Monday 16 July 2018

Soorah taha -20 Q- 3

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है।
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.
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सूरह ताहा २० 
क़िस्त-३


''और हमने इसी तरह उसको अरबी क़ुरआन नाज़िल किया है और हमने उसमें तरह तरह की चेतावनियाँ दी हैं. ताकि वह लोग डर जाएँ या यह उनके लिए किसी क़द्र समाझ पैदा कर दे. - - - और आप दुआ कीजिए की ऐ मेरे रब मेरा इल्म बढ़ा दीजिए. और इस से पहले हम आदम को एक हुक्म दे चुके थे, सो उनसे गफ़लत हो गई हमने इन में पुख़तगी न पाई, जब कि हमने फ़रिश्तों को इरशाद फ़रमाया था कि आदम को सजदा करो. - - 
फ़िर इसके बाद शुरू हो जाती है आदम और इब्लीस की दास्तान जो क़ुरआन में बार बार दोहराई गई है.
सूरह ताहा- २० आयत- (११३-१२३)



मुहम्मद बार बार कहते हैं कि वह क़यामत की (मुख़्तलिफ़ ड्रामे बाज़ी करके) लोगों को डरा रहा हूँ, डराने वाला ज़ाहिर है झूठा होता है, मुसलमान इसी बात को ही अगर समझ लें तो उनकी इसमें बेहतरी है, मगर इतना ही काफ़ी नहीं है, क्यूं कि उम्मी के पास शब्द भंडार नहीं थे कि वह ''डराने'' की जगह आगाह या तंबीह लफ़्ज़ों को अपने कलाम में लाते. इस से साबित होता है कि मुहम्मद अव्वल दर्जे के फ़ासिक़ और दरोग़ गो थे. क़ुरआन के एक एक हर्फ़ झूठे हैं, 

जब तक इस बात पर मुसलमान ईमान नहीं लाते, वह सच्चे मोमिन नहीं कहलाएंगे.
क़ुरआन अरबी में है, मुनासिब था कि ये अरबियों तक सीमित रहता, 
वह रहते कुँए के मेंढक, मगर यह तो तलवार के ज़ोर और ओलिमा के प्रोपोगंडा से पूरी दुन्या में मोहलिक बीमारी बन कर फैल गया. 
हमारे पूर्वजों के वंशजों पर इसका कुप्रभाव ऐसा पड़ा कि अपने रंग में रंगे भारत टुकड़ों में बट गया, 
अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रिय बुद्धिस्ट तालिबानी बन गए, 
आर्यन की मुक़द्दस सरज़मीन नापाक (किस्तान) हो गई, साथ साथ आधा बंगाल भी इस्लाम के भेट चढ़ गया. 
अगर इस्लाम का स्तित्व न होता तो भारत हिंदुत्व ग्रस्त कभी भी न होता, कोई महान ''माओज़े तुंग'' यहाँ भी पैदा होता जो धर्मों की अफ़ीम से भारत को मुक्त कराता और आज हम चीन से आगे होते.
मुसलमान क़ौम, क़ौमों में रुवाई और ज़िल्लत उठा रही है, 
इबादत और दुवाओं के फ़रेब में आकर. 
मुन्जमिद क़ौम की कोड़ों की मार और संगसारी सिंफे-नाज़ुक पर, 
ज़माना इनकी तस्वीरें देख रहा है, 
यह ओलिमा अंधे हो कर इस्लाम की तबलीग़ में लगे हुए है क्यूंकि मुसलामानों की दुर्दशा ही इनकी ख़ूराक है.



''रोज़-हश्र अल्लाह गुनेहगार मुर्दों को क़ब्र से अँधा करके उठाएगा और कहेगा कि तूने मेरे हुक्म को नहीं माना, मैं भी तेरे साथ कोई रिआयत नहीं करूंगा. अल्लाह कहता है क्या इस से भी लोगों को इबरत नहीं मिलती कि इससे पहले कई गिरोहों को हमने हलाक कर दिया, (मूसा द्वारा बर्बाद और वीरान की गई बस्तियों का हवाला देते हुए) कहता कि क्या इनको वह दिखता नहीं कि यहाँ लोग चलते फिरते थे. मुहम्मद समझाते हैं कि अगर अल्लाह ने अज़ाब के लिए एक दिन मुक़ररर न किया होता तो अज़ाब आज भी नाज़िल हो जाता. अल्लाह बार बार मुहम्मद को तसल्ली देता है कि आप सब्र कीजिए जल्दी न मचाइए और दुखी मत होइए. अपने रब की हम्द के साथ इसकी तस्बीह कीजिए. 
ख़बरदार! खुश हाल लोगों की तरफ़ नज़र उठा कर भी न देखिए कि वह उनके साथ मेरी आज़माइश है. आप के रब का इनआम तो आख़रत है. समझाइए अपने साथियों को कि नमाज़ पढ़े, और ख़ुद भी पाबन्दी रखिए. अल्लाह कहता है - -  ''

