Tuesday 23 August 2011

सूरह अलमायदा 5

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.



सूरह मायदा -5 तीसरी किस्त
 

तालिबान अफगानिस्तान से खदेडे जाने के बाद अब पाकिस्तान पर जोर आजमाई कर रहा है,बिलकुल इसलाम का प्रारंभिक काल दोहराया जा रहा है, जब मुहम्मद बज़ोर गिजवा (जंग) हर हाल में इसलाम को मदीना के आस पास फैला देना चाहते थे। वह अपने हुक्म को अल्लाह का फ़रमान क़ुरआनी आयतों द्वारा प्रसारित और प्रचारित करते. लोगों को ज़बर दस्ती जेहाद पर जाने के लिए आमादा करते, लोग अल्लाह के बजाय उनको ही परवर दिगर! कह कर गिडगिडाते कि "आप हम को क्यूं मुसीबत में डाल रहे हैं ? तो वह ताने देते की औरतों की तरह घरों में बैठो.

मज़े की बात ये कि जंगी संसाधन भी खुद जुटाओ. एक ऊँट पर ११-११ जन बैठते. ये सब क़ुरआन में साफ साफ़ है जिसे इस्लामी विद्वान छिपाते हैं और जालिम तालिबान सब जानते हैं. आज भी तालिबान अपने अल्लाह द्वतीय मुहम्मद के ही पद चिन्हों पर चल रहे है. इन्हें इंसानी ज़िन्दगी से कोई लेना देना नहीं, बस मिशन है इस्लाम का प्रसार। इसी में उनकी हराम रोज़ी का राज़ छुपा है.

इधर पाकिस्तान का धर्म संकट है कि इस्लाम के नाम पर बन्ने वाला पाकिस्तान जब तालिबानियों द्वारा इस्लामी मुल्क पूरी तरह बन्ने की दर पर है तो उसकी हवा क्यूं ढीली हो रही है? उसका रूहानी मिशन तो साठ साल बाद मुकम्मल होने जा रहा है. निजामे मुस्तफा ही तो ला रहे हैं ये तालिबानी.

मुस्तफा यानी मुहम्मद जो बच्ची के पैदा होने को औरत का पैदा होना कहते थे (क़ुरआन में देखें ) औरत पर पर्दा लाजिम है. मुहम्मद ने सात साला औरत आयशा के साथ शादी रचाई, आठ साल में उस से सुहाग रात मनाई और परदे में बैठाया,

तालिबान अपने रसूल की पैरवी करके क्या गलत कर रहे हैं? उनको ख़त्म करके पाकिस्तान इस्लाम को क़त्ल कर रहा है, कोई मुल्ला उसे फतवा क्यूं नहीं दे रहा?

"मुहम्मद मैले कपडे लादे रहते" इस ज़रा सी बात पर पाकिस्तान न्यायलय ने एक ईसाई बन्दे को तौहीन ए रिसालत के जुर्म में सजाए मौत दे दिया था, आज पाक अद्लिया किं कर्तव्य विमूढ़ क्यूँ ? पाक इसलाम के तलिबों से लड़ने के साथ साथ कुफ्र से भी (भारत) लडाई पर आमादा है. कहते हैं कि उसकी एटमी हत्यारों का रुख भारत की ओर है.

यह पाकिस्तान की गुमराही ही कही जाएगी.मज़हब के नाम पर जो हमारे बड़ों ने अप्रकृतिक बटवारा किया था उसका बुरा अंजाम सामने है, बहुत बुरा हो जाने से पहले हम को सर जोड़ कर बैठना चहिए कि हम १९४७ की भूल सुधारें और फिर एह हो जाएँ. इसतरह कल का हिदोस्तान शायद दुन्या कि नुमायाँ हस्ती बन कर लोगों कि आँखें खैरा कर दे। मगर भारत के हिदुत्व के पाखंड को भी साथ साथ ख़त्म करना होगा जो कि इस्लामी नासूर से कम नहीं।

लीजिए शुरू होती है क़ुरआनी गाथा - -

"यकीनन जो लोग काफ़िर हैं अगर उनके पास दुनिया भर की तमाम चीजें हों और उन चीज़ों के साथ उतनी चीजें और भी हों ताकि वोह उनको देकर रोजे क़यामत के अज़ाब से छुट जाएं, तब भी वोह चीजें उन से कुबूल न की जाएँगी और उनको दर्द नाक अजाब होगा."

"सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (36)

इंसानी समाज में गरीब अवाम हमेशा ही ज्यादा रहे है. गरीब और अमीर की अज़्ली जंग भी हमेशा जारी रही है. गरीब अमीरों से नफ़रत तभी तक क़ायम रखता है जब तक अमारत को वोह खुद छू नहीं लेता और फिर वह अपने ही समाज की नफरत, हसद और लूट का शिकार बन जाता है. ईसा का कहना था ऊँट सूई के नाके से निकल सकता है मगर दौलत मंद जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स ने इस इंसानी समाज का गनीमत हल निकाला, माओ ज़े तुंग ने इस को अमली जामा पहनाया जो अभी तक अपने आप में इज्तेहाद (सुधार) के साथ कामयाब है और बेदाग है. वहां इन इस्लामी आलिमों जैसी कोई नापाक मखलूक(जीव) या उसका बीज नहीं बचा है. कई कम्युनिस्ट मुमालिक के रहनुमाओं ने इसकी ना जायज़ औलाद जन्मी और नापैद हुए. मुहम्मद ने भी गुरबत की दुखती रग पर ही हाथ रख कर इतनी कामयाबी हासिल की, मगर उनकी तहरीक में सच्चाई की जगह खुराफ़ात थी और उनके बाद ही उनकी नस्ल में हसन ऐश और अय्याशी के शिकार होकर ज़िल्लत की मौत मरे. हुसैन अपने मासूम भानजों भतीजे, बच्चो और खानदान के दीगर लोगों को कुर्बान कर के खुद को इस्लामी फौज के हवाले किया,

सिर्फ खिलाफत की लालच में. मुहम्मद की आमाल की बुरी सज़ा उनकी नस्लों को मिली. काफ़िर इसलाम के वजूद में आने के बाद से लेकर आज तक धरती पर सुर्ख रू हैं. मुस्लमान ऊपर की आसमानी दौलत के चक्कर में दुनया की एक पिछड़ी क़ौम बन कर रह गई है. भारत में काफ़िरों की संगत में रह कर कुछ मुस्लमान अपनी हैसियत बनाने में कामयाब है, ख्वाह वोह सनअत में हों या फ़नकार हों,

जिन पर आम मुस्लमान फख्र करते हैं और ये फटीचर मौलाना उनके सामने चंदे की रसीद लिए खड़े रहते हैं.


"और जो औरत या मर्द चोरी करे, सो उन दोनों के दाहिने हाथ गट्टे से काट डालो. इन के किरदार के एवाज़, बतोर सजा के, अल्लाह की तरफ से और अल्लाह ताला बड़ी कूवत वाले हैं और बड़ी हिकमत वाले हैं."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (38)

आज भी यह क़ानून सऊदी अरब में लागू है। काश कि यह वहशियाना क़ानून दुनया के तमाम मुल्कों में सिर्फ मुसलमानों पर लागू कर दिया जाए जिस तरह शादी और तलाक़ को मुस्लमान पर्सनल ला बना कर अलग अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाए हुए है. कोई मुस्लिम तन्जीम या ओलिमा इस आयत को लेकर मैदान में नहीं उतरते कि

मुस्लिम चोरों और उठाई गीरों के दाहिने हाथ गट्टे से काट दी जाएं. उन के लिए जो जेहाद के बहाने बस्तियों पर डाका डालते थे, मुहम्मद ने कोई सजा नहीं रखी , उनकी लूट को तो गनीमत करके निगलने जाने का फरमान है.

