Monday 21 January 2019

सूरह मुजादेला- 58 - سورتہ المجادلہ (मुकम्मल)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह मुजादेला- 58 - سورتہ المجادلہ
(मुकम्मल)

मदीना में मक्का के कुछ नव मुस्लिम, अपने क़बीलाई ख़ू में मुक़ामी लोगों के साथ साथ रह रहे हैं. रसूल के लिए दोनों को एक साथ संभालना ज़रा मुस्श्किल हो रहा है. 
क़बीलाई पंचायतें होती रहती हैं. 
मुहम्मद की छुपी तौर पर मुख़ालिफ़त और बग़ावत होती रहती है, 
मुख़बिर मुहम्मद को हालात से आगाह किए रहते हैं. 
उनकी ख़बरें जो मुहम्मद के लिए वह्यी के काम आती हैं,
लोग मुहम्मद के इस चाल को समझने लगे है, जिसका अंदाज़ा मुहम्मद को भी हो चुका है, मगर उनकी दबीज़ खाल पर ज़्यादा असर नहीं होता है, फिर भी शीराज़ा बिखरने का डर तो लगा ही रहता है.
वह मुनाफ़िकों को तम्बीह करते रहते हैं मगर एहतियात के साथ.
लीजिए क़ुरआनी नाटक पेश है- - -  

"बेशक अल्लाह ने उस औरत की बात सुन ली जो अपने शौहर के मुआमले में झगड़ती थी और अल्लाह तअला से शिकायत करती थी और अल्लाह तअला तुम दोनों की गुफ़्तुगू सुन रहा था, अल्लाह सब कुछ सुनने वाला है." (1)
किसी गाँव के मियाँ बीवी का झगड़ा इतना तूल, पकड़ गया था कि सारे गावँ में इसकी चर्चा थी और मुहम्मद तक भी ये बात पहुँची, फिर मक्र करते हुए वह कहते हैं ,
"बेशक अल्लाह ने उस औरत की बात सुन ली " 
मोहम्मदी पैग़मबरी बग़ैर झूट बोले एक क़दम भी नहीं चल सकती.

"तुम में से जो लोग अपनी बीवियों से इज़हार करते हैं और कह देते हैं तू मेरी माँ जैसी है और वह उनकी माँ नहीं हो गई. इनकी माँ तो वही है जिसने इनको जना. वह लोग बिला शुबहा एक नामाक़ूल और झूट बात करते हैं."  (2-3)
दौर मुअत्दिल में जिसे इस्लामी आलिम 'दौरे-जेहालत' कहा करते हैं, 
ज़ेहार करना, तलाक की तरह था. जिसके लिए कोई शौहर अपनी बीवी से कहे "तेरी पीठ मेरी माँ की तरह हुई या बहिन की तरह हुई" 
तो तलाक़ हो जाया करता था, आज भी लोग तैश में आ कर कह देते हैं तुम्हें हाथ लगाएँ तो अपनी - - -
कहते हैं कि  क़ुरआन अल्लाह का कलाम है मगर फटीचर अल्लाह को अल्फाज़ नहीं सूझते कि उसके कलाम में सलीक़ा आए. हम बिस्तर होना, मिलन होना जैसे अलफ़ाज़ के लिए इज़हार करना कह रहे है. 
इसी  तरह पिछली सूरह में कहते हैं कि
"न तुम औरत के रहम में मनी डालते हो"
कहीं पर "दर्याए शीरीं और दर्याए शोर का मिलन ख़ान दान बढ़ने के लिए"
मुबाश्रत जैसे  अल्फाज़ भी उम्मी को मयस्सर नहीं. 
किसी परिवार में ये मियाँ बीवी का झगड़ा जग जाहिर था जिसकी ख़बर क़ुरआनी अल्लाह को कोई दूसरा अल्लाह देता है .दोनों अल्लाहों के एजेट मुहम्मद को इस माजरे का  इल्म होता है ,वह तलाक और हलाला का हल ढूँढ़ते है. 2-9 

''और जो लोग अपनी बीवियों से "ज़ेहार" (तलाक़) करते हैं, फिर अपनी कही हुई बात की तलाफ़ी करना चाहते हैं तो इस के ज़िम्मे एक ग़ुलाम या लौंडी को आज़ाद कराना है. या दो महीने रोज़ा या साथ मिसकीनों को खाना, क़ब्ल इसके कि दोनों जब इख़्तेलात करें, इस से तुमको नसीहत की जाती है."
सूरह मुजादेला 58 आयत (1-4) 
एक पैग़ामबर पहले इस बात का जवाब दे कि उसने लौंडी और ग़ुलाम का सिलसिला क्यूं क़ायम रहने दिया. 
खैर वह पैग़ामबर ही कहाँ थे ?
ज़ैद बिन हारसा जैसे मासूम को औलाद बना कर अंजाम तक पहुँचाया था 
कि मुँह बोली औलाद के बीवी के साथ उनकी ज़िना कारी जायज़ है, 
ऐसा इंसान समाज के लिए शरह क्या बना सकता है ?

