Wednesday 30 January 2019

सूरह जुमुआ ६२ (मुकम्मल)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह जुमुआ- 62 = سورتہ الجمعا
(मुकम्मल)

 "सब चीजें जो कुछ आसमानों पर है और ज़मीन में हैं, अल्लाह की पाकी बयान करती हैं.जोकि बादशाह है, पाक है, ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है." 
सूरह जुमुआ 62 आयत (1 )

सब चीज़ें बोलती कहाँ हैं ? 
गटर में पड़ी हुई ग़लाज़त क्या अल्लाह की पाकी बयान करती है ? 
ज़बरदस्त है, हिकमत वाला,  बार बार इस बात कुरआन में ऐसी बातें  दोहराता है अल्लाह ?

सूरह हदीद के बाद मुहम्मद के लब ओ लहजे में संजीदी आ गई है, न अब वह जादूगरों की तरह हुरूफे मुक़त्तेआत की भूमिका बाँधते हैं न ग़ैर फ़ितरी जेहालत करते है. उनकी शुरुआत तौरेत की तरह होती है,
जैसा कि मैंने कहा था कि सूरह हदीद किसी यहूदी की कही हुई थी.

''वही है जिसने नाख़्वान्दा लोगों में, इन्हीं में से एक को पैग़म्बर भेजा जो इनको अल्लाह की आयतें पढ़ पढ़ कर सुनाते हैं और इनको पाक करते हैं और इनको किताब और दानिश मंदी सिखलाते हैं और ये लोग पहले से ही खुली गुमराही में थे." 
सूरह जुमुआ 62 आयत  (2)

मुहम्मद ख़ुद कह रहे हैं कि वह नापाक वजूद हैं जिन्हें अल्लाह कुरआनी आयतों से पाक करने में लगा है, वह आयतें बना बना कर जो भी गाते बजाते थे, उसका कोई असर समाज पर नहीं पड़ता था मगर उनकी तहरीक ने जब जेहाद का तरीक़ा अपनाया तो ये सौ साल पहले कमन्यूज़म की सदा थी, 
जो सालों बाद कार्ल मार्क्स की पहचान बनी. 
कार्ल मार्क्स की तहरीक में किसी अल्लाह का झूट नहीं था, 
जिसकी वजह से बनी नव इंसान की आँखें खुलीं, 
मुहम्मद की तहरीक में झूट और क़ुरैश परस्ती ने आबादी को मज़हबी अफ़ीम दे दिया, 
जिसके सेवन चौथाई दुन्या अफ़ीमची बन गई.

 "जिन लोगों पर तौरेत पर अमल करने का हुक्म दिया गया, फिर उन्हों ने उस पर अमल नहीं किया, क्या उनकी हालत उस गधे की सी है जो बहुत सी किताबें लादे हुए है, उनकी हालत बुरी है जिन लोगों ने अल्लाह की किताब को झुटलाया.
 सूरह जुमुआ 62 आयत (5 )

यहूदियों की किताब तौरेत है, जिस पर वक़्त के साथ बदलते रहने की ज़रुरत उन्हों ने समझी और आज भी वह आलमी क़ौमों में सफ़े अव्वल पर हैं. सच पूछिए तो गधे अब मुसलमान हैं जो क़ुरआन  को लादे लादे दूसरी क़ौमों के ख़िदमत में लगे हुए हैं.

''आप कह दीजिए कि ऐ यहूदियों ! अगर तुम्हारा दावा है कि तुम बिला शिरकत ए ग़ैरे अल्लाह को मक़बूल हो तो तुम मौत की तमन्ना करो अगर तुम सच्चे हो. और वह कभी भी इसकी तमन्ना नहीं करेंगे ब वजह इस आमाल के जो अपने हाथों में समेटे हुए हैं. आप कह दीजिए कि जिस मौत से तुम भाग रहे हो, वह तुमको आ पकड़ेगी." 
सूरह जुमुआ 62 आयत (6 -7 )

मुलाहिज़ा हो- -
 है न मुहम्मद की बे वक़ूफ़ाना गुफ़्तुगू ? 
जवाब में यही बात कोई यहूदी, मुसलामानों को कह सकता है. 
मौत को कौन पसँद करता है? यहाँ तक कि हैवान भी इस से दूर भागता है.
 मुसलमानों को जो जन्नत ऊपर मिलेगी वह तो मौजूदा हालात से लाख गुना बेहतर होगी, फटाफट मौत की तमन्ना करें या फिर बेदार हों कि जो कुछ है बस यही दुन्या है, जिसमें ईमान के साथ ज़िन्दगी गुज़ारें और हो सके तो कुछ ख़िदमत- ख़ल्क़ करें.

"ऐ ईमान वालो जब जुमअ के रोज़ नमाज़ के लिए अज़ान कही जाया करे तो तुम अल्लाह की याद की तरफ़ चल दिया करो और ख़रीद फ़रोख़्त  छोड़ दिया करो. और वह लोग जब किसी तिजारत या मशगू़ली की चीज़ को देखते हैं तो वह उनकी तरफ़ दौड़ने के लिए बिखर जाते हैं और आपको खडा हुवा छोड़ जाते है. आप कह दीजिए कि जो चीज़ पास है वह ऐसे मशाग़िल और तिजारत से बदर्जाहा बेहतर है और अल्लाह सब से अच्छा रोज़ी पहचानने वाला है." 
सूरह जुमुआ 62 आयत  (9 -11)

एक बार मुहम्मद अपने झुण्ड के साथ किसी बाज़ार में थे कि बाज़ार की अशिया और हंगामों ने झुण्ड को अपनी तरफ़ खींच लिया. मुहम्मद अकेले पड़ गए थे, उनको जान का ख़तरा महसूस हुवा तब ये आयते उनको सूझीं, ऐसे बुज़दिल थे अल्लाह के रसूल.
मुहम्मद के अल्लाह की दूसरी बेहतर रोज़ी जेहाद है.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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