''हम आप से मुआश कमवाना नहीं चाहते मुआश तो आप को हम देंगे.और बेतर अंजाम तो परहेज़ गारी है.'' 
सूरह ताहा- २० आयत- (१३०) 



अवाम जब मुहम्मद से पैग़म्बरी की कोई निशानी चाहते हैं तो जवाब होता है, पहले के नबियों और उन पर उतरी किताबों की बातें क्या नहीं कान पडीं. कहते हैं हम सब आक़बत की दौड़ में हैं 

देखना है कि कौन राहे रास्त पर है किसको मंजिले मक़सूद मिलती है.
सूरह ताहा- २० आयत- (१३४-१३५)



इतना ज़ालिम अल्लाह ? 

अगर अपने बन्दों को अँधा कर के उठाएगा तो वह मैदाने-हश्र में पहुचेंगे कैसे? 
इस क़यामती ड्रमों ने तो मुसलमानों को इतना बुज़दिल बना दिया है कि वह दुन्या में सबसे पीछे खड़े होकर अपने अल्लाह से दुआओं में मसरूफ़ हैं, 
उनके अक़्ल में ये बात नहीं घुसती कि दुआ का फ़रेब इनको पामाल किए हुए है.
मुसलमानों! 
तुमहारी ख़ुशहाली न अल्लाह को गवारा है, न तुमहारे मफ़रूज़ा पैग़म्बर को, न इन हराम खो़र इस्लामी एजेंटों को .
देखो आँखें खोल कर तुम्हारे अल्लाह को अपनी मशक्क़त से रोज़ी रोटी गवारा नहीं? वह अपने रसूल से कहता है,
''हम आप से मुआश कमवाना नहीं चाहते मुआश तो आप को हम देंगे.और बेतर अंजाम तो परहेज़ गारी है.'' 
सूरह ताहा- २० आयत- (१३०)
तरक़्क़ी की जड़ है अनथक मेहनत मगर इस्लाम में इसकी तबलीग़ कहीं भी नहीं है, जंगों से मिला माले ग़नीमत जो मुयस्सर है.
मुहम्मद फ़रमाते हैं - - -
'' अमलों में तीन अमल अफ़ज़ल हैं - - - 
(हदीस-बुखारी २५)
* १-अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखना.
* २-अल्लाह की राह में जेहाद करना.
* ३- हज करना.
देखें कि बेअमली को वह अमल बतलाते है. 
१-ये आस्था है, अमल या कर्म नहीं.
2-जेहाद ही को मुहम्मद ज़रीआ मुआश कहते है. 
कई हदीसें इसकी गवाह हैं.
३-तीर्थ यात्रा भी कोई अमल नहीं अरबियों की परवरिश का ज़रीआ मुहम्मद ने क़ायम किया है, जो आज काबा है.
मुसलमानों !
मेरी तहरीर में आपको कहीं भी कोई खोट नज़र आती है? 
मेरे इन्केशाफ़ात (उदघोषण) में कहीं भी कोई ऐसा नुक़ता-ऐ-रूपोश आप पकड़ पा रहे हैं जो आप के ख़िलाफ़ हो? 
हम समझते हैं कि मेरी बातों से आप परेशान होते होंगे और दुखी भी. 
मेरी ईमान गोई आपको अपसेट कर रही है, 
ज़ाहिर है आपरेशन में कुछ तकलीफ़ तो होती है. 
मैं क़ुरआनी मरज़ से आपको नजात दिलाना चाहता हूँ, 
अपनी नस्लों को मोमिन की ज़िदगी दीजिए, 
ज़माना उनकी पैरवी में होगा, 
फ़ितरत के आगोश में बेबोझ वह आबाद होंगे.

मोमिन को समझने की कोशिश कीजिए.


जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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