Tuesday 1 December 2020

क़यामती साया


क़यामती साया          
 
आज इक्कीसवीं सदी में दुन्या के तमाम मुसलामानों पर मुहम्मदी अल्लाह का क़यामती साया ही मंडला रहा है. 
जो क़बीलाई समाज का मफ़रूज़ा ख़दशा हुवा करता था. 
अफ़ग़ानिस्तान दाने दाने को मोहताज है, ईराक अपने दस लाख बाशिदों को जन्नत नशीन कर चुका है, मिस्र, लीबिया और दीगर अरब रियासतों पर इस्लामी तानाशाहों की चूलें ढीली होती जा रही हैं. 
तमाम अरब मुमालिक अमरीका और योरोप के ग़ुलामी में जा चुके है, 
लोग तेज़ी से सर ज़मीन ए ईसाइयत की गोद में जा रहे हैं, 
कम्युनिष्ट रूस से आज़ाद होने वाली रियासतें जो इस्लामी थीं, 
दोबारा इस्लामी सफ़ में वापस होने से साफ़ इंकार कर चुकी हैं, 
11-9  के बाद अमरीका और योरोप में बसे मुसलमान मुजरिमाना वजूद ढो रहे हैं, 
अरब से चली हुई बुत शिकनी की आंधी हिदुस्तान में आते आते कमज़ोर पड़ चुकी है, सानेहा ये है कि ये न आगे बढ़ पा रही है और न पीछे लौट पा रही है, 
अब यहाँ बुत इस्लाम पर ग़ालिब हो रहे हैं, 
18  करोड़ बे क़ुसूर हिदुस्तानी बुत शिकनों के आमाल की सज़ा भुगत रहे हैं, 
हर माह के छोटे मोटे दंगे और सालाना बड़े फ़साद इनकी मुआशी हालत को बदतर कर देते हैं, और हर रोज़ ये समाजी तअस्सुब के शिकार हो जाते हैं, इन्हें सरकारी नौकरियाँ बमुश्किल मिलती है, 
बहुत सी प्राइवेट कारख़ाने और फ़र्में इनको नौकरियाँ देना गवारा नहीं करती हैं, 
दीनी तअलीम से लैस मुसलमान वैसे भी हाथी का छोत होते है, 
जो न जलाने के काम आते हैं न लीपने पोतने के, 
कोई इन्हें नौकरी देना भी चाहे तो ये उसके लायक़ ही नहीं होते. 
लेदे के आवां का आवां ही खंजर है.
दुन्या के तमाम मुसलमान जहाँ एक तरफ़ अपने आप में पस मानदा है, 
वहीं, दूसरी क़ौमों की नज़र में जेहादी नासूर की वजेह से ज़लील और ख़्वार है. 
क्या इससे बढ़ कर क़ौम पर कोई क़यामत आना बाक़ी रह जाती है? 
ये सब उसके झूठे मुहम्मदी अल्लाह और उसके नाक़िस क़ुरआन की बरकत है. 
आज हस्सास तबा मुसलमान को सर जोड़कर बैठना होगा कि 
बुज़ुर्गों की नाक़बत अनदेशी ने अपने जुग़राफ़ियाई वजूद को क़ुरबान करके 
अपनी नस्लों को कहीं का नहीं रक्खा.
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जीम 'मोमिन' निसा0रुल-ईमान

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