Monday 14 December 2020

सूरह-ए-तौबः


सूरह-ए-तौबः
 
सूरह-ए-तौबः एक तरह से अल्लाह की तौबः है . 
अरबी रवायत में किसी नामाक़ूल, नामुनासिब, नाजायज़ या नाज़ेबा काम की शुरूआत अल्लाह या किसी मअबूद के नाम से नहीं की जाती थी, 
आमदे इस्लाम से पहले यह क़ाबिले क़द्र अरबी क़ौम के मेयार का एक नमूना था. 
मुहम्मद ने अपने पुरखों की अज़मत को बरक़रार रखते हुए इस सूरह की शुरूआत बग़ैर बिस्मिल्लाह हिररहमा निररहीम से ख़ुद शुरू किया. 
आम मुसलमान इस बात को नहीं जानता कि कुरान की ११४ सूरह में से सिर्फ़ एक सूरह, सूरह-ए-तौबः बग़ैर बिस्मिल्लाह हिररहमा निररहीम पढ़े शुरू करनी चाहिए, इस लिए कि इस में रसूल के दिल में पहले से ही खोट थी. 
मुआमला यूँ था कि मुसलामानों का मुशरिकों के साथ एक समझौता हुआ था कि आइन्दा हम लोग जंगो जद्दाल छोड़ कर पुर अम्न तौर पर रहेंगे. ये मुआहदा क़ुरआन का है, गोया अल्लाह कि तरफ़ से हुवा. इसको कुछ रोज़ बाद ही अल्लाह निहायत बेशर्मी के साथ तोड़ देता है 
और बाईस-ए-एहसास जुर्म अपने नाम से सूरह की शुरूआत नहीं होने देता.
मुसलामानों! 
इस मुहम्मदी सियासत को समझो. 
अक़ीदत के कैपशूल में भरी हुई मज़हबी गोलियाँ कब तक खाते रहोगे? 
मुझे गुमराह, गद्दार, और ना समझ समझने वाले क़ुदरत कि बख़्शी हुई अक़्ल का इस्तेमाल करें, तर्क और दलील को गवाह बनाएं तो ख़ुद जगह जगह पर क़ुरआनी लग्ज़िशें पेश पेश हैं कि इस्लाम कोई मज़हब नहीं सिर्फ़ सियासत है और निहायत बद नुमा सियासत जिसने रूहानियत के मुक़द्दस एहसास को पामाल किया है।
***
 
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment