Wednesday 16 January 2019

सूरह वाक़िया-56 - سورتہ الواقیہ क़िस्त (2)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह वाक़िया-56 - سورتہ الواقیہ 
 क़िस्त  (2)

आज क़ुरआनी बातों से क्या एक दस साल के बच्चे को भी बहलाया जा सकता है? मगर मुसलमानों का सानेहा है कि एक जवान से लेकर बूढ़े तक इसकी आयतों पर ईमान रखते हैं. वह झूट को झूट और सच को सच मान कर अपना ईमान कमज़ोर नहीं करना चाहते, वह कभी कभी माहौल और समाज को निभाने के लिए ज़ुबान नहीं खोलते. वह इन्हीं हालत में ज़िन्दगी बसर कर देना चाहते है. ये समझौत इनकी ख़ुद ग़रज़ी है.वह अपने नस्लों के साथ गुनाह कर रहे है, इतना भी नहीं समझ पाते.  
इनमें बस ज़रा सा सदाक़त की चिंगारी लगाने की ज़रुरत है. फिर झूट के बने इस फूस के महल में ऐसी आग लगेगी कि अल्लाह का जहन्नुम जल कर ख़ाक हो जाएगा.

"फिर जमा होने के बाद तुमको, ए गुमराहो ! झुटलाने वालो! 
दरख़्त ज़कूम से खाना होगा,
 फिर इससे पेट को भरना होगा,
फिर इस पर खौलता हुवा पानी,
पीना भी प्यासे होंटों का सा, 
(ऐसे जुमलों की इस्लाह ओलिमा करते हैं)
इन लोगों की क़यामत के रोज़ दावत होगी."
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (51-56)

मुहम्मद अपने ईजाद किए हुए मज़हब को, ज़ेहने-इंसानी में अपने आला फ़ेल का एक नमूना बना कर पेश करने की बजाए, इंसान को अपने ज़ेहन के फितूर से डराते हैं वह भी निहायत भद्दे तरीक़े से.
( ज़कूम दोज़ख़ का एक ख़ारदार और बद ज़ायक़ा पेड़ मुहम्मदी अल्लाह ख़ाने को देगा मैदाने हश्र में.)

"अच्छा बताओ, जो औरतों के रहम में मनी पहुँचाते हो, (लाहौलवला क़ूवत )इनको तुम आदमी बनाते हो या हम.? (एक मज़हबी किताब में इससे ज़्यादः फूहड़ पन क्या हो सकता है. नमाज़ में इस बात को सोंच कर देखें)"
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (58-59)

"अच्छा बताओ जो कुछ तुम बोते हो, उसे तुम उगाते  हो या हम? "
(जब बोया हुवा क़हत की वजेह से उगता ही नहीं तो अकाल पड़ जाता है, 
कौन ज़िम्मेदार है ? ए कठ मुल्लाह )
"अच्छा फिर तुम ये बताओ कि जिस पानी को तुम पीते हो ,
उसको बादल से तुम बरसाते हो या की हम?अगर हम चाहें तो इसे कडुवा कर डालें, तो फिर तुम शुक्र अदा क्यूं नहीं करते"
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (68-69)

क्या इन बेहूदगियों में कोई जान है?
इसके जवाब में ऐसी ही बेहूदगी पेश करके मुहम्मद के भूत को शर्मसार किया जा सकता है.
"अच्छा फिर बताओ कि जिस आग को तुम सुलगते हो इसके दरख़्त को तुम ने पैदा किया या हम ने?"
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (70-72)

मुहम्मदी अल्लाह बतला कि बन्दे उसकी लकड़ी से ख़ूब सूरत फर्नीचर बनाते हैं, क्या यह तेरे बस का है कि पेड़ में फर्नीचर फलें ?

"सो आप अज़ीम परवर दिगार के नाम की तस्बीह कीजिए."
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (84)

सो परवर दिगार के बख़्शे हुए दिमाग का मुसबत इस्तेमाल करो.

"सो मैं क़सम खता हूँ सितारों की छिपने की,
और अगर तुम ग़ौर  करो तो ये एक बड़ी क़सम है की ते एक मुकर्रम क़ुरआन  है."
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (75-76)

हम इस ग़ौर  करने पर अपना दिमाग नहीं खपाते, हम तो ये जानते हैं कि हमारे मुँह से निकली हुई हाँ और ना ही हमारी क़सम हैं. हमें किसी ज़ोरदार क़सम की कोई अहमियत नहीं है.

"सो क्या तुम  क़ुरआन को सरसरी बात समझते हो और तकज़ीब को अपनी गिज़ा? (मुहम्मदी अल्लाह! तेरी सरसरी में कोई बरतरी नहीं है, बल्कि झूट, बोग्ज़ और नफ़रत ख़ुद तेरी गिज़ा है,"
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (81-82)

"और जो शख़्स दाहिने वालों में से होगा तो उससे कहा जाएगा तेरे लिए अमन अमान है कि तू दाहिने वालों में से है और जो शख़्स झुटलाने वालों, गुमराहों में होगा खौलते हुए पानी से इसकी दावत होगीऔर दोज़ख़ में दाख़िल होना होगा. बे शक ये तह्कीकी और यक़ीनी है."
सूरह वाक़ेआ 56 आयत (90-95)

ऐ इस्लामी! अल्लाह तू इंसानियत का सब से बड़ा और बद तरीन मुजरिम है, जितना इंसानी लहू तूने पिया है, उतना किसी दूसरी तहरीक ने नहीं. 
एक दिन इंसान की अदालत में तू पेश होगा फिर तेरा नाम लेवा कोई न होगा और सब तेरे नाम थूकेंगे.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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