Monday 2 November 2020

नमाज़ी इंक़लाब


नमाज़ी इंक़लाब      
      
आजकल चार छः औसत पढ़े लिखे मुसलमान जब किसी जगह इकठ्ठा होते हैं तो उनका मौजूअ ए गूफ़्तुगू होता है 
'मुसलामानों पर आई हुई आलिमी आफतें' 
बड़ी ही संजीदगी और रंजीदगी के साथ इस पर बहेस मुबाहिसे होते हैं. 
सभी अपनी अपनी जानकारियाँ और उस पर रद्दे अमल पेश करते हैं. 
अमरीका और योरोप को और उनके पिछ लग्गुओं को जी भर के कोसा जाता है. 
भग़ुवा होता जा रहा हिंदुस्तान को भी सौतेले भाई की तरह मुख़ातिब करते हैं 
और इसके अंजाम की भरपूर आगाही भी देते हैं. 
सच्चे क़ौमी रहनुमा जो मुस्लिमों में है, उनको 'साला गद्दार है', 
कहक़र मुख़ातिब करते हैं. 
वह मुख़्तलिफ़ होते हुए भी अपने मिल्ली रहनुमाओं का ग़ुन गान ही करते है.
अमरीकी पिट्ठू अरब देशों को भी नहीं बख़्शा जाता. 
बस कुछ नर्म गोशा होता है तो पाकिस्तान के लिए.
इसके बाद वह मुसलामानों की पामाली की वजह एक दूसरे से 
उगलवाने की कोशिश करते हैं, 
वह इस सवाल पर एक दूसरे का मुँह देखते हैं कि 
कोई सच बोलने की जिसारत करे. 
सच बोलने की मजाल किसकी है? 
इसकी तो सलाहियत ही इस क़ौम में नहीं. 
बस कि वह सारा इलज़ाम ख़ुद पर आपस में बाँट लेते हैं, 
कि हम मुसलमान ही ग़ुमराह हो गए हैं. 
माहौल में कभी कभी बासी कढ़ी की उबाल जैसी आती है. 
क़ुरआन और हदीसों की बे बुन्याद अज़मतों के अंबार लग जाते हैं, 
गोया दुन्या भर की तमाम ख़ूबियाँ इनमें छिपी हुई हैं. 
माज़ी को ज़िंदा करके अपनी बरतरी के बखान होते हैं. 
इस महफ़िल में जो ज़रा सा इस्लामी लिटरेचर का कीड़ा होता है, 
वह माहौल पर छा जाता है.
फिर वह माज़ी के घोड़ो से उतरते हैं, 
हाल के हालात पर आने के बाद सर जोड़ कर बैठते हैं कि 
आख़िर इस मसअले  का हल क्या है? 
हल के तौर पर इनको, इनकी ग़ुमराही याद आती है 
और सामने इनके खड़ी होती है 
'नमाज़', 
ज़ोर होता है कि हम लोग अल्लाह को भूल गए हैं, 
अपनी नमाज़ों से गाफ़िल हो गए है. 
उन पर कुछ दिनों के लिए नमाज़ी इंक़लाब आता है और 
उनमें से कुछ लोग आरज़ी तौर पर नमाज़ी बन जाते है.
असलियत ये है कि आज मुसलमान जितना दीन के मैदान में डटा हुवा है 
उतना कभी नहीं था. 
इनकी पस्मान्दगी की वजह इनकी नमाज़ और इनका दीन ही है. 
मुसलमान अपने चूँ चूँ के मुरब्बे की आचार दानी को उठा कर 
अगर ताक़ पर रख दें, तो वह किसी से पीछे नहीं रहेगे.
***
जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

1 comment:

  1. यमन के राजा अब्रहा ने हाथियों से मुसल्लह एक लश्कर के साथ काबा पर हमला किया ,उस समय काबा के इर्द गिर्द 360 बुत विराजमान थे । मक्का के बुत परस्त कुरैशी डर कर पहाड़ों में छिप गये ,और आसमानी मदद का इंतज़ार करने लगे ,आसमानी अल्लाह ने बुतों की हिफ़ज़त के लिए अबाबील परिंदों को भेजा ,अब्रहा का लश्कर तबाह हो गया । ( सूरह अल फ़ील )
    इस सूरत से पता चल रहा है कि अल्लाह,रोज़ ए अव्वल से मुसलमानों का नहीं ,बुत परस्तों का मुहाफ़िज़ है । ये उस वक्त की बात है जब मुहम्मद की पैदाईश भी नही हुई थी ।
    ऐ अरबों के खुद साख़्ता अल्लाह !
    मैं तो इस वास्ते चुप हूं कि तमाशा न बने ।
    तू समझता है,मुझे तुझ से गिला कुछ भी नहीं ।

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