Monday, 28 February 2011

सूरह जासिया -४५-परा - २५ (1)

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह जासिया -४५-परा - २५ (1)



मुहम्मदी अल्लाह तअज्जुब में है कि इसके कारनामें ज़मीन से लेकर आसमान तक बिखरे हुए हैं, आख़िर लोग इसके क़ायल क्यूँ नहीं होते? मुसलमान कुरआन को सैकड़ों साल से यक़ीन और अक़ीदे के साथ पढ़ रहे हैं, नतीजा ए कार ये है कि इनके समझ में ये आ गया कि मुहम्मद के ज़माने में कुफ्फार खुदा के क़ुदरत के क़ायल न रहे होंगे. या मुशरिकों का दावा रहा होगा कि बानिए कायनात उनके देवी देवता रहे होंगे. ये महेज़ इनका वह्म है. मगर कुरान ऐसी छाप इनके ज़ेहनो पर छोड़ता है. कि ज़माना ए मुहम्मद में इंसान दुश्मने अक्ल रहा होगा. ये कुरानी प्रोपेगंडा से फैलाया हुवा वहिमा है.
वह लोग आज ही की तरह मुख्तलिफ फ़िक्र और मुख्तलिफ नज़रयात के मालिक हुवा करते थे. वह अल्लाह को मानने वाले और उसकी क़ुदरत को मानने और जानने वाले लोग थे. मुहम्मद ने जिस अल्लाह की तशकील की थी, वह उनकी फ़ितरत और उनकी सियासत के एतबार से था, यानी, ज़ालिम, जाबिर, जाहिल, मकर फरेब का पैकर, मुन्तकिम झूठा और खुदसर अल्लाह, जिसकी तर्जुमानी मुहम्मद ने कुरआन में की है. अपनी इस गंदी हांडी के अन्दर, वह उस अज़ीम ताक़त को बन्द करके पकाना चाहते हैं जिसे क़ुदरत कहते हैं और परोसना चाहते हैं उन लोगों को जिनको क़ुदरत ने थोड़ी बहुत समझ दी है या अपना ज़मीर दिया है. जब वह इस गलाज़त को खाने से इंकार करते हैं तो वह उन पर इलज़ाम लगाते हैं " तअज्जुब है कि अल्लाह की क़ुदरत को तस्लीम ही नहीं करते."इधर हम जैसे लोग तअज्जुब में हैं कि एक अनपढ़, मक्र पैगमरी का फ़ासिक़, अपने धुन में किस क़दर आमादा ए रुसवाई था कि हज़ारों मज़ाक बनने के बाद भी, फिटकारने और दुत्कारने के बाद भी, बे इज्ज़त और पथराव होने के बाद भी, मैदान से पीछे हटने को तैयार न था. फ़तह मक्का के बाद फिर तो ये फक्कड़ों और लाखैरों का रसूल जब फातेह बन कर मक्का में दाख़िल हुवा होगा तो शहर के साहिबे इल्म ओ फ़िक्र पर क्या गुजरी होगी. आँखें बन्द करके सब्र कर गए होंगे, अपनी आने वाली नस्ल के मुस्तक़बिल को सोच कर वह जीते जी मर गए होंगे.
दसियों लाख इंसानों का क़त्ल तो इस्लाम ने सिर्फ़ पचास साल में ही का डाला.

एक ही राग को मुहम्मद सूरह शुरू होने से पहले हर बार गाते हैं - - -


"ये नाज़िल की हुई किताब है, अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाले की तरफ़ से."सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (२)झूट को सौ बार बोलो मुहम्मद साहब! हज़ार बार बोलो, लाख बार बोलो, झूट; झूट ही रहेगा. चाहे जितना ज़ोर लगा कर बोलो, बहर हाल झूट झूट ही रहेगा. तुम्हारे चेले ओलिमा चौदह सौ सालों से झूट को दोहरा रहे हैं फिर भी झूट को सच्चाई में तब्दील नहीं कर पाए.
अल्लाह कहीं कोई बेहूदा आयत गढ़ता है? यही नहीं अल्लाह क्या बोलता भी है, सवाल ये उठता है कि मुहम्मदी अल्लाह क्या हो भी सकता है? जो दाँव पेंच की बातें करता है, फिर भी तुम्हारे जाल में फँसे इंसान आज फडफडा रहे हैं, तुम्हारे बारे में ज़बान खोलने पर मौत तक दे दी जाती हैं, बहुत मुनज्ज़म गिरोह बन गया है झूट का जो इंसानों को झूट को ओढने और बिछाने पर मजबूर किए हुए है.


