तेज़ रफ़्तार से अपने मदारपर घूमती है. इतनी तेज़ कि जिसका तसव्वुर भी क़ुरआनी अल्लाह नहीं कर सकता. 
अपने मदार पर घूमते हुए अपने 'कुल' यानी सूरज का चक्कर भी लगाती है, अल्लाह को सिर्फ़ यही ख़बर है कि ज़मीन में मुर्दे ही दफ़्न हैं जिन से वह बोझल है .
तेल. गैस और दीगर मादानियात से वह बे ख़बर है.
क़यामत से पहले ही ज़मीन ने अपनी ख़बरें पेश कर दी है और पेश करती रहेगी मगर अल्लाह के आगे नहीं, साइंसदानों के सामने.
धर्म और मज़हब सच की ज़मीन और झूट के आसमान के दरमियाँ में मुअललक फ़ार्मूले है.ये पायाए तकमील तक पहुँच नहीं सकते. 
नामुकम्मल सच और झूट के बुनियाद पर क़ायम मज़हब बिल आख़िर ग़ुमराहियाँ हैं. अर्ध सत्य वाले धर्म दर अस्ल अधर्म है. 
इनकी शुरूआत होती है, ये फूलते फलते है, उरूज पाते है और ताक़त बन जाते है, फिर इसके बाद शुरू होता है इनका ज़वाल ये शेर से गीदड़ बन जाते है, फिर चूहे. ज़ालिम अपने अंजाम को पहुँच कर मज़लूम बन जाता है. 
दुनया का आख़ीर मज़हब, मज़हबे इंसानियत ही हो सकता है 
जिस पर तमाम क़ौमों को सर जोड़ कर बैठने की ज़रुरत है.
***  
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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