Thursday 7 May 2020

खेद है कि यह वेद है (57)

खेद  है  कि  यह  वेद  है  (57)

हे शोभन धन के स्वामी अग्नि ! 
तुम यज्ञ में महान एवं संतान युक्त धन के स्वामी हो. 
हे बहुधन संपन्न अग्नि ! 
हमें अधिक मात्रा वाला, सुख कारक एवं कीर्ति दाता धन प्रदान करो.
तृतीय मंडल सूक्त 1 (6)
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )
पंडित जी देवों को मस्का मार रहे हैं, उनका गुनगान कर रहे हैं, अपने कल्पित देवों की महिमा उनको बतला रहे हैं. इसी तरह मुसलमान अपने तसव्वुर किए हुए अल्लाह को मुखातिब करता है, तू रहीम है, तू करीम है, तू हिकमत वाला है, तू मेरे लिए सब  कुछ कर सकता है. दोनों में फर्क इतना है कि यह सीधे अपने ख्याली अल्लाह से मुखातिब है  और वह देवों और मानव के दरमियाँ दलाल बैठाए हुए है. 
दोनों अपने कल्पित शक्ति से बगैर मेहनत का फल मांग रहे हैं. कुदरत के बख्शे हुए हाथों की सलामती और उसमे बल की दुआ कोई नहीं मांग रहा.
अग्नि साहिबे-औलाद ? अर्थात "संतान युक्त " 
कैसे हो सकता है कि आग के भी संतान हो ? 
पंडित जी "रूपी" लगा लगा कर सब को रूप वान कर देते हैं. 
न परिश्रम करते हैं न अपने नस्लों को परिश्रम की शिक्षा देते नज़र आते हैं. 
कपटी कुटिल मनुवाद इन

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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