Monday, 28 February 2011

सूरह दुखान ४४- परा २५ (2)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.


सूरह दुखान ४४- परा २५ (2)


मैं अपने नज़रयाती मुआमले में कुछ कठोर हूँ इसके बावजूद मेरी आँखों में आँसू उस वक्त ज़रूर छलक जाते हैं जब मैं स्टेज पर इंसानियत को सुर्खुरू होते हुए देखता हूँ, मसलन हिन्दू -मुस्लिम दोस्ती की नजीर हो, या फिर फ़र्ज़ के सवाल पर इंसानियत के लिए मौत को मुँह जाना. मेरे लम्हात में ऐसे पल भी आते हैं कि विदा होती हुई बेटी को जब माँ लिपटा कर रोती है तो मेरे आँसू नहीं रुकते, गोकि मैंने अपनी बेटियों को क़ह्क़हों के साथ रुखसत किया. इंसान की मामूली भूल चूक को भी मैं नज़र अंदाज़ करदेता हूँ. क्यूंकि उम्र के आगोश में बहुत सी लग्ज़िशें हो जाती हैं. मैं कि एक अदना सा इंसान, समझ नहीं पाता कि लोग छोटी छोटी और बड़ी बड़ी मान्यताएँ क्यूँ गढ़े हुए हैं और इन साँचों में क्यूँ ढले हुए है जब कि क़ुदरत उनका मार्ग दर्शन हर मोड़ पर कर रही है.
बड़ी मान्यताओं में अल्लाह, ईश्वर और गाड आदि की मान्यता हैं. अगर वह इनमें से कोई होता तो यकीनी तौर पर इंसान को छोड़ कर हर जीव किसी न किसी तरह से उसकी उपासना करता. हर जीव पेट भरने के बाद उमंग, तरंग और मिलन की राह पर चल पड़ता है, न कि कुदरत की उपासना की तरफ. कुदरत का ये इशारा भी इंसान को जीने की राह दिखलाता है जिसे उल्टा ये अशरफुल मख्लूकात तआने के तौर पर उलटी बात ही करता है - - -

इंसान हो या हैवान?
छोटी मान्यताएं हैं यह ज़मीन के जिल्दी रोग स्वयंभू औतार, पयम्बर, गुरु, महात्मा और दीनी रहनुमा.
अगर इन छोटी बड़ी मान्यताएं और कदरों से इंसान मुक्त हो जाय तो वह मानव से महा मानव बन सकता है, जिस दिन इंसान महा मानव बन जायगा ये धरती जन्नत नुमा बन जायगी.

दूसरे ख़लीफ़ा उमर के बेटे अब्दुल्ला से रवायत है कि मुहम्मद ने एक शख्स का हाथ अपने हाथों से काटा, जिसका जुर्म था तीन पैसे की मालियत की चोरी.(मुस्लिम - - - किताबुल हुदूद)
ऐसे ही मुहम्मद ने अपने ही क़बीले की एक मुआज्ज़िज़ खातून का हाथ क़लम कर दिया था, बहुत मामूली चोरी पर. ये तो थी इसकी पैगम्बरी की सख्त मिसाल,
हैरत का मुक़ाम ये है कि यही शख्स कहता है कि "जेहाद में मारे जाने वाली बेकुसूर औरतों और बच्चो को मारना जायज़ है क्यूँकि काफ़िर मिन जुमला काफ़िर होते हैं.''
यह तो हदीसों की बातें थीं कि जिन पर मुसलामानों का एक गुमराह तबक़ा अहले हदीस बना हुवा
है, अब चलिए देखें क़ुरआन की नसीहतें क्या कहती हैं - - -


"बल्कि वह शक में हैं और खेल में मसरूफ़ हैं, सो आप उस रोज़ का इंतज़ार करें कि आसमान की तरफ़ एक नज़र आने वाला धुवाँ पैदा हो, जो इन सब लोगों पर आम हो जाए. ये एक दर्द नाक सज़ा है. ऐ हमारे रब ! हम से इस मुसीबत को दूर कर दीजिए, हम ज़रूर ईमान ले आएँगे. इनको कब नसीहत होती है हालांकि इनके पास ज़ाहिर शान का पैग़म्बर आया फिर भी ये लोग इससे सरताबी करते रहे और यही कहते रहे कि सिखाया हुआ है और दीवाना है. हम चंदे इस अज़ाब को हटा देंगे तुम फिर इसी हालत में आ जाओगे.
जिस रोज़ हम बड़ी सख्त पकड़ पकड़ेंगे, हम बदला लेंगे."
सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (९-१६)अल्लाह के रसूल की पुर फरेब बातों को ख़ातिर में लाइए मगर उनकी पैगम्बरी को मद्दे नज़र रखते हुए. क्या इस मक्कारी को पैगम्बरी पाने का हक़ हासिल होना चाहिए?

