Monday 28 March 2011

सूरह मुम्तहा ६० - पारा २८

मेरी तहरीर में - - -

क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी ''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है, हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं, और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।

नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

सूरह मुम्तहा ६० - पारा २८

जिस तरह आप कभी कभी खुदाए बरतर की ज़ात में ग़र्क़ होकर कुछ जानने की कोशिश करते हैं, इसी तरह कभी मुहम्मद की ज़ात में ग़र्क़ होकर कुछ तलाश करने की कोशिश करें. अभी तक बहैसियत मुसलमान होने के उनकी ज़ात में जो पाया है, वह सब दूसरों के मार्फ़त है. जबकि इनके कुरआन और इनकी हदीस में ही सब कुछ अयाँ है. आपके लिए मुहम्मद की पैरवी कल भी ज़हर थी और आज भी ज़हर है. इंसानियत की अदालत में आज सदियों बाद भी इन पर मुक़दमा चलाया जा सकता है, जिसमे बहेस मुबाहिए के लिए मुहज्ज़ब समाज के दानिशवरों को दावत दी जाय. इनका फैसला यही होगा की इस्लाम और कुरआन पर यकीन रखना काबिले जुर्म अमल होगा. आज न सही एक दिन ज़रूर ऐसा वक़्त आएगा कि मज़हबी ज़हन रखने वाले तमाम मजहबों के अनुनाइयों सज़ा भुगतना होगा जिसमे पेश पेश होंगे मुसलमान. धर्मो मज़हब द्वारा निर्मित खुदा और भगवान दुर्गन्ध भरे झूट हैं, इसके विरोध में सच्चाई सुबूत लिए खड़ी है. मानव समाज अभी पूर्णतया बालिग़ नहीं हुवा है, अर्ध विकसित है, इसी लिए झूट का बोल बाला है और सत्य का मुँह काला है. जब तक ये उलटी बयार बहती रहेगी, मानव समाज सच्ची खुशियों से बंचित रहेगा.

चलिए अल्लाह के मिथ्य देखें - - -


"ऐ ईमान वालो ! तुम मेरे दुश्मनों और अपने दुश्मनों को दोस्त मत बनाओ कि इनकी दोस्ती का इज़हार करने लगो, हालाँकि तुम्हारे पास जो दीन ए हक़ आ चुका है, वह इसके मुनकिर है. रसूल को और तुमको इस बिना पर कि तुम अपने परवर दिगार पर ईमान ले आए, शहर बदर कर चुके हैं. अगर तुम मेरे रस्ते पर जेहाद करने की ग़रज़ से , मेरी रज़ामंदी ढूँढने की ग़रज़ से निकले हो. तुम इनसे चुपके चुपके बातें करते हो , हालाँकि मुझको हर चीज़ का इल्म है. तुम जो कुछ छिपा कर करते हो और जो ज़ाहिर करते हो. और तुम में से जो ऐसा करेगा, वह राहे रास्त से भटकेगा." सूरह मुम्तहा ६० - पारा २८ आयत (१) मुहम्मद के साथ मक्का से मदीना हिजरत करके आए हुए लोगों को अपने खूनी रिश्तों से दूर रहने की सलाह अल्लाह के नबी बने मुहम्मद दे रहे हैं, मुसलमानों का इनसे मेल जोल मुहम्मदी अल्लाह को पसंद नहीं. हर चुगल खोर की इत्तेला अल्लाह की आवाज़ का कम करती है. कुरआन अपने ज़हरीले अमल जेहाद को एक बार फिर हवा दे रहा है .
कुरआन खूनी रिश्तों को दर किनार करते हुए कहता है - - -


"अपने अजीजों से बे तअल्लुक़ ही नहीं, बल्कि उनके दुश्मन बन जाओ, और ऐसे दुश्मन कि उनको जेहाद करके क़त्ल कर दो." इंसानियत के खिलाफ इस्लामी ज़हर को समझें. जिसे आप पिए हुए हैं.

