Friday 17 February 2017

Soorah Talaa q 65

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
***************


सूरह तलाक़ ६५ 

मैं फिर इस बात को दोहराता हूँ कि मुस्लमान समझता है कि इस्लाम में कोई ऐसी नियमावली है जो उसके लिए मुकम्मल है, ये धारणा  बिलकुल बे बुन्याद है, बल्कि कुरआन के नियम तो मुसलामानों को पाताल में ले जाते हैं. मुसलामानों ने कुरानी निजाम ए हयात को कभी अपनी आँखों से नहीं देखा, बस कानों से सुना भर है. इनका कभी कुरआन का सामना हुवा है, तो तिलावत के लिए. मस्जिदों में कुवें के मेंढक मुल्ला जी अपने खुतबे में जो उल्टा सीधा समझाते हैं, ये उसी को सच मानते हैं. 
जदीद तालीम और साइंस का स्कालर भी समाजी लिहाज़ में आकर जुमा जुमा नमाज़ पढने चला ही जाता है. इसके माँ बाप ठेल ढकेल कर इसे मस्जिद भेज देते हैं, वह भी अपनी आकबत की खातिर. मज़हब इनको घेरता है कि हश्र के दिन अल्लाह इनको जवाब तलब करेगा कि अपनी औलाद को टनाटन मुसलमान क्यूँ नहीं बनाया ? और कर देगा जहन्नम में दाखिल. 
कुरआन में ज़मीनी ज़िन्दगी के लिए कोई गुंजाईश नहीं है, जो है वह क़बीलाई है, निहायत फ़रसूदा. 
क़ब्ल ए इस्लाम, अरबों में रिवाज था कि शौहर अपनी बीवी को कह देता था कि 
"तेरी पीठ मेरी माँ या बहन की तरह हुई," 
बस उनका तलाक हो जाया करता था. 
इसी तअल्लुक़ से एक वक़ेआ पेश आया कि कोई ओस बिन सामत नाम के शख्स ने गुस्से में आकर अपनी बीवी हूला को तलाक़ का मज़कूरा जुमला कह दिया. बाद में दोनों जब होश में आए तो एहसास हुआ कि ये तो बुरा हो गया. इन्हें अपने छोटे छोटे बच्चों का ख़याल आया कि इनका क्या होगा? दोनों मुहम्मद के पास पहुँचे और उनसे दर्याफ़्त किया कि उनके नए अल्लाह इसके लिए कोई गुंजाईश रखते हैं ? कि वह इस आफत ए नागहानी से नजात पाएँ. 
मुहम्मद ने दोनों की दास्तान सुनने के बाद कहा तलाक़ तो हो ही गया है, इसे फ़रामोश नहीं किया जा सकता. बीवी हूला खूब रोई पीटी और मुहम्मद के सामने गींजी कि नए अल्लाह से कोई हल निकलवाएँ. फिर हाथ उठा कर सीधे अल्लाह से वह मुख़ातिब हुई और जी भर के अपने दिल की भड़ास निकाली, तब जाकर अल्लाह पसीजा और मुहम्मद पर वह्यी आई. इसी रिआयत से इस सूरह का नाम सूरह तलाक़ पड़ा, वैसे होना तो चाहिए सूरह हूला. 
अब देखिए और सुनिए अल्लाह के रसूल पर आने वाली वहियाँ यानी ईश वाणी - - -
" ए पैगम्बर ! 
जब तुम लोग औरतों को तलाक़ देने लगो तो उनको इद्दत से पहले तलाक़ दो और तुम इद्दत को याद रखो और अल्लाह से डरते रहो जो तुम्हारा रब है. इन औरतों को इनके घरों से मत निकालो और न वह औरतें खुद निकलें, मगर हाँ अगर कोई खुली बे हयाई करे तो और बात है. ये सब अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए एहकाम हैं." 

"फिर जब औरतें इद्दत गुजरने के करीब पहुँच जाएँ, इनको कायदे के मुवाफिक निकाह में रहने दो या कायदे के मुवाफिक इन्हें रिहाई देदो और आपस में दो मुअत्बर शख्सों को गवाह कर लो." 

