Wednesday 25 May 2011

सूरह क़द्र ९७ - पारा ३०

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह क़द्र ९७ - पारा ३०
(इन्ना अनज़लना फी लैलतुल क़द्र)

ऊपर उन (७८ -११४) सूरतों के नाम उनके शुरूआती अल्फाज़ के साथ दिया जा रहा हैं जिन्हें नमाज़ों में सूरह फातेहा या अल्हम्द - - के साथ जोड़ कर तुम पढ़ते हो.. ये छोटी छोटी सूरह तीसवें पारे की हैं. देखो और समझो कि इनमें झूट, मकर, सियासत, नफरत, जेहालत, कुदूरत, गलाज़त यहाँ तक कि मुग़ललज़ात भी तुम्हारी इबादत में शामिल हो जाती हैं. तुम अपनी ज़बान में इनको पढने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. ये ज़बान ए गैर में है, वह भी अरबी में, जिसको तुम मुक़द्दस समझते हो, चाहे उसमे फह्हाशी ही क्यूँ न हो..
इबादत के लिए रुक़ूअ या सुजूद, अल्फाज़, तौर तरीके और तरकीब की कोई जगह नहीं होती, गर्क ए कायनात होकर कर उट्ठो तो देखो तुम्हारा अल्लाह तुम्हारे सामने सदाक़त बन कर खड़ा होगा. तुमको इशारा करेगा कि तुमको इस धरती पर इस लिए भेजा है कि तुम इसे सजाओ और सँवारो, आने वाले बन्दों के लिए, यहाँ तक कि धरती के हर बाशिदों के लिए. इनसे नफरत करना गुनाह है, इन बन्दों और बाशिदों की खैर ही तुम्हारी इबादत होगी. इनकी बक़ा ही तुम्हारी नस्लों के हक में होगा.

मैं कुरआन को एक साजिशी मगर अनपढ़ दीवाने की पोथी मानता हूँ और मुसलामानों को इस पोथी का दीवाना.
एक गुमराह इंसान चार क़दम भी नहीं चल सकता कि राह बदल देगा, ये सोच कर कि शायद वह गलत राह पर ग़ुम हो रहा है. इसी कशमकश में वह तमाम उम्र गुमराही में चला करता है. मुसलमानों की जेहनी कैफियत कुछ इसी तरह की है, कभी वह अपने दिल की बात मानता है, कभी मुहम्मदी अल्लाह की बतलाई हुई राह को दुरुस्त पाता है. इनकी इसी चाल ने इन्हें हज़ारों तबके में बाँट दिया है. अल्लाह की बतलाई हुई राह में ही राह कर कुछ अपने आपको तलाश करता है तो वह उसी पर अटल हो जाता है. जब वह बगावत कर के अपने नज़रिए का एलान करता है तो इस्लाम में एक नया मसलक पैदा होता है.यह अपनी मकबूलियत की दर पे तशैया (शियों का मसलक) से लेकर अहमदिए (मिर्ज़ा ग़ुलाम मुहम्मद कादियानी) तक होते हुए चले आए हैं. नए मसलक में आकर वह समझने लगते है कि हम मंजिल ए जदीद पर आ पहुंचे है, मगर दर असल वह अस्वाभाविक अल्लाह के फंदे में नए सिरे से फंस कर अपनी नस्लों को एक नया इस्लामी क़ैद खाना और भी देते है.
कोई बड़ा इन्कलाब ही इस कौम को रह ए रास्त पर ला सकता है जिसमे काफी खून खराबे की संभावनाएं निहित है. भारत में मुसलामानों का उद्धार होते नहीं दिखता है क्यूंकि इस्लाम के देव को अब्दी नींद सुलाने के लिए हिंदुत्व के महादेव को अब्दी नींद सुलाना होगा. यह दोनों देव और महा देव, सिक्के के दो पहलू हैं.
मुसलामानों इस दुन्या में एक नए मसलक का आग़ाज़ हो चुका है, वह है तर्क ए मज़हब और सजदा ए इंसानियत. इंसानों से ऊँचे उठ सको तो मोमिन की राह को पकड़ो जो कि सीध सड़क है.

जिस बात को अल्लाह बेशक से शुरू करता है, उसमे मुकम्मल शक करने की ज़रुरत है, देखो - - -

"बेशक हमने कुरआन को शब ए क़द्र में उतरा है,
और आपको कुछ मालूम है कि शब ए कद्र क्या चीज़ होती है,
शब ए कद्र हज़ार महीनों से बेहतर है,
इस रात में फ़रिश्ते रूहुल क़ुद्स अपने परवर दिगार के हुक्म से अम्र ए ख़ैर को लेकर उतरते हैं, सरापा सलाम है.
वह शब ए तुलू फजिर तक रहती है".
सूरह इन्शिराह ९४ - पारा ३० आयत (१-५)

नमाज़ियो !
मुहम्मदी अल्लाहसूरह में कुरआन को शब क़द्र की रात को उतारने की बात कर रहा है
तो कहीं पर कुरआन माहे रमजान में नाज़िल करने की बात करता है, जबकि कुरआन मुहम्मद के खुद साख्ता रसूल बन्ने के बाद उनकी आखरी साँस तक, तक़रीबन बीस साल चार माह तक मुहम्मद के मुँह से निकलता रहा. मुहम्मद का तबई झूट आपके सामने है. मुहम्मद की हिमाक़त भरी बातें तुम्हारी इबादत बनी हुई हैं, ये बडे शर्म की बात है. ऐसी नमाज़ों से तौबा करो. झूट बोलना ही गुनाह है, तुम झूट के अंबार के नीचे दबे हुए हो. तुम्हारे झूट में जब जिहादी शर शामिल हो जाता है तो वह बन्दों के लिए ज़हर हो जाता है. तुम दूसरों को क़त्ल करने वाली नमाज़ अगर पढोगे तप सब मिल कर तुमको ख़त्म कर देंगे. मुस्लिम से मोमिन हो जाओ, बड़ा आसान है. सच बोलना, सच जीना और सच ही पर जन देना पढो और उसपर अमल करो, ये बात सोचने में है पहाड़ लगती है, अमल पर आओ तो कोई रूकावट नहीं.
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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