Wednesday 6 March 2019

सूरह क़ियामः- 75 = سورتہ القیامہ (मुकम्मल)

मेरी तहरीर में - - -
क़ुरआन का अरबी से उर्दू तर्जुमा (ख़ालिस) मुसम्मी
''हकीमुल उम्मत हज़रत मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी''का है,
हदीसें सिर्फ ''बुख़ारी'' और ''मुस्लिम'' की नक्ल हैं,
और तबसरा ---- जीम. ''मोमिन'' का है.
नोट: क़ुरआन में (ब्रेकेट) में बयान किए गए अलफ़ाज़ बेईमान आलिमों के होते हैं,जो मफ़रूज़ा अल्लाह के उस्ताद और मददगार होते हैं और तफ़सीरें उनकी तिकड़म हैं और चूलें हैं.

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सूरह क़ियामः- 75 = سورتہ القیامہ
(मुकम्मल)

ईरान में बज़ोर शमशीर इस्लामी वबा आई, कमज़ोरों ने इसे निगल लिया मगर ग़यूर ज़रथुर्सठी ने इसे ओढ़ना गवारा नहीं किया, घर बार और वतन की क़ुरबानी देकर हिदुस्तान में आ बसे जिहें पारसी कहा जाता है, दुन्या में सुर्ख़रू है.
सिर्फ़, एक पारसी टाटा के सामने तमाम ईरान पानी भरे.
मुसलामानों के सिवा हर क़ौम मूजिदे जदीदयात है,  
जिनकी बरकतों से आज इंसान मिर्रीख़ के लिए पर तौल रहा है. 
इस्लाम जब से वजूद में आया है मामूली सायकिल जैसी चीज़ भी कोई मुसलमान ईजाद नहीं कर सका, हाँ इसकी मरम्मत और इसका पंचर जोड़ने के काम में ज़रूर लगा हुवा पाया जाता है.
अब भी अगर मुसलमान इस्लाम पर डटा रहा तो इसकी बद नसीबी ही होगी कि एक दिन वह दुन्या के लिए माज़ी की क़ौम बन जाएगा.
अल्लाह का ग़लीज़  कलाम मुलाहिज़ा हो  - - -

"मैं क़सम खाता हूँ क़यामत के दिन की,
और क़सम खाता हूँ नफ़्स की, 
जो अपने ऊपर मलामत करे."
सूरह कियामह 75 आयत (1-2)

क़ल्बे सियाक्ह मुहम्मद अपने नफ़्स की भूक की क़सम खाते हैं, 
जो मुसलसल इनको झूट बोलने पर आमादः करती है. 
इन पर मलामत तो कभी करती ही नहीं. 
नफ़्स तो चाहत ही चाहत चाहती है और इसे क़ाबू करना पड़ता है, 
ये इंसान को क़ाबू में रखती है, इंसान इसका मुरीद होता है.
इंसान का ज़मीर इसको मलामत करता है, 
हज़रत ग़ालिबन ज़मीर की जगह नफ़्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. 
उनके अल्लाह को अलफ़ाज़ चुनना भी नहीं आता. 
उसे बेहूदा क़समों की आदत पड़ गई है.

लोग मक्का में इनको कभी चिढ़ाते, कभी छेड़ते कि 
"मियाँ ! क़यामत कब आएगी?" 
इनका क़यामत नामः खुल जाता, 
हर बार लाल बुझक्कड़ क़यामती किताब से कुछ नया पढ़ कर सुना देते. 
मज़ाक़ मज़ाक़ में इनकी ये पोथी बनी और जेहादी लूट मार से इस्लाम वजूद में आया.

"फिर जब हम उसको पढ़ने लगा करें तो आप उसके ताबेअ हो जाया करें, फिर इसका बयान कर देना हमारा ज़िम्मा है."
सूरह कियामह 75 आयत (20)

गोया ख़ालिक़ भी अपनी तख़लीक को नवाज़ता है? मगर कब आया? 
कब पढ़ा, जब मुहम्मद उसके ताबेअ में होकर रह गए?
इसे हराम जादे ओलिमा ने यूँ मेकअप किया है - - - 

"हक़ तअला ने जिब्रील के पढ़ने को अपना पढ़ना क़ारार दिया है क्यूंकि जिब्रील हक़ तअला के पयम्बर और क़ुरआन लाने में महज़ वास्ता थे. मतलब ये कि जब जिब्रील आकर क़ुरआन पढ़ा करें तो आप ख़ामोशी से सुना करें और इनके सुना चुकने के बाद दोबारा पढ़ लिया करें, जिब्रील के पढ़ने के दौरान में आपको ज़बान हिलाने की ज़रुरत नहीं. क़ुरआन आप के सीने में जमा करा देना यानी याद करा देना और आपके लिए इसकी किरत आसान कर देना, इसका साफ़ साफ़ मतलब ओ मफ़हूम, सब कुछ हमारे ज़िम्मे है. "
जब कि मुहम्मद इस बात की तलक़ीन कर रहे हैं कि लोग बग़ैर मतलब समझे क़ुरआन में तल्लीन हो जाया करें, 
मअनी ओ मतलब बाद में हम गढ़ा करेंगे.

मुहम्मदी जेहालत के जत्थे में कभी कभी कोई बेदार ज़ेहन आ जाया करता था जिसका रवय्या जनाब बयान करते हैं. उसको जाने के बाद अल्लाह के मकरूह रसूल कोसते काटते हैं, यहाँ तक कि गालियाँ देते हैं. यही गालियाँ मुसलमान अपनी नमाज़ों में अदा करते हैं.
क्या उस शख़्स को जवाब नहीं दिया जा सकता कि तुम भी तो अपनी माँ के अन्दाम निहानी में टपके हुए मनी के कतरे के अंजाम हो, 
पैग़म्बर कैसे बन गए? 
किसी पैग़म्बर ने तो मनी टपकने की हरकत की नहीं होगी. 
इंसान का बच्चा पैग़म्बर ? 
चे मअनी?
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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