"आसमान में और ज़मीन पर ईमान वालों के लिए बहुत से दलायल हैं और तुम्हारे और उन हैवानात के पैदा करने में जिनको ज़मीन पर फैला रखा है, दलायल हैं उन लोगों के लिए जो यक़ीन रखते हैं एक के बाद दीगरे रात और दिन के आने जाने में और उस रिज़्क के बारे में जिसको अल्लाह ने आसमान से उतरा "सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (३-५)निज़ाम ए क़ुदरत पर सतही और बे वक़ूफ़ाना तजज़िया को रूहानियत की पुडिया में भर कर मुहम्मद सीधे सादे लोगों को बेच रहे हैं.

"और ये अल्लाह की आयतें हैं जो सहीह सहीह तौर पर हम आपको पढ़ कर सुनाते हैं, तो फिर अल्लाह और इसकी आयातों के बाद और कौन सी बात पर ये लोग ईमान लावेंगे. बड़ी खराबी होगी हर ऐसे शख्स के लिए जो झूठा और नाफरमान है."
सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (६-७)
मुहम्मद की तर्ज़ ए गुफ्तुगू ही झूट होने की गवाह है कि वह अपनी गढ़ी आयातों को "सहीह सहीह तौर पर" जताने की कोशिश करते हैं.
"जो अल्लाह की आयातों को सुनता है, जब इसके रूबरू पढ़ी जाती हैं, फिर भी वह तकब्बुर करता हुवा, इस तरह अड़ा रहता है, जैसे उसने उनको सुना ही न हो. सो ऐसे शख्स को एक दर्द नाक अज़ाब की खबर सुना दीजिए. और जब वह हमारी आयातों में से किसी आयत की ख़बर पाता है तो इसकी हँसी उड़ाता है, ऐसे लोगों के लिए सख्त ज़िल्लत का अज़ाब है."सूरह जासिया -४५-परा - २५ आयत (८-९)क़ुरआन की हकीक़त यही थी, यही है आज भी है और यही हमेशा रहेगी. आप किसी मुसलमान को क़ुरआनी आयतें अनजाने में ही सुनाइए कि फलाँ धर्म ये बात कहता है तो वह इसकी खिल्ली उडाएगा मगर जब उसको बतलइए कि ये बात कुरआन की है तो वह अपमा मुँह पीट पीट कर तौबा तौबा करेगा..
मेरे मज़ामीन को बहुत से लोग कहते थे कि जाने कहाँ से आएँ बाएँ शाएँ का कुरआन पेश करता है ये मोमिन. जब मैं नोट लगाया - - -
"मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
तो सब की बोलती बंद हो गई.

कलामे दीगराँ - - -"कोई अच्छा पेड़ नहीं जो निकम्मा फल लाए, और न कोई ही निकम्मा पेड़ है जो अच्छा फल लाए. हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है""इंजील"
इसे कहते हैं कलाम पाक


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

2 comments:

  1. जीम मोमिन जी आप वास्‍तव में बहुत सटीक लिखते हैं, इतनी सुलझी हुई बातें इतने सरल और असरदार तरीके से लिखने के लिए मेरी ओर से हार्दिक धन्‍यवाद. अगर एक छोटी सी संख्‍या में भी मुस्लिम लोग आपकी बातों को समझ कर अपने आचरण तथा सोचने-समझने के तरीके में परिवर्तन ले आएं तो उनका तथा उनकी आने वाली नस्‍लों का भी कल्‍याण होगा.