चवन्नी की चोरी पर हाथ को घुटनों से काट देने का हुक्म? इंसान किन हालात में चोरी करने पर मजबूर होता है, ये बात कोई उम्मी सोंच भी नहीं सकता.कुरानी अल्लाह का यहूदियों से खुदाई बैर चलता रहता है. इनका वजूद भी इसे अज़ीज़ है और इन की दुश्मनी भी. ज़बरदस्ती उनको अपना गवाह बनाए रहता है. इनकी कज अदाई पर कहता है - - -

" - - - और जिस को ख़राब होना ही अल्लाह को मंज़ूर हो तो इसके लिए अल्लाह से तेरा कोई जोर नहीं, यह लोग ऐसे हैं कि अल्लाह को इनके दिलों को पाक करना मंज़ूर नहीं. यह लोग गलत बात सुनने के आदी हैं, हराम खाने वाले हैं."

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (41)

मुस्लमानो!

अपने अल्लाह से पूंछो कि अगर बड़ी ताक़त वाला और बड़ी हिकमत वाला है तो इस ज़रा से काम में क्या क़बाहत है कि लोगों के दिलों को पाक कर दे. चुटकी बजाते ही ये काम उसके बस का है, और अगर नहीं कर सकता तो वोह भी बन्दों की तरह बेबस है. अगर वोह उनके दिलों को नापाक ही रहने देना चाहता है तो यह कुरानी नौटंकी क्यूँ?

क्या उसको अपना जाँ नशीन चुनने के लिए मुहम्मद जैसा मक्के का महा-मूरख ही मिला था जो तमाम दुन्या में जेहालत की खेती करा रहा है.?


कुरानी अल्लाह की यह बात भी दावते फ़िक्र देती है - - -

" और हम ने उन पर इस में ये बात फ़र्ज़ की थी कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और खास ज़ख्मों का बदला भी, फिर भी इस के लिए जो मुआफ करदे, वोह उसके लिए कुफ्फारा हो जाएगा - - - "

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (45)

मुन्तक़िम अल्लाह और मुन्तक़िम रसूल के कानून इस से कम क्या हो सकते हैं.जेहालत को नए सिरे से लाने वाले अल्लाह के बने रसूल कहते हैं - - -

" यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"

सूरह अलमायदा 5 छटवाँ पारा-आयत (50)

बाबा इब्राहीम का दौर इरतेकाई (रचना कालिक) दौर के हालात जेहालत की मजबूरी में कहे जा सकते हैं. फिर मूसा का दौर आते आते जेहालत की गाठें खुलती हैं मगर बरक़रार रहीं. ईसा ने इसे खोल कर इंसानी समाज को बड़ी राहत बख्शी. अरब दुन्या भी इस से फैज़याब हुई. .कुरआन गवाह है कि उम्मी मुहम्मद ने ईसा के किए धरे पर पानी फेर दिया और आधी दुन्या पर एक बार फिर जेहालत का गलबा हो गया. ताजुब है वह ही कह रहा है " यह लोग क्या फिर ज़माना ए जेहालत का फैसला चाहते हैं?"

मुसलमान ही जाग कर अपनी किस्मत बदल सकते हैं, वगरना दुश्मने मुस्लमान यह सियासत दान और हरामी ओलिमा मुसलमानों को कभी भी जागने नहीं देंगे.


''यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त मत बनाना , वह एक दूसरे के दोस्त हैं और तुम में से जो शख्स उन से दोस्ती करेगा, बेशक वोह इन्हीं में से होगा।" नतीजे में आज सिर्फ ईसाई और यहूदी ही नहीं कोई कौम भी खुद मुसलमानों को दोस्त बनाना पसंद नहीं करती, यहाँ तक की मुसलमान भी एक बार मुसलमान को दोस्त बनाने के लिए सौ बार सोचता है.



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. लोगों को अक्ल क्यों दी गयी है, इसलिये कि जान सकें कि भला क्या है और बुरा क्या, लेकिन जब सोने का दिखावा करें तो उसे उठाये कौन भला.

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