Thursday 23 July 2020

ख़ालिस काफ़िर


ख़ालिस काफ़िर          

ख़ालिस काफ़िर ले दे के भारत में या नेपाल में ही बाक़ी बचे हुए हैं. 
कुफ़्र और शिर्क इंसानी तहज़ीब की दो क़ीमती विरासतें है. 
इनके पास दुन्या की क़दीम तरीन किताबें हैं,  
जिन से इस्लाम ज़दा मुमालिक महरूम हो गए हैं. 
इनके पास बेश क़ीमती चारों वेद मौजूद हैं, 
जो कि मुख़्तलिफ़ चार इंसानी मसाइल का हल हुवा करते थे, 
इन्हीं वेदों की रौशनी में 18 पुराण हैं. 
माना कि ये मुबालिग़ा आराइयों से लबरेज़ है, 
मगर तमाज़त और ज़हानत के साथ, जिहालत से बहुत दूर हैं.  
इसके बाद इनकी शाख़ें 108 उप निषद मौजूद हैं, 
रामायण और महा भारत जैसी क़ीमती गाथाएँ, 
गीता जैसी सबक आमोज़ किताबें, अपनी असली हालत में मौजूद हैं. 
ये सारी किताबें तख़लीक़ हैं, तसव्वर की बुलंद परवाज़ें हैं, 
जिनको देख कर दिमाग़ हैरान हो जाता है. 
और अपनी धरोहर पर रश्क होता है. 
जब बड़ी बड़ी क़ौमों के पास कोई रस्मुल ख़त भी नहीं था, 
तब हमारे पुरखे ऐसे ग्रन्थ रचा करते थे. 

अरबों का कल्चर भी इसी तरह मालामाल था 
और कई बातों में वह आगे था, 
जिसे इस्लाम की आमद ने धो दिया. 
बढ़ते हुए कारवाँ की गाड़ियाँ बैक गेर में चली गई.
माज़ी में इंसानी दिमाग़ को रूहानी मरकज़ियत देने के लिए मफ़रूज़ा मअबूदों, 
देवी देवताओं और राक्षसों के किरदार उस वक़्त के इंसानों के लिए अलहाम ही थे. तहजीबें बेदार होती गईं और ज़ेहनों में बलूग़त आती गई, 
काफ़िर अपने ग्रंथो को एहतराम के साथ ताक़ पर रखते गए. 
ख़ुशी भरी हैरत होती है कि आज भी उनके वच्चे अपने पुरखों की रचनाओं को पौराणिक कथा के रूप में पहचानते हैं.
उनकी किताबें धार्मिक से पौराणिक हो गई हैं.

 क़ुरआन इन ग्रंथों के मुकाबले में अशरे-अशीर भी नहीं. 
ये कोई तख़लीक़ ही नहीं है बल्कि तख़लीक़ के लिए एक बद नुमा दाग़ है. 
मुसलमान इसकी पौराणिक कथा की जगह, 
मुल्लाओं की बखानी हुई पौराणिक हक़ीक़त की तरह जानते हैं 
और इन देव परी की कहानियों पर यक़ीन और अक़ीदा रखते है. 
यह मुसलमान कभी बालिग़ हो ही नहीं सकते. 
एक वक़्त इस्लामी इतिहास में ऐसा आ गया था कि इंगलिशतान 
अरबों के क़ब्ज़े में होने को था कि बच गया. 
इतिहास कर "वर्नियर" लिखता है 
"अगर कहीं ऐसा हो जाता तो आज आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पैग़ामबर मुहम्मद के फ़रमूदात पढ़ाए जा रहे होते."
अरब भी मुहम्मद को देखने और सुनने के बाद कहते थे कि 
"इसका क़ुरआन शायर के परेशान ख़यालों का पुलिंदा है" 
इस हक़ीक़त को जिस क़द्र जल्दी मुसलमान समझ लें, इनके हक़ में होगा .
एक ही हल है कि मुसलमान को तर्क-इस्लाम करके, 
अपने बुनयादी कल्चर को संभालते हुए मोमिन बन जाने की सलाह है. 
जिसकी तफ़सील हम बार बार अपने मज़ामीन में दोहराते है. 
कोई भी ग़ैर मुस्लिम नहीं चाहता कि  मुसलमान इस्लाम का दामन छोड़े. 
अरब तरके-इस्लाम करके बेदार हुए तो योरप और अमरीका 
के हाथों से तेल का ख़ज़ाना निकल जाएगा, 
भारत के मालदार लोगों के हाथों से नौकर चाकर, मजदूर, मित्री और एक बड़ा कन्ज़ियूमर तबक़ा सरक जाएगा. 
तिजारत और नौकरियों में दूसरे लोग कमज़ोर हो जाएँगे, 
गोया सभी चाहते है कि दुन्या की 20% आबादी सोलवीं सदी में अटकी रहे.  
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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