"तुम्हारी बीवियों में जो औरतें हैज़ (मासिक धर्म) आने से मायूस हो चुकी हैं, अगर तुमको शुब्हः है तो इनकी इद्दत तीन महीने है और इसी तरह जिनको हैज़ नहीं आया और हामला औरतों का इनके हमल का पैदा हो जाना है."

"जो शख्स अल्लाह औए उसके रसूल की पूरी इताअत करेगा, अल्लाह तअला उसको ऐसी बहिश्तों में दाखिल कर देंगे जिसके नीचे नहरें जारी होंगी, हमेशा हमेशा इनमें रहेंगे. ये बड़ी कामयाबी है." 

अल्लाह की आकाश वाणी कुछ समझ में आई? 
पता नहीं इन आयतों से ओस बिन सामत और हूला बी की बरबादियों का कोई हल निकला या नहीं, 
इनको रोजों से नजात तो नहीं मिली अलबत्ता नमाज़ें इनके गले और पड़ गईं. कहीं कोई हल तो नाजिल नहीं हुवा . हाँ बे सिर पैर की बातें ज़रूर नाज़िल हो गईं. इस अल्लाही एहकाम में चौदह सौ सालों से माहरीन दीनयात ज़रूर मुब्तिला है कि वह आपस में मुख्तलिफ रहा करते हैं. तलाक के बाद शौहर का घर बीवी के लिए अपना कहाँ रह जाता है कि वह वहाँ जमी रहे और इद्दत के दौरान शौहर उसके साथ मनमानी करता रहे.

गौर तलब है कि मुहम्मद ने हमेशा मर्दों को ही इंसान का दर्जा दिया है. 
ये सारी मुहम्मदी नाज़ेबगी आज रायज नहीं है, पहले रही होगी. इसको सुधार कर ही शरअ को एक पैकर दिया गया है जो कि दर अस्ल एहकाम ए इलाही में इन्सान की मुदाखलत का नतीजा है, वर्ना अल्लाह की गुत्थी और भी उलझी हुई होती. 
अल्लाह की बातें पहले भी मुज़ब्ज़ब थीं और आज भी मुज़ब्ज़ब हैं. जैसे इस्लामी शरअ कुरआन को तराश खराश कर इस्लाम के बहुत दिन बाद बनाई गई, वैसे ही आज भी इसमें तबदीली की ज़रुरत है और इतनी ज़रुरत है कि आज इस्लाम की खुल कर मुखालिफत की जाए. खास कर औरतों के हक में इस्लाम निहायत ज़ालिम ओ जाबिर है, अफ़सोस कि यही औरतें इस्लाम की ज्यादह पाबंद है. वह सुब्ह उठ कर कुरआन की तिलावत को मख्खियों की तरह भिनभिनाने लगती हैं. वह अपने ही खिलाफ उतरी अल्लाह की आयातों पर मर्दों से ज्यादह ईमान रखती है. इनको इनका अल्लाह अकले सलीम दे.५०% की ये इंसानी आबादी अगर जग जाए तो मुसलामानों की दुन्या बदल सकती है.
कोई हूला नहीं पैदा हो रही कि अल्लाह को इन नाकिस आयातों पर अल्लाह को तलब करे. 
तमिल नाडू की कुछ मुस्लिम औरतें अपनी अलग एक मस्जिद बना कर उसमें पेश इमामी खुद करती है, इससे मर्दों का गलबा उन पर से उठा है. 
इसे इनकी बेदारी कहें या नींद? 

आजतक वह कठ मुल्लों की गिरफ्त में थीं, 
अब वह कठ मुल्लियों की गिरफ्त में होंगी. 
खवातीन की मस्जिद में भी मुहम्मदी अल्लाह के कानून कायदे होंगे. 
क्या इस मस्जिद में उन क़ुरआनी आयतों का बाई काट किया जाएगा जो औरतों को रुसवा करती हैं. 


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

No comments:

Post a Comment