Friday 20 January 2017

Soorah waqeaa 56 - 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह वाक़ेआ ५६ - पारा २७  (2)

आज क़ुरआनी बातों से क्या एक दस साल के बच्चे को भी बहलाया जा सकता है? 
मगर मुसलमानों का सानेहा है कि एक जवान से लेकर बूढ़े तक इसकी आयतों पर ईमान रखते हैं. 

वह झूट को झूट और सच को सच मान कर अपना ईमान कमज़ोर नहीं करना चाहते, 
वह कभी कभी माहौल और समाज को निभाने के लिए मुसलमान बने रहते  है. वह इन्हीं हालत में ज़िन्दगी बसर कर देना चाहते है. 
ये समझौत इनकी खुद गरजी है.
वह अपने नस्लों के साथ गुनाह कर रहे है, इतना भी नहीं समझ पाते.  
इनमें बस ज़रा सा सदाक़त की चिंगारी लगाने की ज़रुरत है. फिर झूट के बने इस फूस के महल में ऐसी आग लगेगी कि अल्लाह का जहन्नुम जल कर ख़ाक हो जाएगा.
देखिए अल्लाह क्या बकता है - - -

"फिर जमा होने के बाद तुमको, ए गुमराहो ! झुटलाने वालो! दरख़्त ज़कूम से खाना होगा,
 फिर इससे पेट को भरना होगा,
फिर इस पर खौलता हुवा पानी,
पीना भी प्यासे होंटों का सा, (ऐसे जुमलों की इस्लाह ओलिमा करते हैं)
इन लोगों की क़यामत के रोज़ दावत होगी."
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (५१-५६)

मुहम्मद अपने ईजाद किए हुए मज़हब को, जेहने इंसानी में अपने आला फ़ेल, का एक नमूना बना कर पेश करने की बजाए, इंसान को अपने ज़ेहन के फितूर से डराते हैं वह भी निहायत भद्दे तरीके से.
( ज़कूम दोज़ख का एक खारदार और बद ज़ायक़ा पेड़  मुहम्मदी अल्लाह खाने  को देगा मैदाने हश्र में.)

"अच्छा बताओ, जो औरतों के रहम में मनी पहुँचाते हो," 
( लाहौल वला कूवत )
इनको तुम आदमी बनाते हो या हम.? 
(एक मज़हबी किताब में इससे ज्यादह फूहड़ पन क्या हो सकता है. नमाज़ में इस बात को सोंच कर देखें)
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ -पारा आयत (५८-५९)

अच्छा बताओ जो कुछ तुम बोते हो, उसे तुम उगाते  हो या हम? 
( जब बोया हुवा क़हत की वजेह से उगता ही नहीं तो अकाल पद जाता है, कौन ज़िम्मेदार है ? ए कठ  मुल्लाह )
अच्छा फिर तुम ये बताओ कि जिस पानी को तुम पीते हो ,
उसको बादल से तुम बरसाते हो या की हम?अगर हम चाहें तो इसे कडुवा कर डालें, तो फिर तुम शुक्र अदा क्यूं नहीं करते"
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (६८-६९)

क्या इन बेहूदगियों में कोई जान है?
इसके जवाब में ऐसी ही बेहूदगी पेश करके मुहम्मद के भूत को शर्मसार किया जा सकता है.

अच्छा फिर बताओ कि जिस आग को तुम सुलगते हो इसके दरख़्त को तुम ने पैदा किया या हम ने?
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (७०-७२)

मुहम्मदी अल्लाह बतला कि बन्दे उसकी लकड़ी से खूब सूरत फर्नीचर बनाते हैं, क्या यह तेरे बस का है कि पेड़ में फर्नीचर फलें ?

"सो आप अज़ीम परवर दिगार के नाम की तस्बीह कीजिए."
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (८४)

सो परवर दिगार के बख्शे हुए दिमाग का मुसबत इस्तेमाल करो.
सो मैं क़सम खता हूँ सितारों की छिपने की,
और अगर तुम गौर करो तो ये एक बड़ी क़सम है की ते एक मुकर्रम कुरान है.
हम इस गौर करने पर अपना दिमाग नहीं खपाते, हम तो ये जानते हैं कि हमारे मुँह से निकली हुई हाँ और ना ही हमारी क़सम हैं. हमें किसी ज़ोरदार क़सम की कोई अहमियत नहीं है.
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (७५-७६)
सो क्या तुम कुरआन को सरसरी बात समझते हो और तकज़ीब  को अपनी गिज़ा? 

मुहम्मदी अल्लाह! तेरी सरसरी में कोई बरतत्री नहीं है, बल्कि झूट, बोग्ज़ और नफ़रत खुद तेरी गिज़ा है,
सूरह वाक़ेआ ५६ - पारा २७ -आयत (८१-८२)

और जो शख्स दाहिने वालों में से होगा तो उससे कहा जाएगा तेरे लिए अमन अमान है कि तू दाहिने वालों में से है
और जो शख्स झुटलाने वालों, गुमराहों में होगा खौलते हुए पानी से इसकी दावत होगीऔर दोज़ख में दाखिल होना होगा. बे शक ये तह्कीकी और यक़ीनी है.
सूरह वाक़ेआ ५६ - २७ - पारा आयत (९०-९५)

ऐ इस्लामी! अल्लाह तू इंसानियत का सब से बड़ा और बद तरीन मुजरिम है, जितना इंसानी लहू तूने पिया है, उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. एक दिन इंसान की अदालत में तू पेश होगा फिर तेरा नाम लेवा कोई न होगा और सब तेरे नाम पर थूकेंगे.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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