"ये लोग कहते हैं कि आख़िर हालत बस यही, हमारा दुनिया में मरना है और दोबारा दुनिया में न ज़िन्दा होंगे. सो ऐ मुसलमानों! अगर तुम सच्चे हो तो हमारे बाप दादाओं को ला मौजूद करो. ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. यातिब्बा की कौम और जो कौमें इससे पहले गुज़रीं, हमने उन सब को हलाक़ कर डाला, वह नाफ़रमान थे."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (३५-३७)मुहम्मद के लचर मिशन के सामने जब मुखालिफ उनसे ठोस सवाल करते है तो वह खोखले जवाब के साथ फ़रार अख्तियार करते हैं. अक्सर वह सवालों का जवाब यूँ देते हैं "ये लोग ज़्यादः ही बढे हुए है. "
मुहम्मदी अल्लाह को हलाकुल्लाह कहा जा सकता है.

यातिब्बा का नाम कहीं से सुन लिया होगा अल्लाह के अनपढ़ रसूल ने.


"बेशक ज़क़ूम का दरख़्त बड़े मुजरिमों को खाना होगा, जो तेल की तलछट जैसा होगा. वह पीप में ऐसा घुलेगा जैसे तेज़ गरम पानी खौलता है. हुक्म होगा, इसको दोज़ख के बीचो बीच घसीटते हुए ले जाओ, फिर इसके सर पे तकलीफ देने वाला गरम पानी छोड़ो. ले चख तू बड़ा मगरूर, मुकर्रम था. ये वही चीज़ है जिस पर तुम ज़क किया करते थे."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (४२-५०)इन आयतों में हर नुक्ते पर अपने आप में छेड़ए कर देखिए कि मुहम्मद कितने बेतुके थे.

"बेशक अल्लाह से डरने वाले अमन की जगह पर होंगे. यानी बागों में और नहरों में. वह लिबास पहनेंगे बारीक और दबीज़ रेशम का, आमने सामने बैठे होंगे. ये बात इसी तरह है और इनका गोरी गोरी बड़ी बड़ी आँखों वालियों से ब्याह करेंगे. वहाँ इत्मीनान से हर क़िस्म का मेवा मंगाते होंगे. वहाँ बजुज़ इस मौत के जो दुन्या में हो चुकी थी, और मौत का ज़ाइका भी नहीं चखेंगे. और अल्लाह इन्हें दोज़ख से बचा लेगा."सूरह दुखान ४४- परा २५ आयत (५१-५६)हैरानी होती है कि मुसलमान इन क़ुरआनी बातों पर पूरा पूरा यक़ीन करते हैं और इस ज़िन्दगी को पाने के लिए हर उम्र में हराम मौत मरने को तैयार रहते हैं. बेवक्त हराम मौत मरना, अपने माँ बाप और अज़ीज़ों को दाग़े मुफ़ारिक़त दे जाना, कुदरत की बख्शी हुई अपनी इस ज़िन्दगी से हाथ धो लेना, इन हक़ीक़तों पर कभी गौर ही नहीं करते. ज़िन्दगी के कारनामों को अंजाम देने में मौत को जाए तो शहादत है, मुहम्मद की सुझाई हुई जन्नत पर लानत है कि इस के लिए मर जाए तो हिमाक़त है. बेमकसद मुसलसल जीते रहना ही मौत से बदतर है.

कलामे दीगराँ - - -"जैसे कि भले लोग अपनी जन की कोई परवाह न करके खिदमते-खलक में लगे रहते हैं, वैसे ही बुरे लोग दूसरों को दुःख पहुंचाने में आमादः रहते हैं""विष्णू धमोत्र"इसे कहते हैं कलामे पाक
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

3 comments:

  1. बहुत ही अच्‍छी लेखमाला है यह, तथा मुझे विश्‍वास है कि यदि मुस्लिम इस लेखमाला को पढ़ें तो वे वास्‍तव में अच्‍छे मनुष्‍य बन पाने में सफल रहेंगे. इसके लेखक महोदय जी को मेरा हार्दिक धन्‍यवाद, तथा उन्‍हें अपने ध्‍येय में सफलता मिले ऐसी मेरी शुभकामना है.

    - दिनेश प्रताप सिंह

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  3. इन पारखी नज़रों को मोमिन का सलाम पहुँचे.

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