    लेकिन ज्‍यादा अफसोस यह देखकर होता है कि अनपढ़ मुस्लिमों को तो छोडि़ए पढ़े-लिखे मुस्लिम युवक भी ब्‍लॉग जगत में कुरान में दर्ज इन घिसी-पिटी तथा वाहियात बातों को सही तथा जायज ठहराने के लिए नए से नए (कु)तर्क गढ़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं, और हैरतअंगेज बात यह है कि यह (कु)तर्क गढ़ने के लिए वे वैज्ञानिक तथा गणितीय सिद्धांतों को इस्‍तेमाल करने से भी बाज नहीं आते हैं.

    एक उदाहरण देना चाहूँगा, आपके अनूठे ब्‍लॉग से परिचय होने के बाद मैं इसके पहले भाग पर भी गया और वहॉं देखा कि एक पोस्‍ट में आपने कहा है कि सत्‍य वह होता है जो सार्वभौमिक हो, जैसे किसी त्रिकोण के तीनों कोनों के कोण को आप जोड़ें तो उसका जोड़ एक सीधी रेखा के बराबर होगा. अब मजा देखिए, एक पढ़ा लिखा मुस्लिम युवक जिसका नाम जीशान जैदी है, इसके जवाब में कहता है कि "त्रिभुज के तीन नोकदार कोनो का योग ज़रूरी नहीं एक सीधीरेखा हो. आप त्रिभुज को किसी घड़े जैसी सतह पर बनाकर देख लो". बताना चाहता हूँ कि जिस गणितीय सिद्धांत का इस व्‍यक्ति ने हवाला दिया है वह स्‍नातक स्‍तर अर्थात् B.Sc. स्‍तर के गणित भाषा के तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में समाहित है जिसे Spherical Trigonometry अथवा गोलीय त्रिकोणमिति के नाम से जाना जाता है, जिससे यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि यह व्‍यक्ति कम से कम स्‍नातक स्‍तर तक विज्ञान का छात्र रहा है. इसके अलावा इसके द्वारा प्रस्‍तुत किए गए (कु)तर्कों को पढ़कर भी जाना जा सकता है कि इसका मानसिक स्‍तर सामान्‍य से अच्‍छा ही है.

    मेरी वास्‍तविक चिंता यह है कि जब इस प्रकार के पढ़े लिखे मुस्लिम युवक भी कुरान में लिखी बकवास बातों को सही साबित करने के लिए जो (कु)तर्क देते हैं उनकी मजबूती के लिए वे विज्ञान का सहारा लेते हैं, तो आखिर पूरी तरह अनपढ़ तथा अशिक्षित मुस्लिम आखिर कैसे आपकी बात समझेंगे और सही राह पर चलेंगे? आखिर इस समस्‍या का क्‍या समाधान किया जाए क्‍योंकि यह समाधान भी हमें और आपको ही खोजना होगा.

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  2. बनाम - - -
    दिनेश प्रताप सिंह
    महोदय,
    ज़ीशान साहब ने अपने जवाब को समतल ज़मीन पर बैठ कर नहीं सोचा था, इस लिए उसमे सार्थकता नहीं है. वह इस्लामी घड़े पर बैठ कर ही लिखते, पढ़ते हैं..कोई मुसलमान हमवार ज़मीन पर आने के लिए तय्यार ही नहीं, यही इस कौम की विडंबना है. इनमें जो समझ बूझ रखने वाले हैं, वह समाज पर काबिज़ मज़हबी गुंडों से खौफ ज़दा बुज़दिल हैं. एक मौलाना ने मुझे फोन पर गाली देते हुए मेरी वल्दियत पर उंगली उठाई और मुझे गायब करा देने की तालिबानी धमकी भी दी. ज्यादा हिस्सा इस समाज के बुद्धि जीवी इन्हीं मज़हबी गुंडों से डरते है.
    मैं भी समाजी एतबार से ठाकुर हूँ . हमारे पूर्वज हिन्दू धर्म के ढंगोंसलों से कुपित होकर शेर शाह सूरी के शरण में जाकर इस्लाम धर्म ग्रहण किया था,वह एक रियासत(?) के राजा हुवा करते थे. और मैं इन दोनों के बीच मुअललक़ (टंगा हुआ) फ़क़त इंसान बन कर रह गया हूँ .
    मैंने एक नज़्म "मुस्लिम राजपूतों के नाम) अपने लेखों के साथ पूर्व अंकों में संलग्न किया है उसे ज़रूर पढ़ें.

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