"कोई सरगोशी तीन की ऐसी नहीं होती जिसमें चौथा अल्लाह न हो, न पाँच की होती है जिसमें छटां अल्लाह न हो. और न इससे कम की होती है, न इससे ज़्यादः की  - - -" 
सूरह मुजादेला 58 आयत (7)

मुहम्मद मुसलमान हुए बागियों पर पाबन्दियाँ लगा रहे हैं. 
आयतों में अपनी हिमाक़तें बयान करते हैं. उनके खिलाफ़ जो सर गोशी करते हैं, उनको अल्लाह का खौ़फ़ नाज़िल कराते हैं.
ग़ौर  तलब है कि अल्लाह दो लोगों की सरगोशी नहीं सुन सकता, 
तीन होंगे तो वह, शैतान वन कर उनकी बातें सुन लेगा? 
अगर पाँच लोग आपस में काना फूसी करेंगे तो भी उनमें उसके कान गड़ जाएँगे मगर "इससे कम की होती है, न इससे ज़्यादः की" 
तो उसे कोई एतराज़ नहीं. 
मुहम्मद ने दो गिनती ही क्यूँ चुनी हैं? क्या ये बात कोई शिर्क नहीं है? 
जिसके ख़िलाफ़ ज़हर अफ़्शाई किया करते हैं.

"क्या आपने उन लोगों पर नज़र नहीं फ़रमाई जिनको सरगोशी  से मना कर दिया गया था, फिर वह वही काम करते हैं और गुनाह और ज़्यादती और रसूल की नाफ़रमानी की सरगोशी करते हैं"
सूरह मुजादेला 58 आयत (7)

इन आयातों से आप समझ सकते हैं कि उस वक़्त के लोगों का रवय्या किया हुवा करता था, ऐसी आयतों पर जो मुहम्मद से बेज़ार हुवा करते थे.
मुसलमानों!
आप इनको सुन कर क्यूँ ख़ामोश हैं? 
आपको शर्म क्यूँ नहीं आती? या बुज़दिली की चादर ओढ़े हुवे हैं?.

"ऐ ईमान वालो अगर तुम रसूल से सरगोशी करो तो, इससे पहले कुछ ख़ैरात कर दिया करो, अगर तुम इसके क़ाबिल नहीं हो तो अल्लाह ग़फ़ूरुर रहीम है. जिनको सरगोशी से मना कर दिया गया था,फिर वह वही कम करते हैं और गुनाह और ज्यादती और रसूल की ना फ़रमानी की."
"क्या आप ने ऐसे लोगों पर नज़र नहीं फ़रमाई जो ऐसे लोगों से दोस्ती रखते हैं जिन पर अल्लाह ने गज़ब किया है. ये लोग न पूरे तुम में हैं और न इन्हीं में हैं और झूट बात पर क़समें खा जाते हैं. उन्हों ने क़समों को सिपर बना रक्खा  है, फिर अल्लाह की राह से रोकते रहते हैं. ये बड़े झूठे लोग हैं. इन पर शैतान ने तसल्लुत कर लिया है. ख़ूब समझ लो शैतान का गिरोह ज़रूर बर्बाद होने वाला है."
" ये लोग अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालिफ़त करते हैं, ये सख़्त ज़लील लोगों में हैं. अल्लाह ने ये बात लिख दी है कि मैं और मेरे पैग़ामबर ग़ालिब रहेंगे."
"आप इनको न देखेंगे कि ये ऐसे शख़्सों से दोस्ती रखते हैं जो अल्लाह और उसके रसूल के बार ख़िलाफ़ हैं, गो ये उनके बाप या बेटे या भाई या कुहना ही क्यूं न हो. उन लोगों के दिलों में अल्लाह ने ईमान सब्त कर दिया है.- - - अल्लाह तअला उन से राज़ी होगा न वह अल्लाह से राज़ी होंगे. ये लोग अल्लाह का गिरोह हैं, ख़ूब सुन लो कि अल्लाह का गिरोह ही फ़लाह पाने वाला है."
सूरह मुजादेला 58 आयत (12-22)

सूरह से मालूम होता है कि हालात ए पैग़मबरी बहुत पेचीदा चल रहे है, 
रसूल की ये लअन तअन कुफ़्फ़ार ओ मुशरिकीन पर ही नहीं, 
बल्कि महफ़िल में इनके बीच बैठे सभी मुसलमानों पर है. 
वह मुनाफ़िक़ हुए जा रहे हैं और मुर्तिद होने की दर पर हैं. 
वह रसूल की सख़तियाँ और मक्र बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. 
मुहम्मद को ये बात गवारा नहीं कि ईमान लाने के बाद लोग अपने भाई, बाप, रिश्तेदार या दोस्त ओ अहबाब से मिलें जो कि अभी तक उन पर ईमान नहीं लाए.
झूटी क़समें, गो कि उनका अल्लाह क़ुरआन भरमार क़समें खाता है, 
दूसरी तरफ़ बन्दों को क़सम ख़ाने पर तअने देता है. 
मुहम्मदी अल्लाह की पोल किस आसानी से क़ुरआन में खुलती है
मगर नादान मुसलमानों की आँखें किसी सूरत से नहीं खुलतीं. 
अल्लाह बन्दों के ख़िलाफ़ अपना गिरोह बनाता है और अपनी कामयाबी पर यक़ीन रखता है. 
ऐसा कमज़ोर इंसानों जैसा अल्लाह.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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