Sunday 26 July 2020

लब्बयक अल्लहुम लब्बयक

लब्बयक अल्लहुम लब्बयक 
(ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ )

हज के ज़माने में हाजियों की यह आवाज़ काबे में गुनती हैं.
क़ब्ल इस्लाम काबा पूरी दुन्या का मरकज़ हुवा करता था. 
आजका अक़्वाम मुत्तःदा (यूनाइटेड नेशन) मक्का हुवा करता था. 
काबे में हर क़ौम  के बुत हुवा करते थे जैसे आज U N O में हर मुल्क के झंडे होते हैं. आस पास की क़ौमें अपने मसाइल लेकर यहाँ इकठ्ठा हुवा करती थीं. 
इस दौरान मक्का में हिंसा वर्जित हुवा करती थी. 
खाने पीने का सामान ख़ुद शुर्का किया करते थे. 
तिजारत भी हुवा करती थी और तबाला ए ख़याल भी. 
काबे में साहिबे हैसियत लोग ही शरीक होते थे, लाख़ैरे नहीं. 
लोग अपनी हैसियत के हिसाब से जानवरों की क़ुरबानी दिया करते थे, 
बकरे से लेकर ऊँट तक सभी जानवर क़ुरबानी के लिए मुहय्या किए जाते थे, स्वस्थ जानवर,बीमार और लाग़ुर नहीं. इस इन्तेज़ामियां में शरीक लोग अपने माल की क़ुरबानी देकर आलमी सम्मलेन का नियोजन किया करते थे.
इस्लामी इंक़्लाब आया, क़ुरबानी की रवायत जिहालत में बदल गई.
तमाम क़ौमो के हुक़ूक़ मुसलमानों की जंग जूई ने हथिया लिया . 
अब मुसलमान के सिवा कोई दूसरा मक्के में दाख़िल नहीं हो सकता. 
क़ुरबानी अब हज के बाद तीन दिनों तक होती है. हाजी हफ़्तों पहले से जाते हैं , उनका ख़र्च ख़राबा उनके जिम्मे. 
बकरे हज के बाद कटते हैं जो खाए नहीं जाते बल्कि रेतों में दफ़्न  कर दिए जाते हैं. होगी कोई इनकी तरह अक़्ल की अंधी, दुन्या में कोई क़ौम  ? 
बुत परस्ती इस्लाम में हराम है, 
बुतों से नफ़रत इतनी कि उसका ही बुत बना कर उसे कंकड़ मा रते है. 
नहीं समझ पाते यह अहमक़ कि बुत परस्ती हो या बुत की संगसारी, 
दोनों बातें बुत की हस्ती को तस्लीम करती हैं. 
आसमान से गिरे पत्थर शहाब साकिब (उल्का पिंड) को पूजने से बढ़ कर, 
उसे चूमते हैं.
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जीम 'मोमिन' निसारुल-ईमान

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