Saturday 11 April 2020

खेद है कि यह वेद है (42)


खेद  है  कि  यह  वेद  है  (42)

अग्नि ने उत्पन्न होते ही धरती और आकाश को प्रकाशित किया 
एवं अपने माता पिता के प्रशंशनीय पुत्र बने. 
हव्य वहन करने वाले, यजमान को अन्न देने वाले, 
अघृष्य एवं प्रभायुक्त अग्नि इस प्रकार पूज्य हैं, 
जैसे मनुष्य अतिथि की पूजा करते हैं. 
तृतीय मंडल सूक्त 2 (2)
अन्धविश्वाशी हिन्दू हर उस वस्तु को पूजता है, जिससे वह डरता है, 
या फिर जिससे उसकी लालच जुडी हुई होती है. 
पहले सबसे ज्यादा खतरनाक वस्तु आग हुवा करती थी, 
इस से सबसे ज्यादा डर हुवा करता था लिहाज़ा उन्हों ने इसे बड़ा देव मान लिया 
और इसके माता पिता भी पैदा कर दिया.
पुजारी यजमान को जताता है कि अग्नि उसके लिए हव्य और अन्न मुहया करती  है, इस लिए इसकी सेवा अथिति की तरह किया जाए. 
अग्नि तो हवन कुंड में होती है, सेवा पंडित जी अपनी करा रहे है.
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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