Wednesday, 9 February 2011

सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह शूरा - ४२ - पआरा २५ (1)
 
हर शै की तरह इंसानी ज़ेहन भी इर्तेकई मरहलों के हवाले रहता है जिसके तहत अभी इंसानी मुआशरे को खुदा की ज़रुरत है. कुछ लोग बहुत ही सादा लौह होते हैं, उन्हें अपने वजूद के सुपुर्दगी में मज़ा आता है. जैसे की एक हिन्दू धर्म पत्नि अपने पति को ही देवता मान कर उसके चरणों में पड़ी रहने में राहत महसूस करती है. हमारे एक डाक्टर दोस्त हैं, जो बहुत ही सीधे सादे नेक दिल इंसान हैं, वह अपने हर काम का अंजाम ईश्वर की मर्ज़ी पर डाल के बहुत सुकून महसूस करते हैं, उनको देख कर बड़ा रश्क आता है कि वह मुझ से बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, कभी कभी अन्दर का कमज़ोर इंसान भटक कर कहता है कि किसी न किसी खुदा को मान कर ही जीना चाहिए. किसी का क्या नुक्सान है कि कोई अपना खुदा रख्खे. ये फ़ितरते इंसानी ही नहीं, बल्कि फ़ितरते हैवानी भी है. एक कुत्ता अपने मालिक के क़दमों पर लोट कर कितना खुश होता है. बहुत से हैवान इंसान की पनाह में रहकर ही अमाँ पाते हैं. अपने पूज्य, अपने माबूद, अपने देव और अपने मालिक के तरफ़ ये क़दम इंसान या हैवान के दिल के अन्दर से फूटा हुवा जज़बा है, न कि इनके ऊपर लादा गया तसल्लुत. ये किसी खारजी तहरीक या तबलीग का नतीजा नहीं, इसके पीछे कोई डर, खौफ नहीं, कोई लालच या सियासत नहीं है. इसको मनवाने के लिए कोई क़ुरआनी अल्लाह की आयतें नहीं जिसके एक हाथ में दोज़ख की आग और दूसरे हाथ में जन्नत का गुलदस्ता रहता है. अन्दर से फूटी हुई ये चाहत क़ुरआनी अल्लाह की तरह हमारे वजूद की घेरा बंदी नहीं करतीं. आपका ख़ुदा किसी को मुतास्सिर न करे, शौक से पूजिए जब तक कि आप अपने सिने बलूगत में न आ जाएं, आप की समझ में ज़िन्दगी के राज़ ओ नयाज़ न झलकें.बेटे ने कहा अब्बा अब्बा फफीम खाएँगे. बाप बोला बेटा पहले अफ़ीम कहना तो सीखो. ये रही अल्लाह की फफीम - - -"हा मीम"
सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (१)ये मुसलमानों की फफीम है जिसके कोई मानी नहीं है, न मुसलमानों का कोई बाप ऐसा है जो इन्हें अफ़ीम कहना सिखलाए और अफ़ीम के नाक़िस इस्तेमाल से आगाह करे, गोया पूरी कौम अफ़ीम के नशे में धुत्त पड़ी हुई है. यही 'हामीम या फफीम' का शिकार साठ साल पहले पूरी चीन कौम थी, वहाँ उनका बाप पैदा हुवा और अफ़ीम के मुज़िर असरात को बतलाया और इसकी फ़सलों को तबाह किया. आज मज़हबों से चीन नजात पा चुका है और दुन्या का सुर्खुरू तरीन मुल्क बनने की दर पर है. योरोप में कार्ल मार्क्स ने कहा 'मज़हब अफ़ीम का नशा है' जिस का इलाज कौमो के लिए ज़रूरी है'' नतीजतन दुन्या ने इस नशे को समझा और इससे उनको छुटकारा मिला. बद नसीब हिदुस्तान और मुस्लिम दुन्या इस के पंजे में फंसी हुई है. मुसलमानों का कोई रहनुमा पैदा होना मुश्किल है कि इनको खुद जागना होगा."ऐन सीन क़ाफ़"सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (२)ये हुरूफ़ मुक़त्तेआत है. बस अफ़ीम का ही हम सर भाँग की तरह.


"इसी तरह ज़बरदस्त हिकमत वाला अल्लाह आप की तरफ़ और आप के पहले नबियों की तरफ़ वह्यी भेजता रहा. कुछ बईद नहीं कि आसमान अपने ऊपर से फट पड़ें और फ़रिश्ते अपने रब की तस्बीह और तम्हीद करते हैं और ज़मीन वालों के लिए माफ़ी माँगते हैं और हम ने आप पर ये कुरआन अरबी वह्यी के जारीए नाज़िल किया है ताकि आप मक्का में रहने वालों को और जो लोग इसके आस पास हैं, उनको डराएँ और जमा होने वाले दिन से डराएँ."सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (३-७)
ये अल्लाह मुसलमानी ज़हनों पर नाजायज़ बाप की तरह मुसल्लत रहता है. एक ख्वाह मख्वाह का डर मुसलामानों को कचोके लगाता रहता है. इनका ज़ालिम अल्लाह इन पर कोई भी ज़ुल्म कर सकता है, कुछ नहीं तो आसमान ही इनके सर पर गिरा दे. कौन इन्हें समझाए कि आसमान कोई छत जैसी चीज़ नहीं, ये हद्दे नज़र है. क़ुरआनी आयतें समझाती हैं कि इंसान का वजूद ही धरती पर एक गुनाह है, जिसके लिए मुसलमान बे मार की तौबा किया करता है, यह इतना बड़ा मुजरिम है कि इसके लिए फ़रिश्ते भी दुआ किया करते हैं, इस तरह से इनका खेवन हार ले दे के रसूल ही बचते है.
अल्लाह ने अरबी में कुरआन इस लिए भेजा था कि इससे अरबियों को डराया जाए, बद किस्मती ये है कि इसे हिंदी भी झेल रहे है.


"आप जानदार चीज़ों को बेजान से निकल देते हैं, (जैसे मुर्गी से अंडा) और बेजान चीज़ों को जानदार से निकलते हैं (अंडे से चूजा)""सूरह शूरा - ४२ - पारा २५ आयत (९)क़ुरआनी अल्लाह यानी मुहम्मद की मशहूर जिहालत जो बार बार इस कलाम पाक को नापाक करती है. मुसलमानों ! क्या इक्कीसवीं सदी में भी तुम ऐसी आयातों पर भरोसा करते हो जो साबित करती हैं कि अंडे बेजान होते है.

कलामे दीगराँ - - -"पाएमाली से पहले क़िब्र और ठोकर से पहले घमंड होता है. बे इज्ज़ाती उन्हीं की होती है जिन्हें इज्ज़त का नशा होता है, मगर नरम लोगों में समझ होती है,"
"यहूदी मसलक "
इसे कहते हैं कलाम पाक
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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