Tuesday 24 May 2011

सूरह अलक़ ९६ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३०
(इकरा बिस्मरब्बे कल लज़ी ख़लक़ा)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मैं कभी कभी उन ब्लॉगों पर चला जाता हूँ जो मुझे दावत देते है कि कभी मेरे घर भी आइए. उनके घरों में घुसकर मुझे मायूसी ही हाथ लगती है. उनके मालिकन अक्सर अज्ञान हिन्दू और नादान मुसलमान होते हैउनके फालोवर्स एक दूसरे को इनवाईट करते हैं कि आओ,
मेरी माँ बहने हाज़िर हैं, इनको तौलो.
इन बेहूदों को इससे कम क्या कहा जा सकता है.
ये दोनों एक दूसरे का मल मूत्र खाने और पीने के लिए अपने खुले मुँह पेश करते हैं. इनके पूज्य और माबूद अपनी तमाम कमियों के साथ आज भी इनके पूज्य और माबूद बने हुए हैं.
ज़माना बदल गया है उनके देव नहीं बदले. उनको भूलने और बर तरफ़ करने ज़रुरत है न कि आस्थाओं की बासी कढ़ी को उबालते रहने की.

युग दृष्टा हमारे वैज्ञानिक ही सच पूछो तो हमारे देवता और पयम्बर हैं जो, हमें जीवन सुविधा प्रदान किए रहते है. इनकी पूजा अगर करने के लिए जाओ तो ये तुम्हारी नादानी पर मुस्कुरा देंगे और तुम्हें आशीर्वाद स्वरूप अपनी अगली इंसानी सुविधा का पता देगे.
लेंगे नहीं कुछ भी.

हम दिन रात उनकी प्रदान की हुई बरकतों को ओढ़ते बिछाते हैं और उनके ही आविष्कारो को अपने फ़ायदे के सांचे में ढालकर एक दूसरे पर कीचड उछालते हैं, क्या ये ब्लागिंग की सुविधा हमारे वैज्ञानिकों की देन नहीं है? ये शंकर जी या मुहम्मदी फरिश्तों की देन है, जिसके साथ हम अपना मुँह काला करते रहते हैं.
अल्लाह मुहम्मद से कहता है - - -
"आप कुरआन को अपने रब का नाम लेकर पढ़ा कीजिए,
जिस ने पैदा किया ,
जिसने इंसानों को खून के लोथड़े से पैदा किया,
आप कुरआन पढ़ा कीजे, और आपका रब बड़ा करीम है,
जिसने क़लम से तालीम दी,
उन चीजों की तालीम दी जिनको वह न जनता था,
सचमुच! बेशक!! इंसान हद निकल जाता है,
अपने आपको मुस्तगना देखता है,
ऐ मुखातब! तेरे रब की तरफ ही लौटना होगा सबको.
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३० आयत (१-९)
ऐ मुखातब उस शख्स का हाल तो बतला,
जो एक बन्दे को मना करता है, जब वह नमाज़ पढता है,
ऐ मुखाताब भला ये तो बतला कि वह बंदा हिदायत पर हो,
या तक़वा का तालीम देता हो,
ऐ मुखाताब भला ये तो बतला कि अगर वह शख्स झुट्लाता हो और रू गरदनी करता हो,
क्या उस शख्स को ये खबर नहीं कि अल्लाह देख रहा है,
हरगिज़ नहीं, अगर ये शख्स बाज़ न आएगा तो हम पुट्ठे पकड़ कर जो दरोग़ और ख़ता में आलूदा हैं, घसीटेंगे.सो ये अपने हम जलसा लोगों को बुला ले.
हम भी दोज़ख के प्यादों को बुला लेंगे."
सूरह अलक़ ९६ - पारा ३० आयत (१०-१९)
नमाज़ियो!
जब हमल क़ब्ल अज वक़्त गिर जाता है तो वह खून का लोथड़ा जैसा दिखता है, मुहम्मद का मुशाहिदा यहीं तक है, जो अपने आँख से देखा उसे अल्लाह की हिकमत कहा. वह कुरान में बार बार दोहराते हैं कि " जिसने इंसानों को खून के लोथड़े से पैदा किया'' इंसान कैसे पैदा होता है, इसे मेडिकल साइंस से जानो.
इंसान को क़लम से तालीम अल्लाह ने नहीं दी, बल्कि इंसान ने इंसान को क़लम से तालीम दी. क़लम इन्सान की ईजाद है. कुदरत ने इंसान को अक्ल दिया कि उसने सेठे को क़लम की शक्ल दी, उसके बाद लोहे को और अब कम्प्युटर को शक्ल दे रहा है. मुहम्मद किसी बन्दे को मुस्तगना (आज़ाद) देखना पसंद नहीं करते.सबको अपना असीर देखना चाहते हैं बज़रीए अपने कायम किए अल्लाह के.
ये आयतें पढ़ कर क्या तुम्हारा खून खौल नहीं जाना चाहिए कि मुहम्मदी अल्लाह इंसानों की तरह धमकता है "अगर ये शख्स बाज़ न आएगा तो हम पुट्ठे पकड़ कर जो दरोग़ और ख़ता में आलूदा हैं, घसीटेंगे.सो ये अपने हम जलसा लोगों को बुला ले. हम भी दोज़ख के प्यादों को बुला लेंगे."
क्या मालिके-कायनात की ये औकात रह गई है?
मुसलमानों अपने जीते जी दूसरा जनम लो. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ. मोमिन मज़हब वह होगा जो उरियाँ सच्चाई को कुबूल करे. कुदरत का आईनादार और ईमानदार. इस्लाम तुम्हारे साथ बे ईमानी है. इंसान का बुयादी हक है इंसानियत के दायरे में मुस्तगना (आज़ाद) होकर जीना, .

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment