Tuesday 31 July 2018

सूरह हज 22 Q 2

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह हज 22 
क़िस्त-2


''जो शख़्स  इस बात का ख़याल रखता है कि अल्लाह तअला उसकी  आख़िरत में मदद न करेगा तो उसको चाहिए कि एक रस्सी आसमान तक तान ले और मौक़ूफ़ करा दे ग़ौर करना चाहिए कि तदबीर उसकी ना गवारी की चीज़ को मौक़ूफ़ कर सकती है और हमने क़ुरआन  को इसी तरह उतारा है,''

सूरह हज 22 (आयत-15-16)

दिमाग़ मुहम्मद का, कलाम अल्लाह का, समझ बंदए-मुस्लिम की - - - बड़ा मुश्किल मुक़ाम है कि ऐसी आयतें क़ुरआन की क्या कहना चाहती हैं? आम मुसलमान में जब कोई इस क़िस्म की बातें करता है तो सुनने वाले उसे कठमुल्ला कह कर मुस्कुराते है. मगर अगर उनको बतलाया जाय कि क़ुरआनी अल्लाह ही कठमुल्ला है, ये उसकी बातें हैं, तो कुछ देर के लिए कशमकश में पड़ जाता है? मगर मुसलमान ही बना रहना पसंद करता है , कुछ बग़ावत के साथ. भारतीय माहौल में वह जाय तो कहाँ जाय? 
मोमिन का रास्ता उसे टेढ़ा नज़र आता है, जो कि है बहुत सीधा.
सितम ये कि बे शऊर अल्लाह कहता है,
''और हमने क़ुरआन को इसी तरह उतारा है,'' 



''और अल्लाह तअला उन लोगों को कि ईमान लाए और नेक काम किए ऐसे बाग़ों  में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें जारी होंगी. इनको वहाँ पर सोने के कंगन और मोती पहनाई जाएँगे और पोशाक वहाँ रेशम की होगी.''

सूरह हज 22 (आयत-23)

मुहम्मद को इतनी भी अक़्ल नहीं है कि जहाँ सोने के घर द्वार हैं, 
वहाँ सोने के कंगन पहना रहे हैं ? 
वैसे भी सोने का जब तक ख़रीदार न हो उसकी कोई क़द्र व् क़ीमत नहीं. सोने और रेशम को मर्दों पर हराम करके दुन्या में तो कहीं का न छोड़ा, जहाँ इनकी जीनत थी. 
महरूम और मक़रूज़ क़ौम. 



''बेशक जो लोग काफ़िर हुए अल्लाह के रास्ते से और मस्जिदे हराम 
(काबा ) से रोकते हैं, जिसको हमने तमाम आदमियों के लिए मुक़र्रर किया है, कि इस में सब बराबर हैं. इसमें रहने वाले भी और बाहार से आने वाले भी.''

सूरह हज 22 (आयत-25)

क़ुरआन  की यह आयत बहुत ही तवज्जेह तलब है - - - 
आज काबे में कोई ग़ैर मुस्लिम दाख़िल नहीं हो सकता है. 
काबा ही क्या, शहर मक्का में भी मुसलामानों के अलावा किसी और के दाख़िले पर पाबन्दी है. 
आज की हक़ीक़त ये है जब कि ये आयतें उस वक़्त की हैं जब मुसलामानों पर काबे में दाख़िले पर पाबन्दी थी. 
इसी क़ुरआन  में आगे आप देखेंगे कि अल्लाह कैसे अपनी बातों से फिरता है. 
इनके जवाब में ही आज़ाद भारत में कई स्थान ऐसे हैं, 
जहाँ मुसलामानों के दाख़िले पर पाबन्दी है. 

सफ़ाई 

क्या आपने कभी ग़ौर किया है कि सारी दुन्या में मुसलमान पसमान्दा क्यूं हैं? 
सारी दुन्या को छोड़ें अपने मुल्क भारत में ही देखें कि मुसलमान एक दो नहीं हर मैदान में सब से पीछे हैं. 
मैं इस वक़्त इस बात का एहसास शिद्दत के साथ कर रहा हूँ. 
इस लिए कि मैं Ved is at your door '' के संचालक स्वर्गीय स्वामी चिन्मयानन्द के आश्रम के एक कमरे में मुक़ीम हूँ, जो कि हिमालयन बेल्ट हिमांचल प्रदेश में तपोवन के नाम से मशहूर है. 
साफ़ सफ़्फ़ाफ़, और शादाब, गन्दगी का नाम व निशान नहीं, 
वाक़ई यह जगह धरती पर एक स्वर्ग जैसी है. 
ईमान दारी ऐसी कि कमरों में ताले की ज़रुरत नहीं. सिर्फ़ सौ रुपिए में रिहाइश और ख़ूराक, बमय चाय या कॉफ़ी. ज़रुरत पड़े तो इलाज भी मुफ़्त. 
मैं यहाँ अपने मोमिन के नाम से अज़ादाना रह रहा हूँ, 
उनके दीक्षा प्रोग्रामो में हिस्सा लेकर अपनी जानकारी में अज़ाफ़ा भी कर रहा हूँ. इनकी शिक्षा में कहीं कोई नफ़रत का पैग़ाम नहीं है. 
जदीद तरीन इंसानी क़द्रों के साथ साथ धर्म का ताल मेल भी, 
आप उनसे खुली बहेस भी कर सकते हैं. 
मैं ने यहाँ हिन्दू धर्म ग्रंथों का ज़ख़ीरा पाया और जी भर के अध्धयन किया.
इसी तरह मैंने कई मंदिर, गुरु द्वारा, गिरजा देखा, बहाइयों का लोटस टेम्पिल देखा, ओशो आश्रम में रहा, इन जगहों में दाख़िले पर जज़्बाए एहतराम पैदा होता है. 

