Thursday 14 March 2019

खेद है कि यह वेद है (35)


खेद  है  कि  यह  वेद  है  (35)

 हिरण्यरूप, हिरण्यमय इन्द्रियों वाले एवं हिरण्यवर्ण अपानपात हिरण्यमय स्थान पर बैठ कर सुशोबित होते हैं. हिरण्यदाता यजमान उन्हें दान देते हैं. 
द्वतीय मंडल सूक्त 35(10)
पंडित जी शब्दा अलंकर को लेकर एक पशु हिरन को सुसज्जित और अलंकृत कर रहे हैं, भाव का आभाव है,
भाव देखें
हरे हरे कदम की, हरी हरी छड़ी लिए, हरि हरि पुकारती, हरे हरे लतन में.
पिछले सूक्त34 (1) में अपने देव को भयानक पशु जैसा रूप गढ़ा था. 
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )

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हे रूद्र !
तुम्हारा वह सुख दाता हाथ कहाँ है जो सबको सुख पहुँचाने वाली दवाएं बनाता है ?
हे काम वर्धक रूद्र !
तुम देव कृत पाप का विनाश करते हुए मुझे जल्दी क्षमा करो .
द्वतीय मंडल सूक्त 33 (7)

काम वर्धक अर्थात आज की भाषा में अय्याशी . श्लोक उन हाथों को तलाश कर रहा है जो उसके लिए काम वर्धक दवाएं बनाता है .
कुरआनी  मुसलमान हो या वैदिक हिन्दू , सब भोग विलाश में मुब्तिला है.
देव तो देव होते हैं, उनके कृत पाप कैसे हुए. अगर देव भी पापी हुवा करते हैं तो इंसान की क्या औकात ?
(ऋग्वेद / डा. गंगा सहाय शर्मा / संस्तृत साहित्य प्रकाशन नई दिल्ली )

जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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