मुहम्मद और इस्लामी काफिरों का एक समझौता हुवा था कि अगर कुरैश में से कोई मुसलमान होकर मदीना चला जाए तो उसको मदीने के मुसलमान पनाह न दें, इसी तरह मदीने से कोई मुसलमान मुर्तिद होकर मक्का में पनाह चाहे तो उसे मक्का पनाह न दें. इस मुआह्दे के बाद एक कुरैश खातून जब मुसलमान होकर मदीना आती हैं तो मुहम्मदी अल्लाह फिर एक बार मुआहदा शिकनी करके उसे पनाह देदेता है. मुहम्मद फिर एक बार वह्यी का खेल खेलते हैं, अल्लाह कहता है कि अगर उसके शौहर ने उसका महर अदा किया हो तो वह उसे अपने शौहर को वापस करके मदीने में रह सकती है. यह हुवा करती थी मुहम्मदी अल्लाह की ज़बान और पैमान.
"जो मुसलमान अपने बाल बच्चों को छोड़ कर मदीने आए हैं, अपनी काफ़िर बीवियों से तअल्लुक़ ख़त्म कर लें और मुसलमान बीवियाँ जो मक्का में फँसी हुई है, इनके शौहर का हर्ज खर्च देकर कुफ्फर इनको अपनी मिलकियत में लेलें और इसी तरह मुसलमान इनकी बीवियों का हर्जाना अदा करदें. सूरह मुम्तहा ६० - पारा २८ आयत (१०) गौर तलब है की मुहम्मद की नज़र में क्या क़द्र ओ क़ीमत थी औरतों की ? मवेशियों की तरह उनकी ख़रीद फ़रोख्त करने की सलाह देते है सल्ललाहो अलैहे वसल्लम. कितना मजलूम और बेबस कर दिया था इंसानियत को, पैगम्बर बने मुहम्मद ने. माज़ी में इंसान मजबूर और बेबस था ही, कोई इस्लाम ही जाबिर नहीं था, मगर वह माज़ी आज भी ईमान के नाम पर ज़िन्दा है. अरब में आज भी औरतों के दिन नहीं बहुरे हैं, सात परदे के अन्दर हरमों में मुक़य्यद यह खुदा की मखलूक पड़ी हुई है.
झूठे और शैतान ओलिमा कहते हैं कि इस्लाम औरतों को बराबर के हुकूक देता है.

मुसलमान औरतें जो मक्का से आती हैं उनकी खासी छानबीन हुवा करती थी, कहीं वह काफ़िरों से हामला होकर तो मदीने में दाखिल नहीं हो रही? क्या होने वाला बच्चा भी काफ़िर ही पैदा होगा? ईमान लाई माँ की तरबियत क्या उसे काफ़िर बना देगी? मुहम्मद को इतनी भी अक्ल नहीं थी.


ये औरतें बोहतान की औलादें साथ में लेकर न आएंगी जिनको कि अपने हाथों और पाँव के दरमियान बना लें - - - सूरह मुम्तहा ६० - पारा २८ आयत (१२)
औरतों की शान में मुहम्मद यूं कहते हैं - - -



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

5 comments:

  1. सदा की तरह बेहद कसा हुआ धारदार लेख मोमिन जी, जो थोड़ी सी भी समझ रखने वाले मुस्लिमों को इस नफरत और हैवानियत से भरी हुई मुहम्‍मदी-कुरानी-इस्‍लामी सोच को त्‍यागकर एक अच्‍छा इंसान बनने का रास्‍ता दिखाएगा... ताकि वे एक मुस्लिम होने से बेहतर एक सच्‍चा मोमिन होने को समझें और नई दुनिया में कदम रख सकें, सदियां हो गईं इन बेचारों को पीढ़ी दर पीढ़ी इस अंधेरे में भटकते हुए और मुहम्‍मदी अल्‍लाह नाम के शैतान से बेवजह डरते हुए... अब इन्‍हें समझना चाहिए कि अल्‍लाह अगर है तो सिर्फ संपूर्ण मानव जाति और प्रकृति के लिए प्रेम और करुणा में है और अगर उसमें जरा सी भी नफरत या अहंकार है तो वह डरने के नहीं बल्कि जूते मारने के काबिल है... ऐसे अल्‍लाह की इस दुनिया को कोई जरूरत नहीं है और वह जहां भी है अपनी नीचता पर शर्म करे (हालांकि थोड़ा सा दिमाग से काम लेने पर सभी मुस्लिम इस बात को पूरी समझ लेंगे कि ऐसा अल्‍लाह कहीं है ही नहीं सिवाय उस दुष्‍ट मुहम्‍मद की बकवास बातों के, और ऐसा एहसास होते ही उन सभी मुस्लिमों को पहले बेहद दु:ख होगा, फिर ग्‍लानि होगी कि आखिर क्‍यों वे इतने साल तक इस बेवकूफी में पड़े रहे... और अंतत: उन्‍हें बेहद राहत और खुशी महसूस होगी कि अब वे इस दुनिया में सभी मनुष्‍यों को एक सा देखने और उनके साथ बराबरी और प्रेम से रहने को आजाद हैं)

    सादर तथा साभार -

    दिनेश प्रताप सिंह

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  2. आपके इस ब्लाग पर कोई अनवर जमाल और सलीम खान नहीं आयेंगे क्योंकि आपके धारदार तर्कों का कोई जवाब उनके पास है ही नहीं..