इसके बर अक्स मुसलामानों के दरे अक़दस पर दिल बुरा होता है और नफ़रत के साथ वापसी होती है. चाहे वह ख़्वाजा अजमेरी की दरगाह हो या निज़ामुद्दीन का दर ए अक़दस हो, जामा मस्जिद हो या मुंबई का हाजी अली. जाने में कराहियत होती है. आने जाने के रास्तों पर गन्दगी के ढेर,  साथ साथ भिखारियों, अपाहिजों और कोढ़ियों की मुसलसल क़तारें, राह पार करना दूभर कर देती है. 
मुजाविर (पण्डे) अक़ीदत मंदों की जेबें ख़ाली करने पर आमादः रहते हैं. मेरी अक़ीदत मन्द अहलिया निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पहुँचने से पहले ही भैंसे की गोश्त की सडांध, और गंदगी के बाईस उबकाई करने लगीं. बेहूदे फूल फ़रोश फूलों की डलिया मुँह पर लगा देते है. 
वह बग़ैर ज़्यारत किए वापस हुईं . 
इसी तरह अजमेर की दरगाह में लगे मटकों का पानी पीना गवारा न किया, सारी आस्था वहाँ बसे भिखारियों और हराम खो़र मुजाविरों के नज़र हो गई.
औरों के, और मुसलामानों के ये क़ौमी ज़्यारत गाहें, क़ौमों के मेयार का आइना दार हैं. 
मुसलमान आज भी बेहिस हैं जिसकी वजेह है दीन इस्लाम. 
दूसरी क़ौमों ने परिवर्तन के तक़ाज़ों को तस्लीम कर लिया है और वक़्त के साथ साथ क़दम मिला कर चलती हैं. 
मुसलमान क़ुरआनी झूट को गले में बांधे हुए है. क़ुरआनी और हदीसी असरात ही इनके तमद्दुनी मर्कज़ों पर ग़ालिब है. 
मुसलमान दिन में पाँच बार मुँह हाथ और पैरों को धोता है, 
जिसे वज़ू कहते हैं और बार बार तनासुल (लिंग) को धोकर पाक करता है, मगर नहाता है आठवें दिन जुमा जुमा. 
कपड़े साफ़ी हो जाते हैं मगर उसमें पाकी बनी रहती है. 
नतीजतन उसके कपड़े और जिस्म से बदबू आती रहती है. 
जहाँ जायगा अपनी दीनी बदबू के साथ. 
मुसलामानों को यह वर्सा मुहम्मद से मिला है. 
वह भी गन्दगी पसंद थे कई हदीसें इसकी गवाह हैं, 
अकसर बकरियों के बाड़े में नमाज़ पढ़ लिया करते.
दूसरी बात ज़कात और ख़ैरात की रुकनी पाबंदी ने क़ौम को भिखारी ज़्यादः बनाया है जिसकी वजेह से मेहनत की कमाई हुई रोटी को कोई दर्जा ही नहीं मिला. 
सब क़ुरआनी बरकत है, जहां सदाक़त नहीं होती वहां सफ़ाई भी नहीं होती और न कोई मुसबत अलामत पैदा हो पाती है.

आश्रम में कव्वे, कुत्ते कहीं नज़र नहीं आते, इनके लिए कहीं कोई गंदगी छोड़ी ही नहीं जाती. ख़ूबसूरत चौहद्दी में शादाब दरख़्त, उनपर चहचहाते हुए परिंदों के झुण्ड. जो कानों में रस घोलते हैं. 
ऐसी कोई मिसाल भारत उप महाद्वीप में मुसलामानों की नहीं है. 
यहाँ जो भी तअलीम दी जाती है उसमें क़ुरआनी नफ़रत, 
इंसानों के हक़ में नहीं. 



जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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