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  3. धन्यवाद,
    बड़ी अच्छी समझ बूझ पाई है आपने. फिर भी याद रखें कि नफ़रत के साथ किसी का दिल नहीं जीता जा सकता. यह (मुसलमान) ना समझ लोग हैं जो प्यार, हमदर्दी और दिशा दर्शन के प्यासे हैं. यह मुजरिम नहीं , मुजरिम हैं वह मदरसे जहाँ जेहाद की तालीम दी जाती है और मुजरिम है सरकार जो इन मदरसों को पाल पोस रही है, मगर उसकी भी मजबूरी है कि अगर इस्लामी जिन को काबू में करना होगा तो हिंदुत्व के देव पर लगाम लगाना मुश्किल हो जाएगा. अगर अल्लाह एक वहम है तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी कल्पनाएँ मात्र हैं.

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  4. भारतीय नागरिक
    महोदय
    मेरे ब्लाग पर अनवर जमाल, सलीम खान और मुहम्मद उमर कैरान्वी जैसे मजलूम लोग शर्मिदगी के आँसू बहा रहे होगे. सत्य हर मानव को चुभता है, मगर एक दिन उसके घेरे में सभी आ जाते हैं.मैं उनका शुक्र गुज़ार हूँ कि वह मेरी माँ का सम्मान अपनी माँ की तरह करने लगे है और मुझे गालियों से नहीं नवाजते .

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  5. बिल्कुल ठीक कहा आपने मोमिन जी, आपका एक-एक शब्द सुनकर लगता है कि क्‍या ही अच्‍छा होता अगर हर धर्म में आप जैसे हजारों लोग इन धार्मिक वहमों (जिसमें सभी धर्म शामिल हैं जैसा आपने कहा)से लोगों को निकालकर विज्ञान और मानवता के दो आधारों को ही सत्‍य मानने की शिक्षा देते!! मुझे गर्व है आप पर मोमिन जी कि अब मैं कह सकता हूँ कि भले ही सभी मुस्लिम अंधेरे में पैदा होने के लिए अभिशप्‍त होते हैं लेकिन उन्‍हीं में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो अपनी अंतरात्‍मा के प्रकाश में झांककर उस खौफनाक और डरावने अंधेरे को चीर कर सत्‍य को देखने में सक्षम होते हैं और उस अंधेरे में जन्‍मजात फंसे दूसरे मजलूम मुस्लिमों को भी उस प्रकाश के दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं... मेरा साधुवाद और मेरी शुभकामनाएं सदा आपके साथ रहेंगी मोमिन जी, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि आपका संदेश अधिक मुस्लिमों तक पहुंच नहीं पा रहा है और जिन तक पहुंच पा रहा है उन में से अधिकतर आपके संदेश को धैर्य से सुनने और समझने के स्‍थान पर सीधे बौखला कर नाराज हो जाते हैं और आपको इस्‍लाम का दुश्‍मन घोषित कर देते हैं... लेकिन जो सबसे महत्‍वपूर्ण बात वे भूल जाते हैं वह यह है कि आप मुहम्‍मद साहब द्वारा अपनी राजनैतिक वासनाओं को पूरा करने के लिए चलाए गए कुचक्ररूपी इस्‍लाम के तो दुश्‍मन हैं लेकिन इस कुचक्र में फंसे करोड़ों मजबूर मुस्लिमों के लिए एक पथ प्रदर्शक हैं जो उनका कल्‍याण चाहता है... सवाल यह है कि अधिक से अधिक मुस्लिमों को इस बात की समझ कैसे दी जाए ताकि वे आपकी बात का मनन कर अपना, अपने परिवार का तथा बड़े संदर्भ में समूचे विश्‍व का भला करने की ओर अग्रसर हों???

    सादर तथा साभार -

    दिनेश प्रताप सिंह

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